उपनिषद् एवं शिक्षा
[UPANISHAD & EDUCATION ]उपनिषद् का अर्थ
(MEANING OF UPANISHAD)उपनिषद् शब्द में उप तथा नि, उपसर्ग हैं और सद् मूलधातु है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं। पहला अर्थ है नाश, दूसरा अर्थ है गति या प्राप्ति और तीसरा अर्थ है अवसाद या अन्त । इस दृष्टि से उपनिषद् का अर्थ उस ज्ञान से लिया जाता है जिससे अविद्या या अज्ञान का नाश होता है, आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है और दुःख का अन्त होता है।
मैक्समूलर ने सद् धातु में निः उपसर्ग लगाकर (जैसे निषीदति) निषद् का अर्थ बैठना लगाया है और 'उप' का अर्थ निकट होता ही है अतः उपनिषद् का अर्थ "निकट बैठना बताया गया है। मैक्समूलर ने उपनिषद् की भूमिका में लिखा है संस्कृत भाषा के इतिहास और संस्कृति के अनुसार यह निश्चित ही है कि उपनिषद् का प्रारम्भिक अर्थ एक ऐसी गोष्ठी से था, जिसमें शिष्य गुरु के चारों ओर आदर और श्रद्धा के साथ एकत्रित होते थे।
डॉ० उमेश मिश्र के अनुसार 'उप का अर्थ है समीप तथा नि का अर्थ है निश्चयपूर्वक । वह दिया या शास्त्र या विषय या पुस्तक जिसकी प्राप्ति से अविद्या का निश्चयपूर्वक नाश हो। जो मोक्ष की इच्छा वाले को ब्रह्म या विद्या के समीप ले जाकर उसका साक्षात्कार करा दे और संसार के बन्धनों को शिथिल कर दे, ये सभी 'उपनिषद' शब्द से अर्थ निकलते हैं डॉ० राधाकृष्णन् के मतानुसार इस शब्द का अर्थ उस ज्ञान से है जो भ्रम को नष्ट कर यथार्थ ज्ञान की ओर ले जाता है। "उपनिषद् " शब्द का प्रयोग इसी कारण से अत्यन्त रहस्य के अर्थों में भी लिया जाता है। उपनिषदों में अविद्या को नष्ट करने के उपायों पर भी प्रकाश डाला गया है तथा "विद्या" या "परब्रह्म के स्वरूप के विषय में भी उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि किस प्रकार से उस परम आनन्द का साक्षात्कार किया जा सकता है तथा किस प्रकार से दुःख से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है।
संख्या और काल
(TIME-PERIOD AND QUANTITY)उपनिषदों की संख्या प्रायः 100 से ऊपर ही है परन्तु उनमें 14 उपनिषद प्राचीन तथा प्रामाणिक हैं। ये उपनिषद् अपना अलग अस्तित्व रखते हैं किसी विशेष मत अथवा सम्प्रदाय का आरोपण इनमें नहीं किया गया है। ये 14 उपनिषद किसी एक काल की रचना नहीं हैं और न किसी एक व्यक्ति द्वारा लिखित हैं। यदि हम इनका
गहन अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि इनमें अनेक प्रकार की शैलियाँ पाई जाती है। साथ ही साथ इनकी विषय-सामग्री में भिन्नता है। यद्यपि उपनिषदों के सिद्धान्तो का समन्वय कर एक सामान्य सिद्धान्त को प्रतिपादन करने का अनेकों बार प्रयत्न किया गया है परन्तु वे प्रयत्न प्रायः असफल रहे हैं। गीता के अन्दर उपनिषदों के सार को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की गई है परन्तु यह प्रयत्न भी असफल रहा है क्योंकि इन सिद्धान्तों की नींव पर ही अनेक मतों का उदय हुआ है। अनेक वेदान्त तथा वैष्णव सम्प्रदाय इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। इन सम्प्रदायों में आपसी मतभेद पर्याप्त मात्रा मे पाया जाता है। इस पर भी वे अपने सिद्धान्तों की जड़ उपनिषदों को मानते हैं। इस प्रकार से हम देखते हैं कि उपनिषद एक निश्चित काल की रचना नहीं हैं और न किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित ग्रन्थ हैं। इनमें किसी एक निश्चित तथा किसी एक सम्प्रदाय का सिद्धान्त या दर्शन नहीं पाया जाता है । परन्तु इतना स्वीकार करना पड़ेगा कि चाहे उपनिषदों का कोई अपना विशेष मत न हो, परन्तु इस पर भी उनका एक निश्चित लक्ष्य है- वह है द्वितीय, अखण्ड सत्, चित् आनन्द परमात्मा की प्राप्ति - चाहे उन्हें प्राप्त होने वाली विचारधाराओं के पथ में भिन्नता क्यों न हो।
प्रमुख उपनिषद
(MAIN UPANISHAD)कुछ उपनिषद ऋग्वेदीय, कुछ सामवेदीय कुछ कृष्ण यजुर्वेदीय एवं कुछ अथर्ववेदीय हैं। इस सन्दर्भ में प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में उल्लेख उपयुक्त होगा ।
ईश
उपनिषद का पूर्ण नाम "ईशावास्य" है। इनमें अठारह मन्त्र हैं। ईश उपनिषद् में यह प्रतिपादित है कि दर्शन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ-साथ कर्म करने की भी आवश्यकता है। यह सिद्धान्त कालान्तर में 'ज्ञान-कर्म-समुच्चय-वाद" के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ था। अधिकांश भारतीय दर्शन में इस विचारधारा की प्रधानता है 1 केनइस उपनिषद में ब्रह्म की महिमा की व्याख्या है। ब्रह्म सर्वव्यापी, स्वयं प्रकाशमान तत्व है। उसका ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों से सम्भव नहीं है और उसी की शक्ति देवताओं में विद्यमान है।
कठ
इस उपनिषद में यमराज तथा नचिकेता के मध्य में संवाद हैं। ये संवाद बहुत महत्वपूर्ण एवं रोचक हैं। इनमें आत्म-ज्ञान का विवेचन एवं महिमा तथा मायावी विषयों की निकृष्टता का वर्णन है। आत्मीय ज्ञान के लिए शिष्ट की परीक्षा आदि विषय बड़े रोचक ढंग पर वर्णित है। इसके बहुत से श्लोक गीता में भी मिलते हैं।प्रश्न
यह गुरु-शिष्य संवाद की श्रृंखला में है। सत्यकाम, सुकेशा, सौर्यायणी, वैदर्भी, कवन्धी एवं कौसल्य आदि समिधा सहित पिप्पलाद ऋषि के समीप ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते हैं। ये शिष्य ब्रह्म के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न करते हैं और आचार्य उनका समाधान करते हैं।मुण्ड
यह उपनिषद मुण्डक भी कहा जाता है। इसके मन्त्रों में सप्रपंच ब्रह्म का रोचक ढंग से वर्णन है। इस उपनिषद में ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का वर्णन, लौकिक दृष्टान्तों द्वारा किया गया है।माण्डूक्य
इसमें मानव की जाग्रत स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय अवस्था का वर्णन है। भूत. भविष्य तथा वर्तमान "ऊँकार" के स्वरूप हैं। जागरित स्थान, स्वप्न स्थान, सुषुप्त स्थान एवं "सर्वप्रपंचोपशमस्थान" आत्मा के चार पाद हैं। प्रथम में प्रज्ञा, द्वितीय में अन्तर्मुखी, तृतीय में एकीभूत, आनन्दमय, प्रज्ञानधन और चेतोमुखी है। चतुर्थ की व्याख्या से परे है ।तैत्तिरीय
इस उपनिषद् की विषय-सामग्री भी अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। इसके तीन भाग हैं। प्रथम - "शिक्षाध्याय", द्वितीय "ब्रह्मनन्द वल्ली" तृतीय "भृगवल्ली' हैं। प्रथम में स्वर के सम्बन्ध में तथा ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या है। दूसरे में भी ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण, तृतीय में वरुण ने अपने पुत्र को ब्रह्म का उपदेश दिया है।ऐतरेय
इसमें सृष्टि वर्णन है। सृष्टि के पूर्व केवल एक आत्मा ही थी। इसी की इच्छा से सृष्टि हुई। तदुपरान्त मनुष्य के जन्म से लेकर मरण तक की व्याख्या इसमें है । अन्तिम अध्याय में विज्ञान के भिन्न-भिन्न विषयों की व्याख्या तथा आत्म-ज्ञान का परिचय है ।छान्दोग्य
इस उपनिषद् के अन्तर्गत सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने की सिद्धि की गई है। अनेक दृष्टान्तों सहित ज्ञान की महिमा का वर्णन है और इसमें ब्रह्म ज्ञान के स्वरूप का वास्तविक परिचय है। आत्म-साक्षात्कार की विधि का भी इसमें निरूपण किया गया है।वृदारण्यक
यह उपनिषद् सबसे बड़ा होने के साथ ही साथ पुराना तथा महत्व का है। आरम्भ में उपासना तथा सृष्टि का वर्णन है। अनेक दृष्टान्तों से ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन है। "याज्ञवल्क्य कांड इसमें बहुत महत्वपूर्ण भाग हैं, क्योंकि इसमें याज्ञवल्क्य ने अपनी स्त्री को चार्वाक से लेकर ज्ञान के सम्पूर्ण सोपानों का उपदेश दिया है। इसमें ब्रह्म और आत्मा के एकत्वभाव को भी बताया गया है। अतः यह सम्पूर्ण उपनिषदों में बहुत ही महत्वपूर्ण है।उपनिषद के विषय
(SUBJECTS OF UPANISHADS)आत्मा
उपनिषदों का ध्यानपूर्वक मनन करने पर हमको यह ज्ञात होता है कि उपनिषदों का प्रमुख एवं प्रतिपाद्य विषय आत्मा है। उनके अनुसार आत्मा हमारी परम सत्ता है और हमारे जीवन का प्रमुख सत्य है। आत्मा ही सर्वव्यापी है और विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ इसके अन्तर्गत हैं। आत्मा एक है जो संसार में प्रकृति और मानव में सर्वत्र पाया जाता है। उपनिषदों के अनुसार, आत्मा ही समस्त विश्व का मूल है और साथ ही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। संहिता से लेकर आरण्यक तक आत्मा को ब्रह्म से भिन्न बताया है किन्तु उपनिषद में आत्मा ब्रह्म से अभिन्न है तथा उसी का रूप है, अर्थात् यह आत्मा ही परम ब्रह्म है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संसार के जितने स्थूल तथा सूक्ष्म पदार्थ हैं, वे सब पदार्थ आत्मा के ही रूप हैं। दृष्टा और दृश्य में कोई भेद नहीं है क्योंकि आत्मन् ही सर्वव्यापी है और जगत के सम्पूर्ण पदार्थ उसी में विलीन हो जाते हैं। यद्यपि आत्मा के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन करना प्रायः असम्भव सा है, तथापि उपनिषदों में कहा गया है कि यह भूख, प्यास, शोक, मोह, यश तथा मरण से हमारा उद्धार करता है। यह आत्मा पूर्ण तथा अखण्ड है। आत्मा का ज्ञान अन्तःकरण की पवित्रता तथा शुद्धि ही के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा-संसार के सभी पदार्थों का सार है। उपनिषदों में इसको विशेष महत्व प्रदान किया गया है। इसका कारण यह है कि इसके समान जगत में कोई प्रिय वस्तु नहीं है ।
आत्मा के लक्षण बताना उतना ही कठिन कार्य है जितना कि गूंगे व्यक्ति के लिए मीठे फल की अभिव्यक्ति या गुणों का वर्णन करना कठिन है, किन्तु फिर भी उपनिषदों में ऋषियों ने इसके स्वरूप का वर्णन करने का प्रयास किया है। "आत्मा प्राण, अपान, व्यान, उदान वायुओं के रूप में हमारी देह को रक्षित करता है। आत्मा ही हमारा भूख-प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मरण से उद्धार करता है। आत्मज्ञान से ही पुत्र, धन तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा इसी से सन्यास ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। आत्मा पूर्ण और अखण्ड है। इसी कारण यह सत्-असत्, शुभ-अशुभ, समीप दूर आदि विरोधी धर्मो का आधार है।
आत्मा के लक्षण बताना उतना ही कठिन कार्य है जितना कि गूंगे व्यक्ति के लिए मीठे फल की अभिव्यक्ति या गुणों का वर्णन करना कठिन है, किन्तु फिर भी उपनिषदों में ऋषियों ने इसके स्वरूप का वर्णन करने का प्रयास किया है। "आत्मा प्राण, अपान, व्यान, उदान वायुओं के रूप में हमारी देह को रक्षित करता है। आत्मा ही हमारा भूख-प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मरण से उद्धार करता है। आत्मज्ञान से ही पुत्र, धन तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा इसी से सन्यास ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। आत्मा पूर्ण और अखण्ड है। इसी कारण यह सत्-असत्, शुभ-अशुभ, समीप दूर आदि विरोधी धर्मो का आधार है।
ब्रह्म
"ब्रह्ममदारण्यक उपनिषद में यह निरूपित है कि सर्वप्रथम ब्रह्म ज्ञान क्षत्रियों में था और बाद में इसे ब्राह्मणों ने ग्रहण किया। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी तपस्या के बल पर ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उपनिषदों में ब्रह्म को इन्द्रिय, वाणी, मन आदि सबसे परे माना गया है। सृष्टि के विकास तथा उत्पत्ति का वर्णन अत्यन्त विस्तार के साथ किया गया है जो इस बात का प्रमाण है कि वे दार्शनिक जगत् की सत्यता में विश्वास करते थे। उपनिषद् काल में ऋषि मुनि जीवन और जगत् के प्रति अत्यन्त आशावादी दृष्टिकोण रखते थे। कहीं-कहीं पर ऐसा भी संकेत मिलता है कि वे जगत को मिथ्या समझते थे ।'ब्रह्म' को दो रूपों में विभाजित किया गया है- मूर्त और अमूर्त। यह सत्यं एवं असत्यं स्थिर एवं अस्थिर, सत् एवं असत् है। इसको परमात्मा भी कहा जाता है। जब आत्मा अविद्या के द्वारा ग्रसित होकर बन्धन में पड़ जाती है तो वह जीवात्मा बन जाती है। यही जीवात्मा पूर्व कर्मों के अनुसार सुख और दुःख को भोगने के लिए इस संसार में प्रवेश करती है। यहाँ आकर उसे जन्म-मरण के बन्धनों में पड़ना पड़ता है। जगत में आने के समय अपने भोगों के अनुसार उसे स्थूल शरीर ग्रहण करना पड़ता है वह जगत और परलोक दोनों ही स्थानों पर विचरण करता है और स्वप्नीय अवस्था में दोनों लोकों का ज्ञान प्राप्त करती है। आत्मा स्वप्नावस्था में सुख और दुःख दोनों का ही अनुभव करती है। स्वप्न के ज्ञान की प्राप्ति के लिए वह स्थूल शरीर से भिन्न रूप धारण करती है। उपनिषदों के अनुसार जीव अपने भोगों के लिए स्वप्न में नवीन पदार्थों की सृष्टि करता है। जिस प्रकार शरीर की शक्ति क्षीण हो जाने पर जीव जाग्रत अवस्था से स्वप्नावस्था में प्रवेश करता है उसी प्रकार जर्जर स्थूल शरीर को त्याग कर अविद्या के कारण वह नवीन शरीर ग्रहण करता है। इस शारीरिक स्थानान्तरण को मरण कहते हैं।
उपनिषदों के अनुसार किसी भी जीव के भविष्य का निर्णय उसी के कर्मों के अनुसार होता है। जो व्यक्ति सत्य कर्म द्वारा जीवन व्यतीत करता है उसका भविष्य स्वतः उज्ज्वल होता है। बुरे कर्म करने वाले जीव अपने भविष्य को भी अन्धकारमय बना देते हैं। इस कारण से अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के हेतु, जीवित अवस्था में शुभ कर्म करना चाहिए। शुभ कार्यों के फलस्वरूप ही व्यक्ति अच्छे स्वरूप को प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए योगाभ्यास करना चाहिए तथा उपनिषद आदि धार्मिक ग्रन्थों से ज्ञान प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि जीवन इस लोक से परलोक जाता है और अपने कर्म के अनुसार भोग प्राप्त करता है।
उपनिषद् सृष्टि-प्रक्रिया के ऊपर भी प्रकाश डालते हैं। उनके अनुसार सृष्टि के आरम्भ में कुछ भी नहीं था। धीरे-धीरे मन, जल तथा तेजस और प्रजापति का जन्म हुआ। सबसे अन्त में सुर और असुर पैदा हुए। कहीं-कहीं पर यह उल्लेख आया है कि सबसे पहले पुरुष और बाद में स्त्री का जन्म हुआ और इन दोनों के सम्पर्क के फलस्वरूप संसार की सृष्टि हुई। आकाश से सृष्टि होती है और उसी में जगत् विलीन भी हो जाता है। वास्तव में यदि देखा जाय तो उपनिषदों में सृष्टि का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है। इन सब वर्णनों के पढ़ने से ज्ञात होता है कि सृष्टि का प्रथम स्वरूप अवर्णनीय था। उपनिषदों के अनुसार, यह अव्यक्त रूप ही "परब्रह्म" है । सम्पूर्ण संसार इसी से उत्पन्न होता है और इसी में लय हो जाता है। वह ही जग का निमित्त और उपादान कारण 1
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपनिषद वैदिक चिन्तन का पर्यवसान माने जाते हैं तथा इन्हें वेदान्त की संज्ञा दी जाती है। प्रायः समस्त उपनिषदों में ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड की निन्दा तथा कर्म के स्थान पर ज्ञान की महिमा को प्रधानता दी गई है। उनकी प्रवृति कर्मकाण्ड से ध्यान की तरफ यज्ञ से चिन्तन की तरफ तथा बाह्य प्राकृतिक शक्तियों से अन्तरात्मा की खोज की तरफ है। उपनिषदों के अनुसार आत्मा समस्त जगत् में निहित परम सत्य है। "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्वमसि" तथा "अयम् आत्मा ब्रह्म आदि परम वाक्यों में इसी तत्व का विवेचन है। ब्रह्म एवं आत्मा का तादात्म्य सूचित करने वाले इन परम वाक्यों का मुख्य लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार ही प्रतीत होता है। उपनिषदों में जगत को अनित्य परिवर्तनशील एवं दुःखमय माना गया |
उपनिषदों के अनुसार किसी भी जीव के भविष्य का निर्णय उसी के कर्मों के अनुसार होता है। जो व्यक्ति सत्य कर्म द्वारा जीवन व्यतीत करता है उसका भविष्य स्वतः उज्ज्वल होता है। बुरे कर्म करने वाले जीव अपने भविष्य को भी अन्धकारमय बना देते हैं। इस कारण से अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के हेतु, जीवित अवस्था में शुभ कर्म करना चाहिए। शुभ कार्यों के फलस्वरूप ही व्यक्ति अच्छे स्वरूप को प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए योगाभ्यास करना चाहिए तथा उपनिषद आदि धार्मिक ग्रन्थों से ज्ञान प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि जीवन इस लोक से परलोक जाता है और अपने कर्म के अनुसार भोग प्राप्त करता है।
उपनिषद् सृष्टि-प्रक्रिया के ऊपर भी प्रकाश डालते हैं। उनके अनुसार सृष्टि के आरम्भ में कुछ भी नहीं था। धीरे-धीरे मन, जल तथा तेजस और प्रजापति का जन्म हुआ। सबसे अन्त में सुर और असुर पैदा हुए। कहीं-कहीं पर यह उल्लेख आया है कि सबसे पहले पुरुष और बाद में स्त्री का जन्म हुआ और इन दोनों के सम्पर्क के फलस्वरूप संसार की सृष्टि हुई। आकाश से सृष्टि होती है और उसी में जगत् विलीन भी हो जाता है। वास्तव में यदि देखा जाय तो उपनिषदों में सृष्टि का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है। इन सब वर्णनों के पढ़ने से ज्ञात होता है कि सृष्टि का प्रथम स्वरूप अवर्णनीय था। उपनिषदों के अनुसार, यह अव्यक्त रूप ही "परब्रह्म" है । सम्पूर्ण संसार इसी से उत्पन्न होता है और इसी में लय हो जाता है। वह ही जग का निमित्त और उपादान कारण 1
आत्म-साक्षात्कार ( Self-realisation)
उपनिषदों में आत्म-साक्षात्कार के उपायों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए जीव को कायिक, वाचिक तथा मानसिक संयम. करना परमावश्यक है। ब्रह्मचर्य का पालन करना, सत्यपथ पर चलना, इन्द्रियों का निग्रह करना, किसी की वस्तु का अपहरण न करना, हिंसा से विरत रहना, माता-पिता की सेवा करना, अतिथियों का देवता तुल्य आदर करना आदि ब्रह्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक हैं। वास्तव में ब्रह्म का साक्षात्कार करना ही उपनिषदों का रहस्य है. उपदेश है तथा चरम लक्ष्य है। ब्रह्म-साक्षात्कार के पश्चात् जीव संसार-बंधन से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार के तुच्छ आनन्द से कहीं ऊपर अपरिमित आनन्द का उपभोग करता है और इस संसार में पुनः नहीं आता ।इस प्रकार हम देखते हैं कि उपनिषद वैदिक चिन्तन का पर्यवसान माने जाते हैं तथा इन्हें वेदान्त की संज्ञा दी जाती है। प्रायः समस्त उपनिषदों में ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड की निन्दा तथा कर्म के स्थान पर ज्ञान की महिमा को प्रधानता दी गई है। उनकी प्रवृति कर्मकाण्ड से ध्यान की तरफ यज्ञ से चिन्तन की तरफ तथा बाह्य प्राकृतिक शक्तियों से अन्तरात्मा की खोज की तरफ है। उपनिषदों के अनुसार आत्मा समस्त जगत् में निहित परम सत्य है। "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्वमसि" तथा "अयम् आत्मा ब्रह्म आदि परम वाक्यों में इसी तत्व का विवेचन है। ब्रह्म एवं आत्मा का तादात्म्य सूचित करने वाले इन परम वाक्यों का मुख्य लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार ही प्रतीत होता है। उपनिषदों में जगत को अनित्य परिवर्तनशील एवं दुःखमय माना गया |
भारतीय दार्शनिक चिन्तन का मुख्य स्रोत उपनिषद है। भारतीय शिक्षा का आदि स्रोत भी उपनिषद् को ही मानना चाहिए। उपनिषदों में जिस अमृततुल्य ज्ञान का प्रतिपादन किया गया है वह शिक्षा के लिए भी स्थायी निधि है ।
हमारा भौतिक शरीर अन्न से निर्मित हैं और इसे अन्नमय कोष कहा गया है। इस अन्नमय कोष के भीतर हमारी प्राणदायिनी शक्ति है और इसे प्राणमय कोष कहा गया है। इससे भी सूक्ष्म हमारी मनन शक्ति है जिसे मनोमय कोष कहा जाता है। इससे भी सूक्ष्म हमारा चेतनतत्व है जो विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत अति सूक्ष्म आनन्दमय कोष है यही दिव्य विशुद्ध आनन्द का स्थान है। इन कोषों को अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा और विज्ञानमय आत्मा के रूप में समझना चाहिये। शिक्षा का लक्ष्य शिक्षार्थी को सभी कोषों के स्तर पर आत्म साक्षात्कार करने की प्रेरणा देना है जिससे कि वह दिव्य विशुद्ध आनन्द रूपी अमृत का पान कर सके और आनन्दमय हो सके।
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)
उपनिषदों ने आत्म-साक्षात्कार को जीवन का लक्ष्य स्वीकार किया है और इसी को शिक्षा भी स्वीकार किया जाता है। आत्मतत्व के विषय में उपनिषदों में विस्तार से विचार किया गया है।हमारा भौतिक शरीर अन्न से निर्मित हैं और इसे अन्नमय कोष कहा गया है। इस अन्नमय कोष के भीतर हमारी प्राणदायिनी शक्ति है और इसे प्राणमय कोष कहा गया है। इससे भी सूक्ष्म हमारी मनन शक्ति है जिसे मनोमय कोष कहा जाता है। इससे भी सूक्ष्म हमारा चेतनतत्व है जो विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत अति सूक्ष्म आनन्दमय कोष है यही दिव्य विशुद्ध आनन्द का स्थान है। इन कोषों को अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा और विज्ञानमय आत्मा के रूप में समझना चाहिये। शिक्षा का लक्ष्य शिक्षार्थी को सभी कोषों के स्तर पर आत्म साक्षात्कार करने की प्रेरणा देना है जिससे कि वह दिव्य विशुद्ध आनन्द रूपी अमृत का पान कर सके और आनन्दमय हो सके।
आत्मा की चार अवस्थाएँ हैं। प्रथम अवस्था जाग्रत की है जिसमें बाह्य वस्तुओं का अनुभव होता है। द्वितीय अवस्था स्वप्न की है जिसमें आन्तरिक मानसिक जगत का अनुभव होता है। तीसरी अवस्था सुषुप्ति या गहरी नींद की अवस्था है जिसमें आनन्द का अनुभव होता है। इन तीनों में आत्मा को क्रमशः विश्व, तैजस् तथा प्रज्ञा कहा गया है। इन तीनों में आत्मा के केवल अंश का परिचय प्राप्त होता है। चौथी अवस्था तुरीयावस्था है जिसमें अचिन्त्य, अव्यवहार्य, अदृष्ट, अग्राह्य अलक्षण, शान्त, शिव, अद्वैत विशुद्ध आत्मा की स्थिति है जिसमें बाह्य चेतना, अन्तः चेतना, प्रज्ञा, अप्रज्ञा और इनके मिश्रित स्वरूपों का अभाव रहता है। यह आत्मा कूटस्थ अधिकारी है। इस आत्मा और ब्रह्म में अभेद है। ओंकार इसी आत्मा को इंगित करता है। इसी का साक्षत्कार शिक्षा का लक्ष्य है।
प्रकारान्तर से उपनिषदों के अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य ब्रह्ममानुभूमि स्वीकार किया जाना चाहिए। यद्यपि इसमें एक आत्मा साक्षात्कार में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म अणु से भी अणु और महान से भी महान है। वह ज्ञानस्वरूप है। वह परम विशुद्ध तत्व है। सविशेष या सगुण और निर्विशेष या निर्गुण । कभी-कभी उसे शब्द ब्रह्म कहा गया है। निर्विकार, निर्मल एवं प्रकाश स्वरूप है । सगुण रूप में वह सर्वकाम, सर्वरम, सर्वगन्ध, सर्वकर्मा है। सगुण तथा निर्गुण एक ही ब्रह्म के द्योतक हैं। वह तत्व एक ही है।
ब्रह्मानुभूति के पाँच सोपान हैं।
इस सोपान में यह अनुभव होना चाहिए कि हमने जिस आत्मा का अनुभव किया है वह ब्रह्म से एक है अर्थात् वह और एक ही है। वृहदारण्यक का वापस "अयमात्मा ब्रह्म" इसी सोपान का सूचक है।
शिक्षा का लक्ष्य छात्र को शनैः शनैः एक सोपान से दूसरे सोपान पर चलने की प्रेरणा देना है और शिक्षा का चरम उद्देश्य या परम लक्ष्य ब्रह्मानुभूति है।
प्रकारान्तर से उपनिषदों के अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य ब्रह्ममानुभूमि स्वीकार किया जाना चाहिए। यद्यपि इसमें एक आत्मा साक्षात्कार में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म अणु से भी अणु और महान से भी महान है। वह ज्ञानस्वरूप है। वह परम विशुद्ध तत्व है। सविशेष या सगुण और निर्विशेष या निर्गुण । कभी-कभी उसे शब्द ब्रह्म कहा गया है। निर्विकार, निर्मल एवं प्रकाश स्वरूप है । सगुण रूप में वह सर्वकाम, सर्वरम, सर्वगन्ध, सर्वकर्मा है। सगुण तथा निर्गुण एक ही ब्रह्म के द्योतक हैं। वह तत्व एक ही है।
ब्रह्मानुभूति के पाँच सोपान हैं।
प्रथम सोपान
व्यक्ति स्वयं को आत्मा से पृथक् समझते हुए अपने अन्दर आत्मा की अनुभूति करता है, आत्मा के रहस्यों का अनुभव करता है। वृहदारण्यक उपनिषद का वाक्य "आत्मा का अरे दुष्टव्यः इसी सोपान का सूचक है।द्वितीय सोपान
यह अनुभव करना कि हम आत्मा ही हैं, द्वितीय सोपान है। वृहदारण्यक उपनिषद का वाक्य "आत्मानं विजानीयाद् यमस्मीति पुरुषः " इसी सोपान का सूचक है । तृतीय सोपानइस सोपान में यह अनुभव होना चाहिए कि हमने जिस आत्मा का अनुभव किया है वह ब्रह्म से एक है अर्थात् वह और एक ही है। वृहदारण्यक का वापस "अयमात्मा ब्रह्म" इसी सोपान का सूचक है।
चतुर्थ सोपान
इस सोपान में अनुभूति होती है कि मैं ब्रह्म हूँ या तुम वह ब्रह्म ही हो। अहं ब्रह्मास्मि" या "तत्वमसि का यही अभिप्राय है।पंचम सोपान
अन्दर और बाहर, विषय और विषयी सभी ब्रह्म हैं। समस्त जगत् ही ब्रह्म है। छान्दोग्य उपनिषद् का वाक्य "सर्व खल्विदं ब्रह्म इसी सोपान का सूचक है।शिक्षा का लक्ष्य छात्र को शनैः शनैः एक सोपान से दूसरे सोपान पर चलने की प्रेरणा देना है और शिक्षा का चरम उद्देश्य या परम लक्ष्य ब्रह्मानुभूति है।
आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्मानुभूति के मार्ग पर चलने से व्यक्तित्व का विकास होता है, चरित्र का निर्माण होता है, मानव समाज में एकता की भावना का विकास होता है। आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के कार्य में कुशलता आती है और वह जिस व्यवसाय में प्रवेश करता है, उसमें चार चाँद लगा देता है। इस प्रकार व्यावसायिक कुशलता के लिए भी आध्यात्मिकता का पुट आवश्यक है।
1. परा विद्या और
2. अपरा विद्या।
परा विद्या में लौकिक ज्ञान की बात है। लौकिक ज्ञान लौकिक विषयों द्वारा सम्भव है। अपरा विद्या में आध्यात्मिक विषयों का समावेश है और आत्मज्ञान एवं ब्रह्मानुभूति का लक्ष्य अपराविद्या द्वारा साध्य है |
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार चतुर्वेदों के अतिरिक्त इतिहास पुराण (पंचमवेद) पित्रयराशि, निधि, वाकोवाक्य, एकायन, वेद विद्या. भूत विद्या, ब्रह्मविद्या क्षेत्र विद्या, नक्षत्र सर्प विद्या एवं देव यज्ञ विद्या आदि अध्ययन के प्रमुख विषय होने चाहिए। विद्याओं, कलाओं व विज्ञानों के अतिरिक्त उपनिषदों में परा विद्या (वेदान्त) का पर्याप्त विवेचन मिलता है। यह श्रेष्ठ गुण सम्पन्न होने से तत्कालीन समय में उच्च कोटि के ज्ञानियों में ज्ञानेच्छावर्धक थी। ब्रह्मसूत्र में 32 प्रकार की ब्रह्म विद्याओं का उल्लेख है। जैसे सद् विद्या, गायत्री विद्या, आनन्द विद्या, अन्तरादित्य विद्या, आकाश विद्या प्राण विद्या, इन्द्र प्राण विद्या, साण्डिल्य विद्या, नेश्वरनर विद्या, भूमि विद्या, गाग्र्याक्षर विद्या, प्रोनोवास्य विद्या, अंगुष्ठ विद्या, अजशारीरिक विद्या, मैत्रेयी विद्या दुहिन रुद्रादि शारीरिक विद्या, पंचाग्निं विद्या, आदित्यस्थान्नात्मक विद्या, पुरुषविद्या, ईशावास्य विद्या, उसस्तिकहोल विद्या, व्यहरित, शारीरिक विद्या आदि का उल्लेख है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि उपनिषदों के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद तक ही पाठ्यक्रम सीमित नहीं है। अनेक प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है।
पाठ्यक्रम (Curriculum)
उपनिषदों में जिस आत्मतत्व, ब्रह्म, जीव, जगत आदि की विवेचना की गई है उनका सम्यक् ज्ञान पाठ्यक्रम के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उपनिषदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की है-1. परा विद्या और
2. अपरा विद्या।
परा विद्या में लौकिक ज्ञान की बात है। लौकिक ज्ञान लौकिक विषयों द्वारा सम्भव है। अपरा विद्या में आध्यात्मिक विषयों का समावेश है और आत्मज्ञान एवं ब्रह्मानुभूति का लक्ष्य अपराविद्या द्वारा साध्य है |
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार चतुर्वेदों के अतिरिक्त इतिहास पुराण (पंचमवेद) पित्रयराशि, निधि, वाकोवाक्य, एकायन, वेद विद्या. भूत विद्या, ब्रह्मविद्या क्षेत्र विद्या, नक्षत्र सर्प विद्या एवं देव यज्ञ विद्या आदि अध्ययन के प्रमुख विषय होने चाहिए। विद्याओं, कलाओं व विज्ञानों के अतिरिक्त उपनिषदों में परा विद्या (वेदान्त) का पर्याप्त विवेचन मिलता है। यह श्रेष्ठ गुण सम्पन्न होने से तत्कालीन समय में उच्च कोटि के ज्ञानियों में ज्ञानेच्छावर्धक थी। ब्रह्मसूत्र में 32 प्रकार की ब्रह्म विद्याओं का उल्लेख है। जैसे सद् विद्या, गायत्री विद्या, आनन्द विद्या, अन्तरादित्य विद्या, आकाश विद्या प्राण विद्या, इन्द्र प्राण विद्या, साण्डिल्य विद्या, नेश्वरनर विद्या, भूमि विद्या, गाग्र्याक्षर विद्या, प्रोनोवास्य विद्या, अंगुष्ठ विद्या, अजशारीरिक विद्या, मैत्रेयी विद्या दुहिन रुद्रादि शारीरिक विद्या, पंचाग्निं विद्या, आदित्यस्थान्नात्मक विद्या, पुरुषविद्या, ईशावास्य विद्या, उसस्तिकहोल विद्या, व्यहरित, शारीरिक विद्या आदि का उल्लेख है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि उपनिषदों के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद तक ही पाठ्यक्रम सीमित नहीं है। अनेक प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है।
उपनिषद्कालीन पाठ्यक्रम अत्यधिक विस्तृत था । यह सीमित या संकुचित नहीं था। इसमें तत्काली समाज की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। यह आदर्शवादी और यथार्थवादी था। इसमें लौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार के विषयों का समावेश था।
छात्रों के मस्तिष्क को बाह्य सामग्रियों ने अनुकूल करने हेतु प्राचीन भारत में दृश्य या मौखिक प्रविधियाँ प्रचलित थीं। इन्हें मौखिक पाठ्यवस्तु विधि, व्याख्या विधि, कंठस्थीकरण विधि, प्रश्नोत्तर तालिका विधि, निदर्शन विधि, अन्वेषण विधि, आगमन विधि, परावर्तन विधि, रहस्यात्मक विधि, सूत्र विधि, व्युत्पत्ति विधि, साम्य विधि, संश्लेषण विधि, स्वगत कथन तिथि, प्रयोग विधि प्रयोजन विधि, योग एवं संन्यास विधि, नायक विधि कहा जाता था। शिक्षण विधियों के मनोवैज्ञानिक आधारों के अन्तर्गत प्राचीन भारत में मौखिक शिक्षण प्रणाली कंठस्थीकरण के रूप में प्रचलित थी। संबोधविधि के माध्यम से प्रत्यय निर्माण कराया जाता था। यह विधि आज तक कहीं सुनने में नहीं आती है। वैदिक युगीन व्याख्या विधियाँ मनोविज्ञान सम्मत थीं। पाठ्य वस्तु की प्रकृति के अनुसार ही इनका विकास शनैः शनैः हुआ। इस काल में शिष्य की क्रियाशीलता पर भी बल दिया जाता था। इसके लिए प्रयोग, अन्वेषण, आगमन तथा योजना आदि विधियाँ अपनायी जाती थीं। शिक्षा संगठन के अन्तर्गत अध्ययन अध्यापन के लिए नायक विधि का प्रचलन था। इसमें शिक्षक की अनुपस्थिति में वरिष्ठ एवं मेधावी शिष्य शिक्षण कार्य करते थे।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods )
औपनिषदिक दार्शनिकों ने समय की माँग के अनुसार, समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप और छात्र की रुचि तथा क्षमता के अनुसार शिक्षण विधियों की खोज की थी। उनके द्वारा प्रयुक्त शिक्षण विधियाँ निरपेक्ष नहीं थीं। वे लक्ष्य सापेक्ष थीं । उद्देश्य के अनुरूप तथा पाठ्यक्रम के अनुरूप वे शिक्षण विधि का चुनाव कर लेते थे। इसीलिए उनके द्वारा प्रयुक्त शिक्षण विधि एक न होकर अनेक थीं। जिन प्रमुख शिक्षण विधियों का उपनिषद कालीन आचार्यों ने प्रयोग किया था उनका यहाँ तक संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है।छात्रों के मस्तिष्क को बाह्य सामग्रियों ने अनुकूल करने हेतु प्राचीन भारत में दृश्य या मौखिक प्रविधियाँ प्रचलित थीं। इन्हें मौखिक पाठ्यवस्तु विधि, व्याख्या विधि, कंठस्थीकरण विधि, प्रश्नोत्तर तालिका विधि, निदर्शन विधि, अन्वेषण विधि, आगमन विधि, परावर्तन विधि, रहस्यात्मक विधि, सूत्र विधि, व्युत्पत्ति विधि, साम्य विधि, संश्लेषण विधि, स्वगत कथन तिथि, प्रयोग विधि प्रयोजन विधि, योग एवं संन्यास विधि, नायक विधि कहा जाता था। शिक्षण विधियों के मनोवैज्ञानिक आधारों के अन्तर्गत प्राचीन भारत में मौखिक शिक्षण प्रणाली कंठस्थीकरण के रूप में प्रचलित थी। संबोधविधि के माध्यम से प्रत्यय निर्माण कराया जाता था। यह विधि आज तक कहीं सुनने में नहीं आती है। वैदिक युगीन व्याख्या विधियाँ मनोविज्ञान सम्मत थीं। पाठ्य वस्तु की प्रकृति के अनुसार ही इनका विकास शनैः शनैः हुआ। इस काल में शिष्य की क्रियाशीलता पर भी बल दिया जाता था। इसके लिए प्रयोग, अन्वेषण, आगमन तथा योजना आदि विधियाँ अपनायी जाती थीं। शिक्षा संगठन के अन्तर्गत अध्ययन अध्यापन के लिए नायक विधि का प्रचलन था। इसमें शिक्षक की अनुपस्थिति में वरिष्ठ एवं मेधावी शिष्य शिक्षण कार्य करते थे।
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