प्रसाद का जीवन परिचय-
प्रसाद का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में माघ शुक्ला दशम् सं. 1946 वि. (सन् 1889 ई.) को हुआ था। काशी में इनका परिवार 'सुँघनी साहू' के नाम से प्रसिद्ध था। कवि प्रसाद के पितामह शिवरतन साहु काशी के अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। लक्ष्मी और हृदय की उदारता का सुन्दर मेल इनके परिवार की ख्याति का एक और प्रमुख कारण था। काशी राजघराने से भी प्रसाद के परिवार के अच्छे संबंध थे। उन्होंने कई शिक्षकों से संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू-फारसी आदि की शिक्षा प्राप्त की थी। प्रसाद जी बचपन से ही प्रतिभा सम्पन्न थे। नौ वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने 'लघु कौमुदी' और 'अमरकोश जैसे ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे और उन्होंने बचपन से ही काव्य-रचना प्रारंभ कर दी थी। आरंभ में उन्होंने 'कलाधर उपनाम से कविताएँ लिखी थीं।
प्रसाद का व्यक्तित्व -
प्रसाद जी अन्तर्मुखी सौम्य प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्हें काव्य-संस्कार कुछ अपने परिवार के अभिजात एवं सुसंस्कृत वातावरण से तथा कुछ शिक्षकों-मित्रों के साहचर्य से प्राप्त हुए थे। अपना व्यवसाय करते हुए अवकाश मिलने पर वे सदा कुछ न कुछ लिखते-पढ़ते रहते थे। उनकी दुकान पर साहित्यिक मित्रों की बैठके होती रहती थी। उनका रचनाकार व्यक्तित्व बहु आयामी था। कविता के साथ ही कहानी, नाटक और उपन्यास के क्षेत्र में उन्होंने अपनी प्रतिभा का विशेष परिचय दिया था ।
सृजन-कर्म:
प्रसाद जी आरंभ में लुक-छिपकर कविताएँ लिखते थे क्योंकि उनके बड़े भाई इस प्रकृति को व्यापार में बाधक ही मानते थे। उनकी शुरुआत सर्वप्रथम 'भारतेन्दु' नामक पत्रिका (1906 ई.) के प्रकाशन से होती है। 'इन्दु' प्रसाद जी की ही प्रेरणा से उनके भांजे अम्बिकादत्त गुप्त द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित की जाती थी। प्रसाद जी इसमें निरंतर लिखते रहते थे। उनकी ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली की अधिकतर आरंभिक कविताएँ तथा स्फुट लेख 'इंदु' में ही प्रकाशित हुए थे।
प्रसाद जी की कविताओं का पहला प्रकाशित संग्रह 'चित्राधार' (1975 वि. सं.) था जिसमें उनकी ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली- दोनों तरह की रचनाएँ संग्रहीत थीं। आगे चलकर कुछ कविताएँ अलग करते हुए उन्होंने वि.स. 1985 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करवाया जिसमें आरंभिक बीस वर्षों की कविताएँ सम्मिलित कर ली गई थीं।
प्रसाद जी की खड़ी बोली की कविताओं का पहला स्वतंत्र संग्रह 'कानन- कुसुम' (1918 ई.) था। भावमयी कल्पना के साथ विनयभाव प्रकृति के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण के साथ के साथ अनुभूति एवं अभिव्यक्ति की नवीनता कानन - कुसुम कविताओं की विशेषताएँ थी, जिनमें आगे चलकर छायावाद के रूप में प्रतिष्ठित होने वाले काव्यान्दोलन की पृष्ठभूमि का अंदाज लग सकता है। प्रसाद जी ने करुणालय (गीतिनाट्य) के अतिरिक्त प्रेम पथिक और 'महाराणा का महत्व जैसी आख्यानक कविताएँ भी अपने इसी आरंभिक दौर में रची थीं। परम्परागत भावबोध एवं काव्य शिल्प को तोड़ते हुए प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य दृष्टि से ओतप्रोत स्वच्छंदतावादी काव्य चेतना को प्रमुखता से प्रस्तुत करने वाला प्रसाद जी का पहला छायावादी काव्य संग्रह झरना' (1918 ई.) था, जिसमें छायावादी गतिशैली से ओतप्रोत रचनाएँ ! संग्रहीत थीं। आगे चलकर 'झरना' का दूसरा संस्करण 1927 ई. में प्रकाशित हुआ जिसमें 1913 ई. से 1927 ई. के बीच की कविताएँ सम्मिलित कर दी गई थीं। प्रेमानुभूति, प्रकृति सौन्दर्य के प्रति संवेदनशील दृष्टि के साथ ही भावोवेलन और मानव जीवन की जटिलताओं के प्रति एक सहज आक्रोश-भाव झरना' की कविताओं की विशेषताएँ थी। हिन्दी की मुक्तक गतिशैली झरना' में अपने पूरे सौन्दर्य के साथ अभिव्यक्त होती देखी जा सकती है। छायावादी काव्य चेतना की स्वच्छंदतावादी मुक्त शैली का एक ओर काव्य 'आँसू' (1926 ई.) प्रसाद जी की इसी दौर की रचना हैं, जिसमें कवि ने अपने प्रेम की स्मृतियों का सूक्ष्म एवं बिंबग्राही चित्रण प्रस्तुत किया है। प्रसाद जी की गीतिपरक मुक्तक कविताओं का अंतिम संग्रह लहर (1935 ई.) था। लहर की कविताएँ उनकी विकसित एवं प्रौढ़ मानस की रचनाएँ है। इनमें वैयक्तिकता होते हुए भी एक तटस्थता का भाव है। कवि ने मानव जीवन के दुःख-सुख एवं राग-विराग के भावों की धनीभूत व्यंजना उसके गीतों में उड़ेल दी है। रागात्मकता, लयात्मकता, संगीतात्मकता के साथ अनुभूतियों की संवेदनात्मक एवं घनीभूत व्यंजना 'लहर' के गीतों की अपनी खास विशेषताएँ है जिनमें काव्य-दृष्टि अपने पूरे वैभव के साथ प्रस्तुत होती देखी जा सकती है।
'मेरी आँखों की पुतली में, तू बनकर प्राण समा जा रे ।"
जैसे प्रेमाभिव्यक्तिपरक गीत तथा 'ले चल मुझे भुलावा देकर', 'मेरे नाविक धीरे-धीरे जैसे वैयक्तिक बोध के गीत 'लहर' के गीतों को एक खास अंदाज के गीत सिद्ध करते है। अशोक की चिंता, शेरसिंह का शस्त्र समर्पण, पेगोला की प्रतिध्वनि तथा प्रलय की छाया लहर में संगृहीत इतिहास विषयक कविताएँ हैं। इन कविताओं में मानव-मुक्ति, स्वाधीनता और राष्ट्रीय चेतना के भावों को कवि ने प्रमुखता से उभारने का प्रयत्न किया है। प्रलय की छाया प्रसाद जी की एक विशिष्ट कविता है जिसमें नारी मनोविज्ञान और रूप- 1-सौन्दर्य के अहं का प्रश्न कलात्मक रूप में उठाया गया है।
'कामायनी' (1936 ई.) प्रसाद जी की अन्तिम रचना है। यह छायावादी काव्य की ही नहीं, अपितु बीसवीं शताब्दी की सम्पूर्ण हिन्दी कविता की अद्वितीय रचना है। इसमें कवि ने एक प्राचीन मिथक के माध्यम से मानव जीवन एवं मनोविज्ञान की जटिलताओं को कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, जिनका सर्वांगीण विवेचन अगली इकाई में किया जाएगा।
एक श्रेष्ठ कवि के रूप में ही नहीं, नाटककार एवं कथाकार के रूप में भी प्रसाद की हिन्दी साहित्य में विशेष ख्याति रही है। राजश्री, विशाख, अजातशत्रु जन्मेजय का नागयज्ञ, कामना, स्कंदगुप्त, एक घूँट, चन्द्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी उनके प्रसिद्ध नाटक है। 'छाया', 'प्रतिध्वनि', 'आकाशदीप', 'आँधी' और 'इन्द्रजाल' नामक कहानी संग्रहों से उनकी सम्पूर्ण कहानियाँ संग्रहीत है। कंकाल, तितली तथा इरावती प्रसाद जी के उपन्यास हैं। साहित्य चिंतन और अलोचना के क्षेत्र में भी प्रसाद जी चर्चित रहे है। काव्य और कला तथा अन्य निबंध अच्छे निबंधों का संग्रह है जिसमें इन्होंने काव्य-कला और छायावाद - रहस्यवाद विषयक अपनी मान्यताओं को तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत किया है। इस प्रकार प्रसाद जी का सम्पूर्ण साहित्य बहु से आयामी है। उनके काव्य में एक विकास है, उदात्तता और विराटता है, और है विशिष्ट छायावादी भंगिमा। जिसके कारण वे हिन्दी की काव्यधारा छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में समादृत है।
"जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रतिनिधि कवि है ।"
जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी कविता के महाकवि के रूप में जाने जाते है। वे छायावाद के प्रतिनिधि कवि तो है ही साथ ही आधुनिक हिन्दी कविता के भी गौरव है। इनका जन्म 1889 ई. में काशी के प्रसिद्ध सुघनी साहू परिवार में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का देहावसान हो जाने से अल्पायु में ही उन्हें घर की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी थी। इसकी विपदाओं के बाद भी उन्होंने काव्य रचनाएँ की है।
उनकी आरम्भिक काव्य-रचनाएँ ब्रजभाषा में थी। कहा जाता है कि उन्होंने कलाघर उपनाम से 9 वर्ष की उम्र में ही एक कविता लिख दी थी। आगे चलकर इसी काव्य प्रतिभा का विकास हुआ। उनके काव्य में छायावाद के गुण मौजूद है। उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं
1. प्रेम एवं सौन्दर्य
जयशंकर प्रसाद प्रेम व सौन्दर्य के कवि के रूप में जाने जाते है। उनका प्रेम व्यावहारिकता से आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख हुआ है। उनके प्रेम को व्यावहारिक प्रेम भी कहा जाता है। प्रेम पथिक' में उनकी प्रेम भावना का प्रभावी अंकन हुआ है। उसमें वे कहते हैं: ←
"इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना,
किन्तु पहुँचना उस सीमा पर, जिसके आगे राह नहीं।"
प्रसाद जी ने नारी सौन्दर्य का तो सुष्ठु अंकन किया ही है साथ ही प्रकृति, पुरुष एवं शिशु सौन्दर्य का भी प्रभावी निरूपण किया है। स्त्री सौन्दर्य की प्रतिनिधि पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं. -
"नील परिधान बीच सुकुमार, खिल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ वन बीच गुलाबी रंग।।"
2. प्रकृति चित्रण :
प्रसाद जी के काव्य में ही सर्वप्रथम प्रकृति का निरूपण सर्वथा नवीन शैली में हुआ है। सर्वप्रथम प्रसाद जी ने ही प्रकृति पर चेतना का आरोप लगाया। 'आँसू' में निरूपित प्रकृति सौन्दर्य का प्रभावी स्वरूप इन पंक्तियों से समझा जा सकता है :में
"बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से, मणि वाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।"
3. राष्ट्र प्रेम
प्रसाद जी के काव्य में देश प्रेम की भावना मुखरित हुई है। महाराणा का महत्व, पेशोला की प्रतिध्वनि, शेरसिंह का शस्त्र समर्पण, चन्द्रगुप्त आदि कृतियों के माध्यम से प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना को समझा जा सकता है। :
4. वैयक्तिकता
प्रेम पथिक, लहर, आँसू जैसी कृतियों में कवि की निजी भावानुभूतियाँ भी मार्मिक ढंग से व्यक्त हुई है। आँसू में आत्मपीड़ा व्यक्त करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं:
"सौ बार मुक्ति को मैं ठुकरा दूँ
मिल जाए जो तुम्हारे एक बार बंधन।"
5. निराशा और वेदना :
छायावाद काव्य की यह प्रमुख विशेषता रही है कि सभी कवियों ने अपने वैयक्तिक सुख-दुःख, आशा-निराशा एवं पीड़ा आदि का बेबाक चित्रण किया है। अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति प्रसाद इन शब्दों में करते हैं:
"जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी छाई,
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई।"
6. मानवतावादी भावना
प्रसाद जी मानवतावादी चिन्तक थे। उन्होंने मानव जीवन के हृदय के सत्य को देखा और समझा। उनकी सभी रचनाओं में चाहे वे पद्यात्मक हों या गद्यात्मक, सभी में उन्होंने मानवता का पथ-प्रदर्शन किया है। चन्द्रगुप्त, कामायनी पेशोला की प्रतिध्वनि आदि रचनाएँ मानवतावादी भावना से ओत-प्रोत है।
7. कलागत विशेषताएँ:
प्रसाद जी का काव्य भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से ही नहीं अपितु कला सौन्दर्य की दृष्टि से भी विशेष महत्वपूर्ण है। मार्मिकता, भावप्रवणता, सरसता, लाक्षणिकता, छायात्मकता, प्रतीकात्मकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान आदि •प्रसाद जी की भाषा शैली की उल्लेखनीय विशेषताएँ है। अंग्रेजी के विशेषण विपर्यय एवं मानवीकरण अलंकार उनका विशेष प्रिय है। प्रसाद जी के काव्य की भाषापरिष्कृत प्रांजल, सरस, सरल संस्कृतनिष्ठ शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि प्रसाद जी निस्सन्देह छायावाद के सिरमौर कवि है। छायावाद के अन्य कवियों पर वे सब तरह से भारी पड़ते है। भारतीय संस्कृति एवं मानवतावाद के वे पोषक रहे है, नारी के प्रति प्रसाद जी का पूज्य भाव रहा है। इसलिए कामायनी में उन्होंने नारी को विशेष स्थान दिया है कामायनी में कवि ने समरसतावाद की स्थापना करके अखण्ड मानवतावादी भावना के साथ अखिल आनन्द की बात कही है। प्रसाद जी के महाकवि रूप एवं उनके महत्व को एक कवि शब्दों में इस प्रकार निरूपित किया जा सकता हैं: - "सदियों से साहित्य नहीं समझ सकेगा, तुम मानव थे या मानवता के महाकाव्य थे।"
जयशंकर प्रसाद: काव्यगत सौन्दर्य
काव्य का अनुभूति पक्ष
प्रसाद के व्यक्तित्व में भावना और विचारों का अद्भुत था। वे जितने भावुक थे, उतने ही विचारक भी। भावुकता का वरण करके प्रसाद ने प्रणय एवं सौन्दर्य के गीत गाये तो अपनी चिन्तना के फलस्वरूप आधुनिक जीवन की प्रश्निल स्थितियों का मांगलिक समाधान प्रस्तुत किया। छायावादी चेतना से अनुप्राणित प्रसाद का काव्य श्रेय और प्रेय, व्यक्तिहित और समाजहित, अनुभूति और कल्पना तथा आस्था और मूल्यबोध का काव्य है। उनकी सरस चेतना का प्रतिफल बनकर आने वाले काव्य की प्रमुख प्रवृतियाँ ये है : प्रकृति का सूक्ष्म अंकन, नारी-सौन्दर्य के प्रति श्रद्धा, प्रणय के प्रति उल्लास, वेदना, करुणा, मानव और उसके जीवन के प्रति आस्था, राष्ट्रीयता और आनन्दवादी दर्शन की स्थापना आदि ।
प्रकृति - सौन्दर्य
प्रसाद का काव्य प्रकृति की मधुर चित्रशाला है। उसमें प्रकृति का सूक्ष्म और उदात्त चित्रण मिलता है। उन्होंने प्रकृति के कोमल स्वरूप के प्रति अनुराग प्रदर्शित करते हुए उसके भयानक स्वरूप भी और सजीव चित्रावली प्रस्तुत की है। कामायनी एक ऐसी कृति है जिसमें प्रलय- के प्रसंग में प्रकृति के भयावह व प्रलयंकारी रूप को पूरे प्रवेग और आवेग के साथ अंकित किया गया है। लहर, आँसू, झरना और कामायनी में शताधिक स्थलों पर प्रकृति के कोमल, कमनीय और सूक्ष्म चित्र अंकित किए गए है। उनके काव्य को कहीं से भी पलटिए प्रकृति की मोहक और उदात्त छवियाँ मुस्कुराती हुई मिलेंगी। उदाहरणत:
आकर्षक वर्णन नव कोमल आलोक बिखरता, हिम संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीडा करता जैसे मधुमय पिंग पराग ।।
ध्यान से देखें तो प्रसाद के प्रकृति निरूपण की अनेक विशेषताएँ हैं। प्रकृति मानव-सहचरी बनकर विविध स्थितियों और मनस्थितियों की निरूपिका बन गयी है। वह मानव के सुख में अपना हर्षोल्लास मिलाती है तो दुःख में वह मानव की सहवर्तिनी बनकर विश्वास छोड़ती प्रतीत होती है।
प्रकृति निरूपण में आलम्बन, उद्दीपन और अलंकार रूपों को तो काम में लिया ही गया है। प्रकृति का मानवीकरण तो अद्भुत है। प्रसाद द्वारा किए गए उषा, रजनी, धरा, संध्या और चाँदनी आदि के मानवीकरण अपनी समता नहीं रखते हैं। इन मानवीकरणों में कवि की कला-संयोजना और भावोपम शक्ति को सर्वत्र देखा जा सकता हैं। स्पष्टीकरण के लिए केवल एक उदाहरण देखिए जिसमें 'धरा' का मानवीकरण नवविवाहित लज्जावनत वधू के रूप में किया गया है।
सिन्धु सेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी
प्रलय-निशा की हलचल स्मृति मान किए सी ऐंटी-सी ।
2. नारी सौन्दर्य
प्रसाद सौन्दर्य कवि हैं। उनके काव्य में प्रकृति की कमनीय छवियों के साथ-साथ नारी की अनाधात छवियों को भी देखा जा सकता हैं। प्रसाद ने नारी के जिस रूप की कल्पना की है, वह उसका पावन और निष्कलुष रूप है। उन्होंने नारी के उस आभ्यंतर सौन्दर्य से परिचित कराया है जो उसके चर्म और मांस में नहीं, प्रत्युत उसकी आत्मा में निहित है, जो वासना का नहीं, अर्चना का विषय है। ऐसे सौन्दर्य से पुरुष के मानस में भोग की अपेक्षा प्रेरणा, शक्ति से पूर्ण प्रकट करती, ज्यों जड़ में स्फूर्ति कहकर तथा 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग तल में कहकर इसी भाव को व्यंजित किया है। कामायनी में आई ये पंक्तियाँ देखिए:
जो स्पर्श से परे अनिर्वचनीय आनन्द को प्रेरित करती है,
और उस मुख पर वह मुसक्यान रक्त किसलय पर ले विश्राम
अरुण की तरह एक किरण अम्लान, अधिक अलसाई को अभिराम ।
प्रसव की सौन्दर्यनुभूति में कमनीयता है, मधुरिमा है,
पावनता है और न गम्भीरता ।
उसमें तन-मन का सौन्दर्य समाहित है। छायावाद ने नारी को केवल सौन्दर्य बोध की दृष्टि से देखा। यह कारण है कि वह नारी को सौन्दर्य की अकलुष प्रतिमा, चन्द्रमा की मुस्कान, जूही की माला और सपनों की शोभा मानता रहा है।
3. प्रणयानुभूति :
'चित्राधार' से लेकर कामायनी तक प्रसाद प्रेम और सौन्दर्य के कवि है। प्रणय भी सौन्दर्य के भाँति उनके काव्य का मूल स्वर है। प्रेम का जो स्वरूप प्रसाद के काव्यं में मिलता है, वह स्वच्छंद, उदात्त और आदर्शमूलक है। प्रेमपथिक में ही कवि का यह प्रेम संबंधी दृष्टिकोण मिल जाता है। उनका प्रेम परिमित नहीं है, वह तो सौहार्द से मिलकर विश्वव्यापी बनता दिखाई देता है किन्तु न परिमित करो प्रेम को, सौहार्द विश्वव्यापी कर दो। श्रद्धा के द्वारा मनु को संबोधित करके कही गई ये देखिए जिनमें व्यापक मानवीय दृष्टि का स्पर्श है : औरो को हँसते देखों मनु हँसों और सुख पाओ, पंक्तियाँ -
अपने दुःख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ।
4 वेदना और करुणा
प्रसाद ने वेदना को उत्सर्ग का उपहार माना है। उनका वेदनानुभूति में छायावादी स्वानुभूति की निवृत्ति, रहस्यवादी अनुभूति और सेवा भावना का मधुर मिलन है। प्रसाद ने व्यक्ति-वेदना और समष्टि वेदना को समीकृत करके अपने वेदना भाव को उदात्त भूमिका प्रदान की है। प्रसाद के यहाँ वेदना का जो स्वरूप है, उसमें न तो वैराग्य की शांति छाया है और न ही लौकिक आह और कराह ही है। इसमें प्रसाद की जीवन-दृष्टि शैवमत के आनन्दवाद से प्रेरित और पुष्ट हैं। श्रद्धा आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ रखने का भाव लिए हुए है। वह 'एक युग प्रकृति की पीर के भाव को लेकर मैं लोकअग्नि में तप नितान्त आहुति प्रसन्न देती प्रशान्त को स्थिति में पहुँच गयी हैं। स्पष्ट ही प्रसाद की वेदना करुणा से मिलकर उच्च मनोभूमि पर संस्थित है। श्रद्धा मनु के पशुबलि वाले कृत्य से दुःखी होकर करुणाभिभूत हो गयी है। उसने वेदना और करुणा से भरकर कहा भी है: ये प्राणी जो बचे हुए है, इस अचला धरती - अज्ञके उनके कुछ अधिकार नहीं क्या वे सब ही हैं फीके। स्पष्ट ही प्रसाद के काव्य में वेदना का मांगलिक, विश्वव्यापी और कारुणिक रूप से चित्रित हुआ है।
5. आस्था और जीवन-
सत्य प्रसाद छायावादी कवियों में एक ऐसे छवि के रूप में अपनी पहचान कराते है जिन्हें मानव और उसके जीवन के प्रति अटूट विश्वास रहा है। वे पलायन और वैराग्य के कवि नहीं, जीवन्त आस्था बोध और प्रवृत्तिमार्गी कवि थे। कामायनी उनके आस्थावाद की सशक्त पहचान है। निराश और हताश मनु को जीवन-संग्राम में प्रवेश की प्रेरणा देने का कार्य श्रद्धा द्वारा कराया गया है। केवल लेचल मुझे भुलावा देकर जैसी पंक्तियों के आधार पर उन्हें पलायनवादी कवि नही माना जा सकता है। जिस कविता की ये पंक्तियाँ है उसी के अन्तिम भाग में जीवन को जीने का संदेश भी दिया गया है। उन्होंने लिखा हैं :
श्रम-विश्राम क्षितिज बेला से, जहाँ सृजन करते मेला अमर जागरण उषा नयन से, बिखराती हो ज्योति घनीरे।
6. अतीत के प्रति आकर्षण:
अतीत के प्रति आसक्ति और आकर्षण छायावाद की प्रमुख विशेषता रही है। प्रसाद का काव्य भी इस विशेषता से अनुरंजित है। उनकी नाट्य रचनाओं में जहाँ राष्ट्रीयता की भावना को वाणी मिली है, वहीं अतीत के गौरव के प्रति आकर्षण भी मिलता है। जहाँ तक काव्य का संबंध है, उसमें भी अतीत के प्रति आकर्षण और प्रेम खुलकर प्रकट हुआ है। वरूना की कछार, अशोक की चिन्ता, पेशोला की प्रतिध्वनि, 'छाया' आदि में यह भाव मिलता है। अतीत के प्रति प्रेम प्रकट करने की दृष्टि से कामायनी को भी विस्तृत नहीं किया जा सकता है। चिन्ता सर्ग में मनु अस्तगत देव-संस्कृति और अतीत के वैभव को याद करके चिंतित होते प्रलय 277 27 28 कृति और के से,दिखाए गए हैं: =
चिर किशोरवय नित्य दिलासी, सुरभित जिनसे रहा दिगन्त, आज तिरोहित हुआ कहां वह मधु से पूर्ण अनंत बसन्त ? कुसुमित कुंजों से पुलकित प्रेमालिगन हुए विलीन, में मौन हुई है मूर्च्छित ताने, और न सुन पड़ती अब बीन।
7. कल्पना की अतिशयता:
अतीत के प्रति आसक्ति के साथ-साथ प्रसाद के काव्य में कल्पना की अतिशयता भी मिलती है। कोमलता, नवीनता और के कारण मसृणता प्रसाद के काव्य प्रयुक्त उपमान और कतिपय कल्पनाएँ बड़ी अनूठी हैं। उदाहरणार्थ-चिन्ता सर्ग में देवताओं के सुख-संचय की अभिव्यंजना के लिए छायावाद में नव तुषार का सघन मिलन, देवताओं के यौवन के लिए उषा और उसकी मुस्कान के लिए 'ज्योत्सना', विलास भावोपम सभ्यता को मधुपूर्ण बसन्त एवं दिशाओं में व्याप्त सौरभ की अभिव्यंजना सौरभ से दिंगत पूरित था, अन्तरिक्ष आलोक-अधीर की कल्पना की गई है। कल्पना की यह अतिशयता 'आँसू' में तो स्थान-स्थान पर देखी जा सकती हैं
तिर रही अतृप्ति जलधि में नील की रात 'निराली' काला पानी तेला- सी अंजन रेखा काली।
8. सांस्कृतिक चेतना:
प्रसाद जी राष्ट्रीय चेतना से युक्त और सांस्कृतिक भावों से परिपूर्ण रचनाकार थे। उनका काव्य ही नहीं, अपितु उनके नाटकों में भी उनकी राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना को देखा जा सकता है। उचित भी है, जो कवि भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता हो, देश से अनुराग रखता हो और राष्ट्रीय भावों का प्रचारक और प्रसारक हो, वह वही राही अर्थ में मानव-मूल्यों का विश्वासी और पक्षधर हो सकता है। प्रसाद का कामायनी जैसा काव्य स्थान-स्थान पर उनकी राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति करता प्रतीत होता है।
चेतना के 'चन्द्रगुप्त' नाटक में आया हुआ उनका यह गीत उनकी राष्ट्रीय सांस्कृतिक सन्दर्भ में देखा जा सकता है:
अरुण यह मधुमय देश हमारा,
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
9. शैव दर्शन की पीठिका पर आनन्दवाद
प्रसाद के काव्य में शैव दर्शन के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर आनन्दवाद की प्रतिष्ठा की गई है। नियतिवाद और कर्मवाद या प्रवृत्तिवाद भी अन्ततः रहस्यवाद में ही मिल गए है। कामायनी में इसी आनन्दवाद की स्थापना 'समरस थे जड़ या चेतन सुन्दर साकार बना था, चेतनता एक विलसती आनन्द अखण्ड घना था' कहकर की गई थी। प्रसाद की धारणा थी कि सौन्दर्यमयी चंचल कृतियों, आसुरी वृत्तियों और तर्कशील बुद्धि आदि से पूरित विषमता भरे संसार में अंततः इच्छा, क्रिया और ज्ञान के सामंजस्य से आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है। ज्ञान, इच्छा और क्रिया के असंतुलन पर दृष्टिपात करते हुए प्रसाद कामायनी में लिखे गए हैं: -
ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी हो मन की।
1 एक-दूसरे से न मिल सकें, यही विडम्बना है जीवन की।
काव्य का अभिव्यंजना पक्ष या शिल्प पक्ष:
प्रसाद का काव्य अनुभूति की दृष्टि से जितना समृद्ध है, अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी उतना सक्षम है। भाषा, अलंकार, छन्द और प्रतीक एवं बिम्बों के सफल और सार्थक प्रयोग प्रसाद काव्य की महत्तम उपलब्धियाँ है। अभिव्यंजना शिल्प के प्रमुख उपकरणों में पहला स्थान भाषा का है, तदनन्तर अलंकरण आदि को महत्व प्राप्त है। 201
1. काव्य-भाषा
अभिव्यक्ति की प्राणशक्ति का नाम भाषा है। यह वह सेतु है जिसके सहारे कवि का अनुभूत पाठकों तक सम्प्रेषित होता है। अतः सम्प्रेषणीयता, प्रसंगानुकूलता और भावानुकूलता भाषा की अनिवार्य विशेषताएँ हैं। प्रसाद की भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है। तको तक
(1) प्रसाद की भाषा तनिष्ठ शब्दावली से युक्त है। उसमें शब्दावली न केवल संस्कृत के शब्दों का, अपितु दीर्घ सामासिक शब्दावली व संन्धियुक्त शब्दों का प्रयोग भी हुआ है।
(2) प्रसाद के काव्य में प्रयुक्त शब्द तत्सम, तद्भव और देशज तीनों प्रकार के है।
(3) तद्भव शब्दों का प्रयोग भी प्रसाद की भाषा में प्रचुरता से हुआ है- निबल, सपना, सुहाग, नखत - रात, तीखा, राज, पीर, प्रान, परम, सांझ, अर्ध, परदेशी, नाव आदि ऐसे ही शब्द है।
(4) देशज शब्द भी प्रसाद की भाषा के गौरव है और भाषा की जीवन्त शक्ति के प्रतीक
(5) प्रसाद एक सजग शिल्पी थे। अतः शब्द- निर्माण की प्रवृत्ति भी उनके काव्य में मिलती है। उनके द्वारा प्रयुक्त स्वनिर्मित शब्दों में गुलाली, विकस चली, दिपती, अलगाता और सलील आदि के कारण भाषा माधुर्ययुक्त हो गई है।
(6) ध्वन्यात्मकता प्रसाद की भाषा की अन्यतम विशेषता है। अरसया, रिमझिम, झिलमिल, छपछप, थर-थर, सन- सन और धू-धू आदि शब्दों का प्रयोग ऐसा ही है। (7) लाक्षणिकता प्रसाद की काव्य-भाषा की सातवीं विशेषता है। कामायनी और आँसू ही क्यों डरना और लहर में भी लाक्षणिक भाषा का प्रचुर प्रयोग हुआ है।
(8) प्रसाद की काव्य-भाषा में प्रतीकों का प्रयोग भी पर्याप्त वैविध्य लिए हुए है। उनके
प्रतीक प्रयोग से भाषा मधुर, गम्भीर और लालित्यपूर्ण हो गई है। (9) अभिव्यक्ति को सप्राण बनाने के लिए कहीं-कहीं प्रसाद की भाषा मुहावरों और लोकोक्तियों से भी युक्त हो गई है।
2. अलंकार प्रयोग:
अप्रस्तुत विधान से तात्पर्य उस समग्र अलंकरण सामग्री और उसके प्रयोग से है जिसकी सत्ता और स्थिति काव्य में वर्ण्य-विषय से पृथक है और जिसका प्रयोग काव्य में अतिरिक्त लावण्य भर देता है। R
प्रसाद के रूपकों एवं सांगरूपकों की संश्लिष्ट और भावुक सघनता को सर्वत्र देखा जा सकता है। स्पष्टीकरण के लिए ये पंक्तियाँ देखिए
आँसू मरंद का गिरना मिलना विश्वास पावन में। उदाहरण प्रस्तुत
3. बिम्ब- प्रयोग
प्रसाद जी का काव्य सफल और श्रेष्ठ बिम्बों करता है। कामायनी, आँसू लहर और झरना आदि सभी में सफल बिम्बों की योजना हुई है। कलात्मक एवं भावात्मक संतुलन बनाए संवेदनापरक और आध्यात्मिक बिम्बों के विधान में कतिपय उदाहरण देखिए रख रखकर भी प्रसाद ने दृश्य, मानस अपने कौशल का परिचय दिया है। -
इस हृदय कनल का घिरना अलि अलकों की उलझन में
बीती विभावरी जाग री, अम्बर पनघट में डुबो रही,
ताराघट उषा नागरी ।
4. काव्यरूप और छन्द
प्रसाद की काव्य चेतना प्रगीतात्मक रही है, किन्तु बावजूद इन्होंने कामायनी और आँसू के रूप में प्रबन्धों की सृष्टि भी की है। आँसू का प्रबन्धत्व भाव-राशि के क्रमिक बँधाव पर आधारित है, तो कामायनी का महाकाव्यत्व शास्त्रीय सीमाओं का स्पर्श करता हुआ भी स्वच्छंद पर अवस्थित है। लहर, झरना और प्रेमपथिक में प्रगीत चेतना भी है और दीर्घ कविता का ऐसा विधान भी है जो कतिपय अर्थों में प्रबन्धत्व के निकट प्रतीत होता है। उनके द्वारा प्रयुक्त छन्द परम्परागत ही है किन्तु शेरसिंह का शस्त्र समर्पण, 'पेशोला की प्रतिध्वनि', 'प्रलय की छाया' आदि में मुक्त छन्द और अतुकान्त छन्द का प्रयोग हुआ है। कामायनी में पारम्परिक छन्दों का वैविध्य है। वहाँ सार, श्रृंगार, नाटक, तीर और रूपमाला आदि छन्दों का सफल प्रयोग हुआ है। कतिपय छन्द ऐसे भी है जहाँ पादाकुलक और पदधरि का मिश्रित रूप भी मिलता है। 'आँसू' में प्रयुक्त 'आँसू' छन्द कामायनी के आनन्द सर्ग में भी प्रयुक्त हुआ है। कुल मिलाकर छन्द-विधान काव्य-रूप की दृष्टि से भी प्रसाद का काव्य प्रभावी और आकर्षक बन पड़ा है। जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक भी थे, मार्गदर्शक भी थे और विशिष्ट कवि भी थे।
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