स्वामी विवेकानन्द
[SWAMI VIVEKANAND (1863-1902)]जीवन-परिचय
(LIFE-SKETCH)स्वामीजी क्या थे ? इस बात का आभास टैगोर द्वारा लिखे गये रोमारोलाँ के पत्र के एक वाक्य से होता है-
"अगर तुम भारत के बारे में जानना चाहते हो तो विवेकानन्द का अध्ययन कीजिये।" ("If you want to know about India, study Vivekanand").
इस महान् व्यक्तित्त्व के बारे में यह भी कहा जाता है कि जो प्रयत्न सेंटपाल ने महात्मा ईसा के विचारों व शिक्षाओं के प्रचार के लिये किया था, लगभग वैसा ही प्रयास स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों के लिये किया था । रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर मन्दिर में अपने दिव्य स्पर्श द्वारा ज्ञान का जो बीज उनके हृदय में बोया, उसे स्वामीजी ने सारे विश्व में प्रसारित करके विश्व-धर्म का प्रचार व विकास किया। अपने जीवन के मात्र 40 वर्षों में ही विवेकानन्द ने संसार के विभिन्न भागों में अपने गुरु परमहंस के नाम पर मठों व आश्रमों की स्थापना करके वेदान्त शिक्षा तथा लोक-सेवा का महान् कार्य आरम्भ किया।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 1863 ई० में, भारत के विख्यात नगर कोलकाता में हुआ। वह जाति के बंगाली क्षत्रिय थे। उनके जन्म का नाम नरेन्द्र दत्त था । इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के वकील थे। उनका परिवार धार्मिक वातावरण से ओत-प्रोत था । इसीलिये उन्हें प्रारम्भ से ही, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ व धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन में रुचि उत्पन्न हो गई। उनकी बुद्धि बड़ी ही कुशाग्र थी । उन्होंने पाँच वर्ष से ही स्कूल में पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। वहाँ उन्होंने इतिहास व साहित्य के साथ-साथ दार्शनिक परम्परा का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके पाश्चात्य दर्शन का भी गहरा अध्ययन किया । स्पेन्सर व जॉन स्टुअर्ट मिल उनके प्रिय दार्शनिक थे तथा वर्डसवर्थ एवं शैले जैसे उनके प्रिय कवि थे। इस तरह विद्यार्थी जीवन में ही नरेन्द्र अपने सुन्दर शरीर, प्रखर प्रतिभा तथा बातचीत के अलौकिक ढंग के कारण लोकप्रिय बन गये। एक बार उनके कॉलेज के प्रधानाचार्य, मिस्टर हेस्टी ने कहा था 'नरेन्द्रनाथ सचमुच है। मैंने संसार के बहुत दूर-दूर देशों की यात्राएँ की हैं, किन्तु किशोरावस्था में ही, इसके समान योग्य व महान सम्भावनाओं वाला युवक मुझे जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं मिला। एक दिन हेस्टी साहब ने उनका सम्पर्क स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से करवाया। स्वामीजी का नरेन्द्रजी के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके सम्पर्क में वह लगभग छः वर्ष तक रहे तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करके नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द बन गये। सन् 1886 ई० में स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का स्वर्गवास हो गया। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु की स्मृति में रामकृष्ण मिशन स्थापित किया तथा उनके द्वारा दिये हुए वेदान्त के उपदेशों को एशिया, यूरोप व अमरीका की जनता में आजीवन प्रचार किया। विवेकानन्द ने अपने उपदेशों के साथ-साथ यह क्रियात्मक रूप से भी सिद्ध कर दिया कि यदि उनके परम पूज्य गुरु के अनुभवों के अनुसार प्राचीन वेदान्त की व्यवस्था करके उसे वर्तमान जीवन से सम्बन्धित कर दिया जाये तो भारत माता की प्रत्येक समस्या सरलता से सुलझ सकती है।
संक्षिप्त में स्वामीजी ने पाश्चात्य देशों में भावात्मक तथा भारत में क्रियात्मक वेदान्त का प्रचार करके हिन्दू धर्म की महानता को फैलाया। सन् 1900 ई० में स्वामीजी अमेरिका से स्वदेश लौट आये। यद्यपि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था, तथापि वह घूम-घूम कर भाषण देते रहे, मठ के कार्यों का संचालन तथा ब्रह्मचारियों की कक्षाएँ लेते रहे। इस प्रकार अपने व्यस्त जीवन में सारे कार्यों को सम्पन्न करते हुए उन्तालीस वर्ष की अल्पायु में स्वामीजी ने 4 जुलाई, सन् 1902 ई० को निर्वाण प्राप्त किया ।
जीवन-दर्शन
(PHILOSOPHY OF LIFE)श्री रामकृष्ण परमहंस ने स्वयं अपने जीवन में वेदान्त के सत्य का साक्षात्कार किया था। उन्होंने 'आत्मा परमात्मा में है और परमात्मा आत्मा में है इस सत्य की अनुभूति की और इसी परम सत्य की अनुभूति को उन्होंने अपने प्रिय शिष्य विवेकानन्द को प्रदान किया। विवेकानन्द की महानता इस बात में है कि उन्होंने एक पंडित की भाँति नहीं वरन् स्वानुभवी अधिकारी की भाँति अपने अनुभूत ज्ञान की शिक्षा दी क्योंकि सत्य के साक्षात्कार की गहराई तक वह पहुँचे हुए थे ।
वेदान्त दर्शन को व्यावहारिक रूप
विवेकानन्द को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने वेदान्त दर्शन को व्यावहारिक रूप दिया। यदि एक और अनेक' एक ही हैं, तो केवल नाना प्रकार की पूजा-विधि ही नहीं वरन् सभी प्रकार के कार्य, संषर्घ करने एवं रचना करने की सभी विधियाँ साक्षात्कार के साधन हैं। अतः धार्मिक और धर्म निरपेक्ष कार्यों में कोई भेद नहीं है। श्रम करना ही प्रार्थना है, विजय प्राप्त करना ही त्याग है। यह जीवन स्वयं ही धर्म है, इसे धारण करने में उनका उतना ही दृढ़ विश्वास है जितना उसके त्याग या उपेक्षा में। उनका कहना है कि मानव सेवा और ईश्वर - सेवा (पूजा), मनुष्यत्व और धर्म, सत्य-निष्ठता व आध्यात्मिकता में कोई भेद नहीं है।
मनुष्य का वास्तविक स्वभाव
अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत् है और वह है ब्रह्म ।अन्य सभी वस्तुएँ अवास्तविक व माया की शक्ति द्वारा ब्रह्म से उत्पादित हैं। प्रत्येक आत्मा असीम है, अतः उसके जन्म व मरण का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि सारे विश्व को एक समझा जाये, यदि इस विश्व के अलावा कुछ और है ही नहीं तब किसकी सापेक्ष्यता में वह गति करेगा । हमारी वास्तविकता विश्व व्यापकता में है, सीमाबद्धता में नहीं। व्यक्तित्त्व के सम्बन्ध में जनसाधारण की धारणा बड़ी भ्रमपूर्ण है। व्यक्तित्व क्या है ? व्यक्तित्त्व का निवास शरीर या मन में नहीं है। व्यक्तित्व का निवास स्मृति में नहीं है। हम अभी तक व्यक्ति नहीं हैं, हम केवल व्यक्तित्त्व की प्राप्ति के लिये संघर्ष कर रहे हैं। हम असीम व्यक्तित्त्व की ओर बढ़ रहे हैं और यही मनुष्य का वास्तविक स्वभाव है।
अनेकता में एकता
विवेकानन्द इस मत के समर्थक थे। संसार न तो आशावादी है और न ही निराशावादी । वरन् दोनों का सम्मिश्रण है। वेदान्त इन दोनों से विरत होने का रास्ता बताता है। उनका कहना है कि बुरे व अच्छे दोनों को त्याग दो, किन्तु तब शेष क्या रहता है ? अच्छे बुरे इन दोनों के पीछे कोई वस्तु है, जो तुम्हारी है वही तुम्हारा यथार्थ रूप है। यह यथार्थ अपने को अच्छे व बुरे दोनों रूपों में व्यक्त करता है। इन व्यक्त रूपों पर नियन्त्रण रखो तभी तुम अपने वास्तविक रूप को व्यक्त करने में स्वतन्त्र रहोगे । अब प्रश्न यह उठता है कि यदि यह सत्य है कि एक ही असीम सत्ता सभी प्राणियों में व्याप्त है, तो क्या वह प्राणियों के दुःखों से दुखी नहीं होगी ? उपनिषदों का कहना है कि ऐसा नहीं होता । अतः जो विविधता के बीच एकता का साक्षात्कार करते हैं, उन्हीं को असीम शांति का अनुभव होता है।आत्मा, मन व शरीर
स्वामीजी ने इन तीनों में आत्मा को सर्वोपरि माना है। अद्वैत दर्शन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के तीन अंग होते हैं-शरीर, मन व आत्मा शरीर आत्मा का बाहरी रूप तथा मन आन्तरिक आवरण । यह आत्मा ही वास्तविक ज्ञाता है तथा शरीर की जीवनी-शक्ति है। यह आत्मा मन के द्वारा शरीर में कार्य करती है।सार्वभौम विज्ञान धर्म के समर्थक
स्वामीजी का यह मानना है कि वेदान्त व विज्ञान दोनों के सिद्धान्त समान हैं। तर्क का पहला सिद्धान्त यह है कि 'विशिष्ट' (वस्तु) की व्याख्या 'सामान्य' (वस्तु) द्वारा होती है, जब तक कि हम सार्वभौम तक नहीं पहुँचते हैं। ज्ञान की दूसरी व्याख्या यह है कि एक वस्तु की व्याख्या उसके भीतर से होनी चाहिए, बाहर से नहीं । अद्वैत इन दोनों सिद्धान्तों को स्वीकार करता है। यही कारण है कि विवेकानन्द अद्वैत-धर्म को सार्वभौम विज्ञान-धर्म (Universal Science Religion) कहते हैं। उनके विचार में आवश्यकता इस बात की है कि सभी प्रकार के धर्मों में सहयात्री की भावना हो। उनका कहना कि मनुष्य कभी भी मिथ्या से सत्य की ओर नहीं अग्रसर होता, वरन् सत्य से सत्य की ओर अग्रसर होता है। इसलिये हमें सब धर्मों को स्वीकार करना चाहिये, उनके प्रति केवल सहिष्णुता की भावना नहीं होनी चाहिये।शिक्षा-दर्शन
(PHILOSOPHY OF EDUCATION)स्वामी विवेकानन्द का जीवन-दर्शन उनके समन्वयवादी दृष्टिकोण का द्योतक है। अतः उनके शिक्षा दर्शन में भी हमें इसी दृष्टिकोण की झलक मिलती है। वे वर्तमान शिक्षा प्रणाली के कटुतम आलोचक और व्यावहारिक शिक्षा के प्रबल समर्थक हैं। उनका यह कहना है कि वर्तमान में शिक्षा मनुष्य को जीवन संग्राम के लिये कटिबद्ध नहीं करती है, वरन् उसे शक्तिहीन बनाती है। स्वामीजी भारत के लिये कैसी शिक्षा हो इस सम्बन्ध में कहते हैं-"हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है. जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सके। विवेकानन्द सैद्धान्तिक शिक्षा की अपेक्षा व्यावहारिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने भारतीयों को समय-समय पर सचेत करते हुए कहा- "तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सम्पूर्ण देश का सिद्धान्तों के ढेरों ने विनाश कर दिया है।" ("You will have to be practical in all spheres of work. The whole country has been ruined by mass theories").
स्वामीजी द्वारा दिये गये भाषणों व लिखे गये पत्र ही उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों को जानने हेतु हमारे लिये आधार स्वरूप हैं। क्योंकि इन्होंने शिक्षा सम्बन्धी न तो प्रयोग किये हैं और न ही कोई ऐसी पुस्तक की रचना की है जिसमें उन्होंने अपनी शिक्षा प्रणाली की बातें कही हों। अतः स्वामीजी के शिक्षा से सम्बन्धित निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
(1) शिक्षा से तात्पर्य (Meaning of Education)
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा, मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।" इनके अनुसार सूचना ही शिक्षा का अर्थ न होकर वरन् बालक का मनुष्य के रूप में निर्माण करना है । अगर सूचना ही शिक्षा का अर्थ होता तो पुस्तकालय विश्व के महान् संत के रूप में तथा विश्वकोष विश्व के महान ऋषि के रूप में स्वीकार किये जा सकते हैं क्योंकि जिनमें जानकारी सम्बन्धी समस्त बातें भरी पड़ी हैं। अतः जिस व्यक्ति ने पाँच सद्विचारों को आत्मसात् करते हुए अगर अपने व्यक्तित्त्व का निर्माण करता है तो मैं उस व्यक्ति को उस व्यक्ति से ज्यादा शिक्षित समझता हूँ जिसको कि पूरा पुस्तकालय कंठस्थ है। यह पूर्णता कहीं बाहर से नहीं आती, वरन् मनुष्य के भीतर ही छिपी रहती है। क्योंकि स्वामीजी का वेदान्त के आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त में विश्वास होने के कारण वह सब प्रकार का ज्ञान, चाहे वह धर्म निरपेक्ष हो या धर्म प्रधान, व्यक्ति की आत्मा में निहित है। जिस प्रकार चकमक के पत्थर में अग्नि पहले से ही विद्यमान रहती है लेकिन लोहे रूपी वस्तु के रगड़ने से उस अग्नि को बाहर प्रदर्शित किया जाता है। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त अपने प्रतिपादन के लिये न्यूटन की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। वरन् वह तो उसके मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान था। न्यूटन ने तो समय आने पर केवल उसका अन्वेषण किया था। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक शब्दावली में कहा जा सकता है कि सीखना, वास्तव में खोज निकालना है। ज्ञान व शक्ति मानव आत्मा है, लेकिन उस पर अज्ञान का आवरण पड़ा रहता है। यह आवरण जब धीरे-धीरे हटता जाता है तब हम कहते हैं कि हम सीख रहे हैं। जिस मनुष्य के ज्ञान पर पड़ा हुआ यह अज्ञान आवरण जितना ही अधिक हट जाता है वह उतना ही अधिक ज्ञानी कहलाता है।जिस प्रकार चकमक के पत्थर में अग्नि विद्यमान रहती है और रगड़ने से वह प्रकट हो जाती है उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान निहित होता है और संकेत रूपी रगड़ पाकर वह अभिव्यक्त होता है। पेड़ से सेब को गिरते हुए देखकर न्यूटन को यह संकेत मिला कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होती है। अतः पेड़ से सेब का गिरना एक संकेत था, जिसने न्यूटन के मस्तिष्क में पहले से स्थित विचारों को पुनर्जाग्रत किया और अन्त में उसने एक नवीन सिद्धान्त की खोज की, जिसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त कहा जाता है।
स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी विचार (Aims of Education)
(1) आत्मानुभूति का उद्देश्य
भारतीय परम्परा के अनुसार विवेकानन्द भी आत्मानुभूति को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानते हैं। इसे हम दूसरे शब्दों में 'मोक्ष-प्राप्ति' या मुक्ति भी कह सकते हैं। स्वामीजी ने कर्मयोग में कहा कि "हमारे चारों ओर जितनी भी चीजें दिखाई दे रही हैं वे समस्त मुक्ति के लिये संघर्ष कर रही हैं इसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर संन्यासी ईश्वर की प्रार्थना करता है, लुटेरा लूटमार करता है। जब कार्य करने की पद्धति उचित नहीं होती, तब हम उसे पाप और जब उचित तथा श्रेष्ठ होती है, तब हम उसे पुण्य कहते हैं। जैसे संन्यासी बन्धनों के कारणों को जानकर बन्धनों से मुक्त होना चाहता है, अतः वह ईश्वर की आराधना करता है। चोर इस विचार से बाध्य होकर चोरी करता है कि उसके पास कुछ चीजें नहीं होती हैं, वह उनके अभाव से मुक्ति पाना चाहता है, इसीलिये वह चोरी करता है। संत द्वारा प्राप्त की गयी मुक्ति जीवन में सुख व आनन्द की अनुभूति कराती है किन्तु चोर की मुक्ति उसके आत्मा के बन्धनों को और दृढ़ करती है। अतः शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सही प्रकार की मुक्ति का चुनाव करने के योग्य बनाना है।
(2) मनुष्य का मनुष्य के रूप में निर्माण करना-
जीवन का महान् लक्ष्य मुक्ति की प्राप्ति के लिये प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्त्व का विकास करना होगा। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि व्यक्तित्त्व से क्या अभिप्राय है ? वेदान्त दर्शन के अनुसार मनुष्य परम-शक्ति का ही अंश है, उसकी प्रकृति आध्यात्मिक है। अतः शिक्षा का दायित्व है "मनुष्य का निर्माण" अर्थात् मनुष्य के स्वाभाविक गुणों का विकास। मनुष्य बनने के लिये स्वामीजी का यह मानना है कि उसकी अन्तर्निहित शक्तियों का सर्वोत्तम विकास होना चाहिये। वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कमियों का उल्लेख करते हुए स्वामीजी ने उसे नकारात्मक कहा है। आज की शिक्षा मनुष्य का सक्रिय विकास नहीं करती। आज की शिक्षा में आत्मविश्वास व व्यक्ति में मौलिक विचारों के विकास की ओर ध्यान नहीं देती। इसलिये उनका मानना है कि सभी प्रकार की शिक्षा व प्रशिक्षण का परम लक्ष्य 'मनुष्य का निर्माण' होना चाहिये। शिक्षा का दायित्व बालक में इच्छाशक्ति व उसकी अभिव्यक्ति को नियन्त्रित करके फलप्रद बनाये। स्वामीजी का यह मानना है कि "आज हमारे देश के लोगों को फौलादी माँसपेशियों, लौह धमनियो तथा दुर्जेय इच्छा शक्ति की आवश्यकता है, जो विश्व के रहस्यों का भेदन कर सकें तथा लक्ष्य की पूर्ति कर सकें, भले ही इसके लिये सागर की अतल गहराई में प्रवेश करके मृत्यु का सामना ही क्यों न करना पड़े।"
(3) शारीरिक एवं मानसिक विकास का उद्देश्य-
विवेकानन्द ने शिक्षा के उद्देश्य के रूप में शारीरिक विकास के उद्देश्य के ऊपर भी बल दिया। उन्होंने इस उद्देश्य पर इसलिये बल दिया कि स्वस्थ मस्तिष्क के विकास के लिये यह आवश्यक विवेकानन्द का यह मानना है कि इससे आज के बालक भविष्य में निर्भीक एवं बलवान योद्धा के रूप में गीता का अध्ययन करके देश की उन्नति कर सकें। जब बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ होगा तब बालक का मानसिक विकास सही ढंग से किया जा सकता है। शिक्षा के मानसिक उद्देश्य पर बल देते हुए उन्होंने बताया कि हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिसे प्राप्त करके मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो जाये ।
(4) वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य-
मुक्ति के लिये संघर्ष करना, मनुष्य की वास्तविक प्रकृति व व्यक्ति तथा समाज के बीच के उचित सम्बन्ध की ओर संकेत करता है। क्या व्यक्ति व समाज में परस्पर विरोध है ? इस प्रश्न के उत्तर में मतभेद हैं। भारतीय अद्वैत दर्शन के अनुसार व्यक्ति और समाज में सामंजस्य स्थापना की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि यदि व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान ले तो उसके और समाज के बीच का विरोध स्वतः ही समाप्त हो जायेगा । व्यक्ति व समाज के बीच विरोध का कारण यह है कि व्यक्तित्त्व का सम्बन्ध स्थूल शरीर से जोड़ते हैं। भारतीय आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार विवेकानन्द का कहना है कि यदि व्यक्तित्त्व शरीर में है, तो वह नष्ट हो जायेगा। स्वामीजी का यह मानना है कि हम अभी तक व्यक्ति (Individuals) नहीं है, हम वैयक्तिकता के लिये संघर्ष कर रहे हैं और यह वैयक्तिकता है असीम आत्मा और यही मनुष्य की वास्तविक प्रकृति है, आत्मा ही इकाई है क्योंकि वही अनन्त है, उसके विभाग नहीं हो सकते। इसकी प्राप्ति का साधन है - त्याग । त्याग से अभिप्राय है-पृथक सत्ता का तिरोभाव और वास्तविक वैयक्तिकता का अनुभव। जब मनुष्य पूर्णतया स्वार्थ त्यागी हो जाता है, तब वह असीम हो जाता है जो कि वास्तविक मनुष्य का स्वरूप है। इस दृष्टिकोण से देखने पर व्यक्ति व समाज के बीच कोई विरोध नहीं है। अतः मनुष्य की वास्तविक वैयक्तिकता या व्यक्तित्त्व के विकास द्वारा शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों उद्देश्यों की पूर्ति की जा सकती है
(5) चरित्र निर्माण का उद्देश्य
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य के रूप में चरित्र निर्माण को माना है। उनका यह मानना है कि जो व्यक्ति जीवन में पाँच सद्विचारों को आत्मसात् करते हुए अपने चरित्र का निर्माण करता है तो मैं उस व्यक्ति को उस व्यक्ति से ज्यादा शिक्षित समझता हूँ जिसे कि पूरा पुस्तकालय कंठस्थ है। अतः बिना चरित्र के शिक्षा बेकार है तथा बिना पवित्रता के चरित्र निरर्थक है। इसके लिये उन्होंने ब्रह्मचर्य जीवन पर बल दिया और बताया कि ब्रह्मचर्य के द्वारा मनुष्य में बौद्धिक व आध्यात्मिक शक्तियाँ विकसित होंगी तथा वह मन, वचन और कर्म से पवित्र बन जायेगा ।
(6) आत्मविश्वास, श्रद्धा एवं आत्म त्याग की भावना का उद्देश्य-
स्वामीजी ने हमेशा इस बात पर बल दिया कि अपने ऊपर विश्वास रखना श्रद्धा एवं त्याग की भावना को विकसित करना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। उन्होंने लिखा- "उठो ! जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तक कि परम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाये।"
इस एकाग्रता की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन जरूरी है। बारह वर्षों तक अखंड ब्रह्मचर्य धारण करके ही चित्त को एकाग्र करने की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ब्रह्मचर्य से अभिप्राय प्रत्येक दशा में सदैव मन, वचन व कर्म से पवित्र होना । इसके बिना मनुष्य को स्वयं अपने में श्रद्धा या विश्वास उत्पन्न नहीं होता। अतः बालक को जन्म से ही श्रद्धा या आत्मविश्वास की शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि यह जीवन का रक्षक एवं उच्च सिद्धान्त है ।
इसके अलावा इन्होंने अंग्रेजी भाषा व विज्ञान के अध्ययन का भी समर्थन किया। उनका यह मानना था कि हमें तकनीकी शिक्षा (Technical Education) व उन सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे उद्योगों की उन्नति हो। इसका कारण यह था कि आज के युग में विज्ञान की उन्नति के बिना एक देश की उन्नति सम्भव नहीं है।
भारतीय आदर्शवादी परम्परा के अनुसार यदि शिक्षण-प्रक्रिया को सफलतम् बनाना है तो शिक्षार्थी एवं शिक्षक में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता है। शिक्षार्थी के लिए प्रथम आवश्यक यह है कि वह पवित्र होना चाहिए, ज्ञान प्राप्त करने हेतु जिज्ञासा हो। बालक मन, वचन, कर्म से पूर्णतया शुद्ध हो । बालक सफलता प्राप्त करने के लिए यह भी आवश्यक है कि विद्यार्थी गुरु में श्रद्धा रखे। इसके बिना या गुरु के सम्मुख शीश झुकाए बिना तथा शिक्षक का सम्मान किए बिना शिष्य कभी अपने जीवन में उन्नति नहीं कर सकता ।
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षक के गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि अध्यापक को पूरा ज्ञानी होना चाहिए। उसे धर्मग्रन्थों का सारतत्त्व की जानकारी होनी चाहिए। अतः एक सच्चे अध्यापक को ग्रंथों की मूल आत्मा का ज्ञान होना चाहिए।
शिक्षक का दूसरा गुण-निष्पाप होगा। स्वयं सत्य का ज्ञान प्राप्त कर और दूसरों को उसकी शिक्षा देने के लिए आवश्यक है कि वह हृदय से पवित्र हो तभी उसके शब्दों का कुछ मूल्य होता है।
शिक्षक के तीसरे गुण का सम्बन्ध उसकी आन्तरिक प्रेरणा 'भावना' से है। उसे किसी स्वार्थवश, धन के लिए या प्रसिद्धि के लिए अपने विद्यार्थी को शिक्षित नहीं करना चाहिए। वरन् उसे तो मानव-प्रेम की भावना से प्रेरित होना चाहिए।
शिक्षक के चतुर्थ गुण के सम्बन्ध में अध्यापक को अपने विद्यार्थी के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए तथा बालक की प्रवृत्तियों की जानकारी होनी चाहिए ।
विद्यार्थी की अच्छी वृत्तियों को सदैव प्रोत्साहित करना चाहिए। एक सच्चा शिक्षक वही है जो कुछ समय में अपने को हजारों व्यक्तियों में परिणित कर सके।
वेद व उपनिषद काल में भी मैत्रेयी व गार्गी जैसी नारियाँ थीं जिन्हें ऋषियों का स्थान प्राप्त था । स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि हमारे देश के पतन के जो अनेक कारण हैं उनमें प्रमुख - शक्ति रूपिणी नारियों का आदर न करना। इसी बात को मनु ने भी कहा कि-जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ पर देवताओं का निवास होता है। जहाँ उनका आदर नहीं होता वहाँ सारे प्रयत्न विफल हो जाते हैं।"
स्वामीजी ने स्त्री शिक्षा के केन्द्र में धार्मिक शिक्षा, चरित्र-निर्माण, ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। इस हेतु उनके हृदय में आदर्श की भावना विकसित की जाए, ताकि वे अपने चरित्र को निर्मित कर सके। इसलिए स्वामीजी ने सीता व सावित्री को भारतीय नारी के आदर्शों का उच्चतम प्रतीक माना है। शिक्षा की दृष्टि से बालक व बालिकाओं को समान शिक्षा देनी चाहिए। ऐसी शिक्षा दी जाए कि वह दूसरों पर आधारित न रहे तथा जीवन के कठिन समय में दुःखी न रह सके। उन्हें ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाए जिससे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होगा। अगर एक भी स्त्री को ब्रह्म ज्ञान हो गया तो उसके व्यक्तित्त्व की चमक से हजारों स्त्रियाँ अनुप्रेरित होंगी।
स्त्रियों के लिए पुराण, इतिहास, गृहविज्ञान, कला व पारिवारिक शिक्षा दी जाए तथा इसके साथ ही साथ उन्हें सिलाई, पाक कला, शिशु-पालन की शिक्षा भी दी : जाए। जप, पूजा, तप व उपासना इत्यादि उनकी शिक्षा का अनिवार्य अंग होना चाहिए। उनमें वीरता का भाव भी विकसित करना चाहिए। वर्तमान में उनमें आत्मरक्षा की कला सीखना भी आवश्यक है। इसके लिए स्वामीजी झाँसी की रानी, संघमित्रा, लीला, अहिल्याबाई, मीराबाई आदि का उदाहरण उनके सम्मुख प्रस्तुत करें। यदि नारियाँ पवित्र, विदुषी एवं वीरांगना होंगी तो ऐसी माताओं की गोद में महान पुरुषों का जन्म होगा।
स्वामीजी ने मनुष्य के मन की उपमा सागर से की है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार सागर में उठने वाली कम्पन या लहर शान्त होकर भी नष्ट नहीं होती, वरन अन्य लहरों को जन्म देती है, उसी प्रकार हमारे मन में उठने वाली तरंगें शान्त होकर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होतीं, वरन् मन पर अपनी एक छाप छोड़ जाती हैं 1 भविष्य में पुनः उस छाप के उभरने की सम्भावना बनी रहती है। हम वही हैं जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। उदाहरणार्थ यदि कोई मनुष्य हमेशा बुरे शब्दों को सुनता है, बुरे विचार सोचता है व बुरे कार्य करता है तो उसका मन बुरे प्रभावों से ग्रस्त जाता है और जो मनुष्य सद्विचारों में लीन रहता है तो उसके मन पर प्रभाव भी अच्छा पड़ता है। महान व्यक्ति वही होता है जिसका आचरण सदैव हर स्थिति में ऊँचा रहे ।
इसके अलावा अच्छे या बुरे प्रभाव जब मन पर पड़ते हैं तो वे संगठित हो जाते हैं तथा उसी के अनुरूप हमारी आदत बन जाती है। आदत को प्रति स्वभाव (Second nature) माना भी गया है। इन्हीं आदत व पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर मनुष्य का चरित्र निर्मित होता है। अतः बुरी आदतों को रोकने के लिये उसका उपाय अच्छी आदतें डालना। अतः इसके लिये किसी की भी निन्दा नहीं करनी चाहिये। चरित्र गठन की इस प्रक्रिया पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि हमारी समस्त बुराइयों का कारण हम स्वयं ही हैं। इसके लिये किसी देवी-देवता को दोषी ठहराना उचित नहीं है। क्योंकि स्वामीजी का यह मानना है कि मनुष्य की स्थिति रेशम के कीड़ों की भाँति है। जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने भीतर के तत्त्वों से ही रेशम के धागे को अपने चारों ओर बुन लेता है और अन्त में उसी में बन्द हो जाता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य अपने स्वयं के कर्म- सूत्रों में अपने को बाँध लेता है और अज्ञानता के कारण अपने को बन्दी समझता है। इस बन्धन से मुक्त होने के लिये सहायता भीतर से ही प्राप्त हो सकती है। हम जो भूलें या गल्तियाँ करते हैं उसका एकमात्र कारण हमारी दुर्बलता है और इसका प्रादुर्भाव अज्ञानता से होता है।
धार्मिक शिक्षा की शिक्षण विधि- धार्मिक शिक्षण की विधि है-विद्यालयों में संतों की पूजा एवं आराधना। उनके सम्मुख राम, कृष्ण, बुद्ध व महावीर स्वामी व रामकृष्ण परमहंस जैसे महात्माओं का आदर्श प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिससे विद्यार्थी उनका अनुसरण कर सकें। स्वामीजी का पूर्ण विश्वास है कि वेद मन्त्रों की विद्युत ध्वनि द्वारा देश में पुनः जीवन-शक्ति का संचार किया जा सकता है। स्वामीजी ने 'धार्मिक' होने की व्याख्या नवीन तरीके से की है। प्राचीन धर्मों में तो ईश्वर में विश्वास न करने वाला व्यक्ति नास्तिक माना जाता है। अद्वैत की व्याख्या करते हुए स्वामीजी का यह मानना है कि नास्तिक वह व्यक्ति है जो 'स्वयं' में विश्वास नहीं रखता है। लेकिन ध्यान रहे कि यहाँ 'स्वयं' से उनका अभिप्राय किसी एक व्यक्ति की आत्मा से नहीं है, वरन् उस एक 'आत्मा' से है हम सभी में व्याप्त है। यही आन-विश्वास संसार को उच्च स्तर पर पहुँचा सकता है। इसी भावना से प्रेरित होकर संसार के अनेक व्यक्ति महान् आत्मा बन सकें। स्वामीजी का मानना है कि यही वास्तविक धर्म है और ऐसा धर्म ही शक्ति हैं। क्योंकि धर्म के अभाव में ही मनुष्य शक्तिहीन हो जाता है। स्वामीजी के शब्दों में- "शक्तिहीनता ही पाप व बुराइयों की जननी है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को 'सोऽहम्' का जप करते रहना चाहिए जिसस उसे अपनी वास्तविक प्रकृति का स्मरण रहे। बालक इस विचार का श्रवण करे फिर मनन करे तत्पश्चात् यह विचार स्वयं ही उसे अच्छे कार्य के लिये प्रेरित करेगा।
स्वामीजी का यह मानना है कि व्यक्ति को धार्मिक बनने के लिये सबसे पहली आवश्यकता यह है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। क्योंकि शारीरिक कमजोरी हमारी 1/3 विपत्तियों की जननी है। विवेकानन्द ने नवयुवकों को सन्देश देते हुए कहा कि- सबसे पहले हमारे युवक को स्वस्थ व शक्तिशाली बनना है, धर्म तो बाद की चीज हैं....... तुम गीता पढ़ने की अपेक्षा फुटबाल खेलने के द्वारा स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच सकते हो. यदि शरीर में स्वस्थ रक्त है तो अपने पैरों पर खड़े हो सकते हो, उपनिषदों व आत्मा की महत्ता को अधिक भलीभाँति समझ सकोगे। क्योंकि शक्ति ही शिव है और दुर्बलता पाप है। असीम शक्ति ही धर्म है।
यह अपार शक्ति हमें उपनिषदों के दर्शन का अनुसरण करने से मिल सकती है। उपनिषद शक्ति की खान है तथा उनमें इतनी शक्ति है कि वे सारे संसार में शक्ति का संचार कर सकते हैं। शारीरिक स्वतन्त्रता, मानसिक स्वतन्त्रता व आध्यात्मिक स्वतन्त्रता यही उपनिषदों के सांकेतिक शब्द हैं
स्वामीजी के समय में शिक्षा जन-साधारण को सुलभ न थी। इसका क्षेत्र समाज में सबके लिये नहीं था। परिणामस्वरूप दीन दुखियों व निम्न वर्ग के लोगों को पेट भरकर भोजन भी नहीं मिल पाता था। इसलिये स्वामीजी ने उस समय की भारतीय समुदाय की आर्थिक दृष्टि से हीन दशा को सुधारने हेतु जनसाधारण को शिक्षित करने पर बल दिया और कहा- "मैं जन साधारण की अवहेलना करना महान् राष्ट्रीय पाप समझता हूँ। यह हमारे पतन का प्रमुख कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर उपयुक्त (शिक्षा), अच्छा भोजन व अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जायेगी तब तक प्रत्येक राजनीति बेकार सिद्ध होगी।
सामान्य जनता के उत्थान के लिये स्वामीजी यह जरूरी समझते हैं कि लोगों को अपनी दशा सुधारने का ज्ञान होना चाहिये। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि संसार में उनके चारों ओर क्या हो रहा है, तभी तो उन्नति करने हेतु भावनाएँ एवं विचार जाग्रत हो सकेंगे। इस उद्देश्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन है-जनता को शिक्षित करना। उन्हें गाँव-गाँव, घर-घर जाकर शिक्षा देनी होगी। क्योंकि वे शिक्षा प्राप्त करने विद्यालय नहीं आ पाते। इस सन्दर्भ में उनका सुझाव है कि यदि सन्यासियों में से कुछ को धर्म की शिक्षा प्रदान करने के लिये भी संगठित कर लिया जाये तो बड़ी सरलतापूर्वक घर-घर घूमकर वे अध्यापन तथा धार्मिक शिक्षा दोनों काम कर सकते हैं। कल्पना कीजिये कि दो संन्यासी कैमरा, ग्लोब और कुछ मानचित्रों के साथ संध्या समय किसी गाँव में पहुँचे। इन साधनों के द्वारा वे अशिक्षित जनता को भूगोल, ज्योतिष आदि की शिक्षा देते हैं। इसी प्रकार कथा-कहानियों के द्वारा दूसरे देश के सम्बन्ध में अपरिचित जनता को ये इतनी बातें बताते हैं, जितनी वे पुस्तकों द्वास अपने जीवन भर में भी नहीं सीख सकते हैं। इस प्रकार संन्यासियों के समय का सदुपयोग होगा व जनता में शीघ्रातिशीघ्र नवीन चेतना का संचार होगा। इसके साथ ही साथ स्वामीजी का मानना है कि जनता को वाणिज्य व्यवसाय आदि के क्षेत्र में होने वाले नये अन्वेषणों का ज्ञान भी कराया जाना चाहिये। इनकी शिक्षा के माध्यम के बारे में स्वामीजी का विचार है कि उनकी मातृभाषा द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिये। उनका कहना है कि "उन्हें विचार दो, सूचनाओं का संग्रह वे स्वयं कर लेंगे।
इनके शैक्षिक विचारों का निम्नांकित योगदान है-
1. वेदान्त का अध्ययन तथा परमहंस द्वारा निरूपित वेदान्त के सिद्धान्तों के अध्ययन की उन्नति व प्रसार करना ।
2. जनता में शैक्षिक कार्य करना ।
3. कला, विज्ञान व औद्योगिक विषयों से सम्बन्धित शिक्षा का प्रसार करना।
(3) शिक्षण विधि (Methods of Teaching)
स्वामीजी ने बालक की शिक्षा को पूर्णता आध्यात्मिक सिद्धान्त पर आधारित बनाने का प्रयास किया । अतः इन्होंने चित्त की एकाग्रता को महत्त्वपूर्ण शिक्षण विधि माना जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिये यह एक सर्वोत्तम साधन है। इसके अभाव में मनुष्य भयंकर भूलें करता है और जिसका मन एकाग्र होता है वह कभी भूल नहीं करता। इसकी भिन्नता के कारण ही मनुष्यों में आपस में अन्तर होता है। एक महान व साधारण व्यक्ति में यही अन्तर होता है कि महान् व्यक्ति का चित्त एकाग्र और साधारण व्यक्ति का मन कम एकाग्र होता है। यही वह तथ्य है जिसके कारण मनुष्य व पशु में भेद माना जाता है। अतः स्वामीजी ने कहा था कि "ज्ञान का भण्डार केवल चित्त की एकाग्रता की चाबी के द्वारा ही खोला जा सकता है।" अब यहाँ पर एक स्वाभाविक रूप से प्रश्न यह उठता है कि एकाग्रता प्राप्त कैसे की जाए ? क्योंकि जब हम किसी वस्तु पर अपने मन को एकाग्र करते हैं तो उस बीच हमारे मन में अनेक प्रकार के विचार उठकर एकाग्रता में बाधा डालते हैं अतः चित्त को एकाग्र करने की शिक्षा हमें राजयोग से प्राप्त होती है। राजयोग की शिक्षा से अभिप्राय यह कि मन पर नियन्त्रण रखते हुए दिव्यता की अनुभूति । अभ्यास व उपासना के माध्यम से मानसिक एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है। इसलिए विवेकानन्द का विश्वास है कि तथ्यों का संकलन शिक्षा का सार नहीं है परन्तु मन की एकाग्रता ही शिक्षा का मुख्य तत्त्व है। इसलिए उन्होंने कहा- "यदि मुझे फिर अध्ययन करना पड़े तो मैं तथ्यों का बिल्कुल ही अध्ययन न करूँ वरन् मैं चित्त को एकाग्र करने की शक्ति विकसित करूँ।इस एकाग्रता की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन जरूरी है। बारह वर्षों तक अखंड ब्रह्मचर्य धारण करके ही चित्त को एकाग्र करने की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ब्रह्मचर्य से अभिप्राय प्रत्येक दशा में सदैव मन, वचन व कर्म से पवित्र होना । इसके बिना मनुष्य को स्वयं अपने में श्रद्धा या विश्वास उत्पन्न नहीं होता। अतः बालक को जन्म से ही श्रद्धा या आत्मविश्वास की शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि यह जीवन का रक्षक एवं उच्च सिद्धान्त है ।
(4) पाठ्यक्रम (Curriculum)
स्वामी विवेकानन्द का दृष्टिकोण समन्वयवादी था। अतः दार्शनिक होने का अभिप्राय यही नहीं था कि जीवन के चरम लक्ष्य के अलावा अन्य विषयों पर विचार ही न किया जाए। अतः इन्होंने पाठ्यक्रम में आन्तरिक व बाहरी दोनों प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति करना चाहते थे। स्वामीजी का यह मानना था कि जीवन में उद्देश्यों की पूर्ति इसी संसार व इसी शरीर के माध्यम से हो सकती है। अतः स्वामी विवेकानन्द ने पाठ्यविषय के अन्तर्गत उन सभी विषयों के ज्ञान को अनिवार्य बताया है जो इस संसार से सम्बन्धित है। अतः इन्होंने आध्यात्मिक पूर्णता हेतु धर्म दर्शन पुराण, उपनिषद् व लौकिक समृद्धि के लिए भाषा, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान, कला, व्यावसायिक विषय, कृषि खेलकूद व व्यायाम आदि विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया ।इसके अलावा इन्होंने अंग्रेजी भाषा व विज्ञान के अध्ययन का भी समर्थन किया। उनका यह मानना था कि हमें तकनीकी शिक्षा (Technical Education) व उन सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे उद्योगों की उन्नति हो। इसका कारण यह था कि आज के युग में विज्ञान की उन्नति के बिना एक देश की उन्नति सम्भव नहीं है।
(5) विद्यार्थी व शिक्षक के आवश्यक गुण (Essential Qualities of Teacher & Child )
स्वामीजी ने फ्रोबेल की भाँति बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना तथा यह बताया कि बालक लौकिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार के ज्ञान का भण्डार होता है। विवेकानन्द बालक की उपमा एक पौधे से देते हैं। जिस प्रकार बरगद के बीज में विकास करके एक बड़ा वृक्ष बनाने की शक्ति विद्यमान रहती है, उसी प्रकार बालक के जीवन तत्त्व में बुद्धि निवास करती है। पौधे के प्राकृतिक विकास की भाँति ही शिक्षार्थी का भी अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप विकास होता है। जिस प्रकार हम पौधे को सिर्फ पोषक तत्त्व देते हैं, उसकी रक्षा करते हैं और वह उनको ग्रहण करके स्वयं प्रकृति के अनुसार ही बढ़ता है, ठीक उसी प्रकार बालक को शिक्षा देते समय हमें उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करना चाहिए ।भारतीय आदर्शवादी परम्परा के अनुसार यदि शिक्षण-प्रक्रिया को सफलतम् बनाना है तो शिक्षार्थी एवं शिक्षक में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता है। शिक्षार्थी के लिए प्रथम आवश्यक यह है कि वह पवित्र होना चाहिए, ज्ञान प्राप्त करने हेतु जिज्ञासा हो। बालक मन, वचन, कर्म से पूर्णतया शुद्ध हो । बालक सफलता प्राप्त करने के लिए यह भी आवश्यक है कि विद्यार्थी गुरु में श्रद्धा रखे। इसके बिना या गुरु के सम्मुख शीश झुकाए बिना तथा शिक्षक का सम्मान किए बिना शिष्य कभी अपने जीवन में उन्नति नहीं कर सकता ।
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षक के गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि अध्यापक को पूरा ज्ञानी होना चाहिए। उसे धर्मग्रन्थों का सारतत्त्व की जानकारी होनी चाहिए। अतः एक सच्चे अध्यापक को ग्रंथों की मूल आत्मा का ज्ञान होना चाहिए।
शिक्षक का दूसरा गुण-निष्पाप होगा। स्वयं सत्य का ज्ञान प्राप्त कर और दूसरों को उसकी शिक्षा देने के लिए आवश्यक है कि वह हृदय से पवित्र हो तभी उसके शब्दों का कुछ मूल्य होता है।
शिक्षक के तीसरे गुण का सम्बन्ध उसकी आन्तरिक प्रेरणा 'भावना' से है। उसे किसी स्वार्थवश, धन के लिए या प्रसिद्धि के लिए अपने विद्यार्थी को शिक्षित नहीं करना चाहिए। वरन् उसे तो मानव-प्रेम की भावना से प्रेरित होना चाहिए।
शिक्षक के चतुर्थ गुण के सम्बन्ध में अध्यापक को अपने विद्यार्थी के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए तथा बालक की प्रवृत्तियों की जानकारी होनी चाहिए ।
विद्यार्थी की अच्छी वृत्तियों को सदैव प्रोत्साहित करना चाहिए। एक सच्चा शिक्षक वही है जो कुछ समय में अपने को हजारों व्यक्तियों में परिणित कर सके।
(6) स्त्री शिक्षा (Women Education)
स्वामीजी के स्त्री शिक्षा सम्बन्धी विचार के अन्तर्गत उन्होंने स्त्री शिक्षा को देश के उत्थान के लिए आवश्यक माना। विवेकानन्द कहते हैं कि- "उस परिवार या देश की उन्नति की आशा नहीं की जा सकती जहाँ स्त्रियों की शिक्षा नहीं, जहाँ वे दुखमय जीवन व्यतीत करती हैं। इसी कारण उनका उद्धार परमावश्यक है। उस समय स्त्री व पुरुष का स्थान बराबर नहीं था। उनको पुरुषों की अपेक्षा समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। स्वामीजी ने वेदान्त द्वारा प्रतिपादित आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा हैं कि यह समझना कठिन है कि हमारे देश में स्त्रियों व पुरुषों में इतना भेद क्यों किया जाता है जबकि वेदान्त में यह घोषणा है कि प्रत्येक प्राणी में एक ही आत्मा निवास करती है।वेद व उपनिषद काल में भी मैत्रेयी व गार्गी जैसी नारियाँ थीं जिन्हें ऋषियों का स्थान प्राप्त था । स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि हमारे देश के पतन के जो अनेक कारण हैं उनमें प्रमुख - शक्ति रूपिणी नारियों का आदर न करना। इसी बात को मनु ने भी कहा कि-जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ पर देवताओं का निवास होता है। जहाँ उनका आदर नहीं होता वहाँ सारे प्रयत्न विफल हो जाते हैं।"
स्वामीजी ने स्त्री शिक्षा के केन्द्र में धार्मिक शिक्षा, चरित्र-निर्माण, ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। इस हेतु उनके हृदय में आदर्श की भावना विकसित की जाए, ताकि वे अपने चरित्र को निर्मित कर सके। इसलिए स्वामीजी ने सीता व सावित्री को भारतीय नारी के आदर्शों का उच्चतम प्रतीक माना है। शिक्षा की दृष्टि से बालक व बालिकाओं को समान शिक्षा देनी चाहिए। ऐसी शिक्षा दी जाए कि वह दूसरों पर आधारित न रहे तथा जीवन के कठिन समय में दुःखी न रह सके। उन्हें ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाए जिससे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होगा। अगर एक भी स्त्री को ब्रह्म ज्ञान हो गया तो उसके व्यक्तित्त्व की चमक से हजारों स्त्रियाँ अनुप्रेरित होंगी।
स्त्रियों के लिए पुराण, इतिहास, गृहविज्ञान, कला व पारिवारिक शिक्षा दी जाए तथा इसके साथ ही साथ उन्हें सिलाई, पाक कला, शिशु-पालन की शिक्षा भी दी : जाए। जप, पूजा, तप व उपासना इत्यादि उनकी शिक्षा का अनिवार्य अंग होना चाहिए। उनमें वीरता का भाव भी विकसित करना चाहिए। वर्तमान में उनमें आत्मरक्षा की कला सीखना भी आवश्यक है। इसके लिए स्वामीजी झाँसी की रानी, संघमित्रा, लीला, अहिल्याबाई, मीराबाई आदि का उदाहरण उनके सम्मुख प्रस्तुत करें। यदि नारियाँ पवित्र, विदुषी एवं वीरांगना होंगी तो ऐसी माताओं की गोद में महान पुरुषों का जन्म होगा।
(7) अनुशासन सम्बन्धी विचार (Discipline )
विवेकानन्द के अनुशासन सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं। वह प्रचलित अनुशासन के पक्ष में नहीं थे। अतः उन्होंने अनुशासन हेतु बालक की स्वतन्त्रता पर विशेष बल दिया क्योंकि उनका मानना है कि स्वतन्त्रता विकास की प्रथम शर्त है। इसलिए अनुशासन के सम्बन्ध में स्वामीजी का यह मत है कि मार-मार करके गधे को घोड़ा नहीं बनाया जा सकता वरन् वह उल्टा मर जाएगा। अतः छात्रों को स्वतन्त्र अवसर दिए जाने चाहिये। शिक्षक को चाहिए कि वह बालक की विशेष रुचियों या झुकावों को प्रोत्साहित करे। यदि कोई बालक बहुत ही अयोग्य है, तो भी उसे हताश नहीं करना चाहिए। बालकों के मस्तिष्क पर सक्रिय या रचनात्मक विचारों (Positive ideas) का प्रभाव डालना चाहिए। नकारात्मक विचार (Negative ideas) जैसे बालकों से यह कहना कि तुम मूर्ख हो या तुम कुछ भी सीख नहीं सकते, तुम गधे हो, उन्हे शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से दुर्बल बना देते हैं। कभी-कभी तो इन नकारात्मक बातों का इतना गम्भीर प्रभाव बालक पर पड़ता है कि वह वैसा ही बनने लगता है। बालकों को उत्साह दो, हमें उनकी भूलें नहीं दोहरानी हैं, वरन् उनका मार्ग-दर्शन करना है और वह भी उनकी आवश्यकताओं और प्रवृत्तियों के अनुरूप होना चाहिये। यदि उन्हें रचनात्मक विचार दिये जाएँ तो वे पूर्ण मनुष्य बनेंगे और स्वावलम्बी होंगे। विवेकानन्द ने तो यहाँ तक कह दिया कि "निषेधात्मक शिक्षा या कोई भी प्रशिक्षण जो नकारात्मक पर आधारित हो, मृत्यु से भी बदतर है।"(8) चरित्र सम्बन्धी शिक्षा (Character Related Education)
विवेकानन्द ने शिक्षा में चरित्र-निर्माण के उद्देश्य को विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। मनुष्य के इस चरित्र निर्माण में उसके विचारों का प्रमुख स्थान हो, क्योंकि मनुष्य का विचार जैसा होता है उसी के अनुरूप उसका चरित्र भी बनता है। हम और कुछ नहीं हैं, वरन् अपने विचारों द्वारा निर्मित या उनके प्रतिबिम्ब हैं। स्वामीजी का यह मानना है कि हमारे चरित्र के निर्माण में भलाई व बुराई दोनों का बराबर योगदान है। कुछ स्थितियों में तो विपत्तियाँ सुख की अपेक्षा अधिक महानतम् कार्य करती हैं। संसार के महापुरुषों के चरित्र पर विचार करने से इस बात की जानकारी मिलती है।स्वामीजी ने मनुष्य के मन की उपमा सागर से की है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार सागर में उठने वाली कम्पन या लहर शान्त होकर भी नष्ट नहीं होती, वरन अन्य लहरों को जन्म देती है, उसी प्रकार हमारे मन में उठने वाली तरंगें शान्त होकर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होतीं, वरन् मन पर अपनी एक छाप छोड़ जाती हैं 1 भविष्य में पुनः उस छाप के उभरने की सम्भावना बनी रहती है। हम वही हैं जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। उदाहरणार्थ यदि कोई मनुष्य हमेशा बुरे शब्दों को सुनता है, बुरे विचार सोचता है व बुरे कार्य करता है तो उसका मन बुरे प्रभावों से ग्रस्त जाता है और जो मनुष्य सद्विचारों में लीन रहता है तो उसके मन पर प्रभाव भी अच्छा पड़ता है। महान व्यक्ति वही होता है जिसका आचरण सदैव हर स्थिति में ऊँचा रहे ।
इसके अलावा अच्छे या बुरे प्रभाव जब मन पर पड़ते हैं तो वे संगठित हो जाते हैं तथा उसी के अनुरूप हमारी आदत बन जाती है। आदत को प्रति स्वभाव (Second nature) माना भी गया है। इन्हीं आदत व पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर मनुष्य का चरित्र निर्मित होता है। अतः बुरी आदतों को रोकने के लिये उसका उपाय अच्छी आदतें डालना। अतः इसके लिये किसी की भी निन्दा नहीं करनी चाहिये। चरित्र गठन की इस प्रक्रिया पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि हमारी समस्त बुराइयों का कारण हम स्वयं ही हैं। इसके लिये किसी देवी-देवता को दोषी ठहराना उचित नहीं है। क्योंकि स्वामीजी का यह मानना है कि मनुष्य की स्थिति रेशम के कीड़ों की भाँति है। जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने भीतर के तत्त्वों से ही रेशम के धागे को अपने चारों ओर बुन लेता है और अन्त में उसी में बन्द हो जाता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य अपने स्वयं के कर्म- सूत्रों में अपने को बाँध लेता है और अज्ञानता के कारण अपने को बन्दी समझता है। इस बन्धन से मुक्त होने के लिये सहायता भीतर से ही प्राप्त हो सकती है। हम जो भूलें या गल्तियाँ करते हैं उसका एकमात्र कारण हमारी दुर्बलता है और इसका प्रादुर्भाव अज्ञानता से होता है।
(9) धार्मिक शिक्षा ( Religion Education )
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार धर्म ही शिक्षा की आत्मा है। लेकिन धर्म से अभिप्राय उनका धर्म-विशेष से नहीं है। वास्तविक धर्म, सिद्धान्त, अन्धविश्वासों में नहीं है। धर्म तो अनुभूति अर्थात् आत्म-साक्षात्कार है। जिस प्रकार केवल शल्य-चिकित्सा के ग्रन्थों को पढ़कर कोई व्यक्ति शल्य चिकित्सक (सर्जन) नहीं बन सकता, उसी प्रकार केवल धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करके कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं बन सकता। जिस प्रकार किसी देश का मानचित्र देखकर उस देश को देखने की जिज्ञासा की सन्तुष्टि नहीं हो सकती, उसी प्रकार व्यक्ति केवल धर्म-ग्रन्थ पढ़कर धर्म या ईश्वर को तब तक नहीं समझ सकता जब तक साधना का सहारा लेकर स्वयं परमात्मा का अनुभव नहीं करता । मन्दिर, गिरजाघर, गुरुद्वारा, धर्म-ग्रन्थ आदि धर्म की अनुभूति के प्रथम सोपान हैं। आत्म-साक्षात्कार या अनुभूति की प्राप्ति तो हृदय द्वारा ही हो सकती है। बुद्धि उस स्तर तक नहीं पहुँच सकती। इसलिये वर्तमान शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह केवल बौद्धिक है, जिसमें हृदय का परिष्कार नहीं किया जाता।धार्मिक शिक्षा की शिक्षण विधि- धार्मिक शिक्षण की विधि है-विद्यालयों में संतों की पूजा एवं आराधना। उनके सम्मुख राम, कृष्ण, बुद्ध व महावीर स्वामी व रामकृष्ण परमहंस जैसे महात्माओं का आदर्श प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिससे विद्यार्थी उनका अनुसरण कर सकें। स्वामीजी का पूर्ण विश्वास है कि वेद मन्त्रों की विद्युत ध्वनि द्वारा देश में पुनः जीवन-शक्ति का संचार किया जा सकता है। स्वामीजी ने 'धार्मिक' होने की व्याख्या नवीन तरीके से की है। प्राचीन धर्मों में तो ईश्वर में विश्वास न करने वाला व्यक्ति नास्तिक माना जाता है। अद्वैत की व्याख्या करते हुए स्वामीजी का यह मानना है कि नास्तिक वह व्यक्ति है जो 'स्वयं' में विश्वास नहीं रखता है। लेकिन ध्यान रहे कि यहाँ 'स्वयं' से उनका अभिप्राय किसी एक व्यक्ति की आत्मा से नहीं है, वरन् उस एक 'आत्मा' से है हम सभी में व्याप्त है। यही आन-विश्वास संसार को उच्च स्तर पर पहुँचा सकता है। इसी भावना से प्रेरित होकर संसार के अनेक व्यक्ति महान् आत्मा बन सकें। स्वामीजी का मानना है कि यही वास्तविक धर्म है और ऐसा धर्म ही शक्ति हैं। क्योंकि धर्म के अभाव में ही मनुष्य शक्तिहीन हो जाता है। स्वामीजी के शब्दों में- "शक्तिहीनता ही पाप व बुराइयों की जननी है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को 'सोऽहम्' का जप करते रहना चाहिए जिसस उसे अपनी वास्तविक प्रकृति का स्मरण रहे। बालक इस विचार का श्रवण करे फिर मनन करे तत्पश्चात् यह विचार स्वयं ही उसे अच्छे कार्य के लिये प्रेरित करेगा।
स्वामीजी का यह मानना है कि व्यक्ति को धार्मिक बनने के लिये सबसे पहली आवश्यकता यह है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। क्योंकि शारीरिक कमजोरी हमारी 1/3 विपत्तियों की जननी है। विवेकानन्द ने नवयुवकों को सन्देश देते हुए कहा कि- सबसे पहले हमारे युवक को स्वस्थ व शक्तिशाली बनना है, धर्म तो बाद की चीज हैं....... तुम गीता पढ़ने की अपेक्षा फुटबाल खेलने के द्वारा स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच सकते हो. यदि शरीर में स्वस्थ रक्त है तो अपने पैरों पर खड़े हो सकते हो, उपनिषदों व आत्मा की महत्ता को अधिक भलीभाँति समझ सकोगे। क्योंकि शक्ति ही शिव है और दुर्बलता पाप है। असीम शक्ति ही धर्म है।
यह अपार शक्ति हमें उपनिषदों के दर्शन का अनुसरण करने से मिल सकती है। उपनिषद शक्ति की खान है तथा उनमें इतनी शक्ति है कि वे सारे संसार में शक्ति का संचार कर सकते हैं। शारीरिक स्वतन्त्रता, मानसिक स्वतन्त्रता व आध्यात्मिक स्वतन्त्रता यही उपनिषदों के सांकेतिक शब्द हैं
(10) जन साधारण की शिक्षा (Education of Masses)
स्वामीजी के समय में शिक्षा जन-साधारण को सुलभ न थी। इसका क्षेत्र समाज में सबके लिये नहीं था। परिणामस्वरूप दीन दुखियों व निम्न वर्ग के लोगों को पेट भरकर भोजन भी नहीं मिल पाता था। इसलिये स्वामीजी ने उस समय की भारतीय समुदाय की आर्थिक दृष्टि से हीन दशा को सुधारने हेतु जनसाधारण को शिक्षित करने पर बल दिया और कहा- "मैं जन साधारण की अवहेलना करना महान् राष्ट्रीय पाप समझता हूँ। यह हमारे पतन का प्रमुख कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर उपयुक्त (शिक्षा), अच्छा भोजन व अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जायेगी तब तक प्रत्येक राजनीति बेकार सिद्ध होगी।
सामान्य जनता के उत्थान के लिये स्वामीजी यह जरूरी समझते हैं कि लोगों को अपनी दशा सुधारने का ज्ञान होना चाहिये। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि संसार में उनके चारों ओर क्या हो रहा है, तभी तो उन्नति करने हेतु भावनाएँ एवं विचार जाग्रत हो सकेंगे। इस उद्देश्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन है-जनता को शिक्षित करना। उन्हें गाँव-गाँव, घर-घर जाकर शिक्षा देनी होगी। क्योंकि वे शिक्षा प्राप्त करने विद्यालय नहीं आ पाते। इस सन्दर्भ में उनका सुझाव है कि यदि सन्यासियों में से कुछ को धर्म की शिक्षा प्रदान करने के लिये भी संगठित कर लिया जाये तो बड़ी सरलतापूर्वक घर-घर घूमकर वे अध्यापन तथा धार्मिक शिक्षा दोनों काम कर सकते हैं। कल्पना कीजिये कि दो संन्यासी कैमरा, ग्लोब और कुछ मानचित्रों के साथ संध्या समय किसी गाँव में पहुँचे। इन साधनों के द्वारा वे अशिक्षित जनता को भूगोल, ज्योतिष आदि की शिक्षा देते हैं। इसी प्रकार कथा-कहानियों के द्वारा दूसरे देश के सम्बन्ध में अपरिचित जनता को ये इतनी बातें बताते हैं, जितनी वे पुस्तकों द्वास अपने जीवन भर में भी नहीं सीख सकते हैं। इस प्रकार संन्यासियों के समय का सदुपयोग होगा व जनता में शीघ्रातिशीघ्र नवीन चेतना का संचार होगा। इसके साथ ही साथ स्वामीजी का मानना है कि जनता को वाणिज्य व्यवसाय आदि के क्षेत्र में होने वाले नये अन्वेषणों का ज्ञान भी कराया जाना चाहिये। इनकी शिक्षा के माध्यम के बारे में स्वामीजी का विचार है कि उनकी मातृभाषा द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिये। उनका कहना है कि "उन्हें विचार दो, सूचनाओं का संग्रह वे स्वयं कर लेंगे।
स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों का योगदान (Contribution ) -
(1) स्वामी विवेकानन्द ने श्री रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा का प्रसार करने के लिए अनेक मठ, संघ व गिशन इत्यादि की स्थापना की थी जिसमें सबसे प्रमुख सन् 1897 ई० में रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की थी। इसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं-इनके शैक्षिक विचारों का निम्नांकित योगदान है-
1. वेदान्त का अध्ययन तथा परमहंस द्वारा निरूपित वेदान्त के सिद्धान्तों के अध्ययन की उन्नति व प्रसार करना ।
2. जनता में शैक्षिक कार्य करना ।
3. कला, विज्ञान व औद्योगिक विषयों से सम्बन्धित शिक्षा का प्रसार करना।
4. शिक्षण संस्थाओं, अनाथालयों, कारखानों, प्रयोगशालाओं व अस्पतालों आदि को स्थापित उनका संचालन व उनकी सहायता करना ।
5. इन समस्त कार्यों के लिये पुस्तक पुस्तिकाओं का मुद्रण, प्रकाशन व विक्रय परिणामस्वरूप वर्तमान में भारत के लगभग समस्त प्रदेशों में 'रामकृष्ण मिशन' की शाखाएँ फैली हुई हैं, जो वेदान्त की शिक्षा देने के साथ ही स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि संचालित करती हैं। भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी-बर्मा, श्रीलंका, मारीशस, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस इत्यादि में भी रामकृष्ण मिशन की शाखाएँ वेदान्त के प्रसार व संसार की भलाई का कार्य कर रही हैं।
इसके अलावा उनके समय में सबसे पहले वेल्लूर मठ (हावड़ा) और तत्पश्चात् अद्वैत आश्रम (अल्मोड़ा) की स्थापना हुई। इतना ही नहीं, स्वामीजी ने वेदान्त के प्रचार के लिये न्यूयार्क, (अमेरिका) में वेदान्त - सोसायटी की स्थापना की थी।
(2) स्वामीजी द्वारा अपने शैक्षिक विचारों में आध्यात्मिकता पर आधारित शिक्षा पर बल देकर भारतीय शिक्षा का पुनरुद्धार करने का प्रयास सराहनीय है। इसके लिये स्वामीजी ने यह कहा कि-"यदि तुम आध्यात्मिकता का परित्याग करके पश्चिमी भौतिकवादी सभ्यता के पीछे दौड़ोगे तो परिणाम यह होगा कि तीन पीढ़ियों में तुम्हारी जाति का अन्त हो जायेगा।"
(3) स्वामीजी के जीवन-दर्शन के समान उनके शिक्षा दर्शन में भी हमें समन्वयवादी दृष्टिकोण की झलक मिलती है। शिक्षा के विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि चिन्तन व क्रिया इनमें कोई भी विरोधाभास नहीं है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि ज्ञान, कर्म और भक्ति का पारस्परिक सम्बन्ध है।
(4) स्वामीजी जहाँ एक ओर बालक के आध्यात्मिक विकास पर बल देते हैं, वहाँ दूसरी ओर वे उसको लौकिक समृद्धि के लिये भी तैयार करना चाहते हैं। एक महान् संत की भाँति स्वामीजी जहाँ एक ओर वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव का प्रचार करते हैं, वहाँ दूसरी ओर वे राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिये शक्ति के निर्माण- तथा उसके संचय पर भी बल देते हैं।
चाहे कुछ भी हो स्वामीजी ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं, उन्होंने बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावसायिक व आध्यात्मिक विकास पर ही बल नहीं दिया अपितु स्त्री शिक्षा, जन-समुदाय की शिक्षा तथा धार्मिक शिक्षा आदि अनेक पक्षों की विस्तृत व्याख्या करते हुए मानव के चारित्रिक विकास पर बल दिया है। स्वामीजी के शिक्षा दर्शन पर अगर गहराई से दृष्टि डालें तो हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि वे हृदय से आदर्शवादी थे। उन्होंने सर्वप्रथम आध्यात्मिक विकास, फिर भौतिक समृद्धि, तीसरे जीवन की रक्षा तथा अन्त में भोजन की समस्याओं के सुलझाने पर बल दिया। इस प्रकार डाक्टर आर० एस० मनी के शब्दों में- "उनके जीवन का लक्ष्य इस बात का प्रचार करना था कि लोगों में श्रद्धा तथा मानसिक वीर्य (साहस) का विकास हो, वे आत्मा का ज्ञान प्राप्त करें तथा अपने जीवन को दूसरों की भलाई के लिये त्याग दें। यही थी उनकी इच्छा तथा आशीर्वाद ।"
5. इन समस्त कार्यों के लिये पुस्तक पुस्तिकाओं का मुद्रण, प्रकाशन व विक्रय परिणामस्वरूप वर्तमान में भारत के लगभग समस्त प्रदेशों में 'रामकृष्ण मिशन' की शाखाएँ फैली हुई हैं, जो वेदान्त की शिक्षा देने के साथ ही स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि संचालित करती हैं। भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी-बर्मा, श्रीलंका, मारीशस, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस इत्यादि में भी रामकृष्ण मिशन की शाखाएँ वेदान्त के प्रसार व संसार की भलाई का कार्य कर रही हैं।
इसके अलावा उनके समय में सबसे पहले वेल्लूर मठ (हावड़ा) और तत्पश्चात् अद्वैत आश्रम (अल्मोड़ा) की स्थापना हुई। इतना ही नहीं, स्वामीजी ने वेदान्त के प्रचार के लिये न्यूयार्क, (अमेरिका) में वेदान्त - सोसायटी की स्थापना की थी।
(2) स्वामीजी द्वारा अपने शैक्षिक विचारों में आध्यात्मिकता पर आधारित शिक्षा पर बल देकर भारतीय शिक्षा का पुनरुद्धार करने का प्रयास सराहनीय है। इसके लिये स्वामीजी ने यह कहा कि-"यदि तुम आध्यात्मिकता का परित्याग करके पश्चिमी भौतिकवादी सभ्यता के पीछे दौड़ोगे तो परिणाम यह होगा कि तीन पीढ़ियों में तुम्हारी जाति का अन्त हो जायेगा।"
(3) स्वामीजी के जीवन-दर्शन के समान उनके शिक्षा दर्शन में भी हमें समन्वयवादी दृष्टिकोण की झलक मिलती है। शिक्षा के विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि चिन्तन व क्रिया इनमें कोई भी विरोधाभास नहीं है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि ज्ञान, कर्म और भक्ति का पारस्परिक सम्बन्ध है।
(4) स्वामीजी जहाँ एक ओर बालक के आध्यात्मिक विकास पर बल देते हैं, वहाँ दूसरी ओर वे उसको लौकिक समृद्धि के लिये भी तैयार करना चाहते हैं। एक महान् संत की भाँति स्वामीजी जहाँ एक ओर वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव का प्रचार करते हैं, वहाँ दूसरी ओर वे राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिये शक्ति के निर्माण- तथा उसके संचय पर भी बल देते हैं।
चाहे कुछ भी हो स्वामीजी ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं, उन्होंने बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावसायिक व आध्यात्मिक विकास पर ही बल नहीं दिया अपितु स्त्री शिक्षा, जन-समुदाय की शिक्षा तथा धार्मिक शिक्षा आदि अनेक पक्षों की विस्तृत व्याख्या करते हुए मानव के चारित्रिक विकास पर बल दिया है। स्वामीजी के शिक्षा दर्शन पर अगर गहराई से दृष्टि डालें तो हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि वे हृदय से आदर्शवादी थे। उन्होंने सर्वप्रथम आध्यात्मिक विकास, फिर भौतिक समृद्धि, तीसरे जीवन की रक्षा तथा अन्त में भोजन की समस्याओं के सुलझाने पर बल दिया। इस प्रकार डाक्टर आर० एस० मनी के शब्दों में- "उनके जीवन का लक्ष्य इस बात का प्रचार करना था कि लोगों में श्रद्धा तथा मानसिक वीर्य (साहस) का विकास हो, वे आत्मा का ज्ञान प्राप्त करें तथा अपने जीवन को दूसरों की भलाई के लिये त्याग दें। यही थी उनकी इच्छा तथा आशीर्वाद ।"
स्वामीजी के शिक्षा दर्शन से प्रभावित होकर नेहरू ने लिखा है-"भारत के अतीत में अटल आस्था रखते हुए और भारत की विरासत पर गर्व करते हुए भी, विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के कथन ("Rooted in the past and full of pride in India's heritage Vivekanand was yet modern in his ap- proach to life's problems and was a kind of bridge between the past of India and her present").
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