जैन दर्शन एवं शिक्षा
[JAIN PHILOSOPHY AND EDUCATION]जैन धर्म का अर्थ
(MEANING OF JAIN RELIGION)"जैन" "जिन' शब्द से बनाया गया है। जैन साहित्य (Jain literature) में जैन का अर्थ इन्द्रियों को जीतने वाला होता है। इन्द्रियों को जीतने वाले का अर्थ सभी प्रकार के विकारों का स्वाभाविक नियन्त्रण रखने वाला है। "जिनों" अर्थात् सभी प्रकार के विकारों को जीतने वालों द्वारा जो उपदेश दिये गये हैं उन उपदेशों को जैन धर्म कहते हैं। जो साधारण प्राणियों की तरह जन्म लेकर काम, मोह, क्रोध आदि विकारों को जीत कर अमरत्व की अनुभूति करते हैं। ऐसे महापुरुषों द्वारा दिया गया उपदेश ही जैन धर्म को पृष्ठभूमि बनाते हैं।
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जैन धर्म का जन्म
(BIRTH OF JAINISM)जैन धर्म के अन्तर्गत यह मान्यता रही है कि पहले यह संसार भोग-भूमि था, अर्थात् यहाँ पर पहले लोग नाना प्रकार के भोग-विलास में ही लिप्त रहा करते थे । कालान्तर में जनसंख्या के बहुत बढ़ने के साथ जब नाना प्रकार की आवश्यकताओं की अनुभूति होने लगी तो "भोग-भूमि" के आदर्श को त्याग कर मनुष्य ने "कर्मभूमि" के आदर्श को पकड़ा। आदर्श में इस प्रकार के परिवर्तन से भोग-भूमि "कर्मभूमि" के रूप में देखी जाने लगी। इसी समय चौदह कुलकर या मनु (Manu) उत्पन्न हुए । इन मनुओं ने कुल के हित हेतु आचार, सामाजिक व्यवस्था, परम्परा तथा रीति-रिवाज का विकास किया। वस्तुतः इस विकास कार्य के कारण इन मनुष्यों को पहले कुलकरों की संज्ञा दी गई थी। जैन साहित्य में कुल चौदह कुलकरों में नाभिराय अन्तिम कुलकर थे। नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव ही जैन धर्म में प्रारम्भिक प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्हीं से जैन धर्म का विकास हुआ। जैन ग्रन्थों में भगवान् ऋषभदेव को "जिन' या तीर्थकर माना जाता है। इन चौबीस तीर्थंकरों में भगवान् ऋषभदेव को प्रथम तथा भगवान महावीर (Lord Mahavir) को अन्तिम तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया गया है। भगवान महावीर का जन्म 600 वर्ष पूर्व कुण्डग्राम नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था। इनकी माता का नाम त्रिशला था। बिहार राज्य का वैशाली क्षेत्र इनकी जन्मभूमि मानी जाती है। यज्ञ में निरीह पशुओं का वध इनसे सहन नहीं हुआ। 30 वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन से विमुख होकर इन्होंने 12 वर्ष तक घोर तपस्या की। इस तपस्या से इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद 30 वर्षों तक इन्होंने धर्म का प्रचार किया। 72 वर्ष की आयु में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया ।
भगवान महावीर के विविध उपदेशों का उनके अनुयायियों ने संग्रह किया। यह संग्रह ही ग्रन्थ का रूप लेता गया। अब यह संग्रह ही जैन धर्म का प्रमुख साहित्य माना जाता है। यह साहित्य कई भागों में लिपिबद्ध किया गया है। इन भागों के दो प्रमुख विभाग किये गये हैं- 1. दिगम्बर साहित्य तथा 2. श्वेताम्बर साहित्य । इन विविध विभागों का यहाँ विवरण देना आवश्यक नहीं समझा जा रहा है।
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जैन दर्शन के सिद्धान्त तथा उनमें निहित शैक्षिक विचार
(PRINCIPLES OF JAINISM AND EDUCATIONAL THOUGHTS UNDERLYING IN THEM)जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में तीन प्रमुख तत्व होते हैं-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । ये तीन लक्षण उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता के द्योतक माने जा सकते हैं। इन लक्षणों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम कभी रुकता नहीं। इसी आधार पर जैन दर्शन की यह मान्यता है कि यह संसार परिवर्तनशील है। परन्तु इस परिवर्तनशीलता के होते हुए भी जगत की एकता (Unity) उसी प्रकार बनी रहती है जैसे कि एक मनुष्य शैशव से किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था पर आता है, परन्तु इन विविध अवस्थाओं पर आने वाले मनुष्यों की एकता बनी रहती है, क्योंकि परिवर्तित होने वाला "मनुष्य" मनुष्य ही बना रहता है। इस आधार पर जैन धर्म का यह विश्वास है कि परिवर्तन के साथ अपरिवर्तनशीलता भी बनी रहती है।
जैन धर्म के अनुसार संसार अनादि और अनन्त है। जैनियों का विश्वास है कि इस जगत को किसी ने बनाया नहीं है। जगत 'जीव' और 'अजीव दो प्रकार की वस्तुओं के मेल से बना है। जैनी, अजीव हव्य के पाँच प्रकारों का उल्लेख करते हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । ये द्रव्य ज्यों के त्यों बने रहते हैं, न ये घटते हैं और न बढ़ते हैं। जैन धर्म ईश्वर नाम को किसी सत्ता पर विश्वास नहीं करता। ईश्वर न रचता है और न संहार ही करता है, क्योंकि ईश्वर की कल्पना ही निराधार है।
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जैन धर्म का अनीश्वरवाद (Atheism of Jain Religion)
जैन धर्म का ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं है। जैन धर्म के आचार्यगण ईश्वर की कल्पना को असंगत मानते हैं। उनका तर्क है कि किसी की सत्यता को आँकने के लिए किसी प्रमाण (Proof) की आवश्यकता होती है। तो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने के लिए किस प्रमाण को स्वीकार किया जाय ? यदि 'प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना जाय तो भी बात बनती नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष तो इन्द्रियगत होता है और ईश्वर तो इन्द्रियों के ज्ञान के बाहर है। वह तो अगोचर है। अतः स्पष्ट है कि ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए हमें न्यायदर्शन के अनुसार "अनुमान" का सहारा लेना पड़ेगा।जैन दर्शन एवं शिक्षा | जैन धर्म का अर्थ | जैन धर्म का जन्म | jain darshan kya hai | jain darshan ka arth | jain darshan in hindi | जैन दर्शन की शिक्षा
अनेकान्त- स्याद्वाद (Relativity-Pluralism)
जैन दर्शन एक ही चीज को अनेक रूपों में देखता है। इस दर्शन के अनुसार, सत्य को अनेक दृष्टिकोणों से समझा जा सकता है। अतः एक सच्चा जैन धर्मावलम्बी किसी एक ही बात पर अड़ता नहीं, न यह किसी बात पर किसी से झगड़ता है और न तर्क के क्रम में अपनी ही बात पर हठ करता है। उसका दृष्टिकोण उदार होता. है। वह विश्वास करता है कि चीज को कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। इस प्रकार के दृष्टिकोण के कारण एक सच्चा जैनी सभी परिस्थितियों में समभाव अपनाने में सफल होता है। इसी दृष्टिकोण को स्याद्वाद कहा जाता है।कुछ लोगों के अनुसार स्याद्वाद का तात्पर्य "शायद से है। परन्तु यह तात्पर्य ठीक नहीं है। 'शायद' शब्द में अनिश्चितता का भाव निहित रहता है, किन्तु स्याद्वाद तो एक निश्चित सिद्धान्त की ओर संकेत करता है। कुछ लोगों के अनुसार स्याद्वाद का अर्थ "कदाचित या सम्भावना है। किन्तु 'कदाचित" या सम्भावना में संशय का भाव प्रतीत होता है। वस्तुतः स्याद्वाद संशय की ओर संकेत नहीं करता। यह तो एक सत्य और सुनिश्चित सिद्धान्त का सूचक है। स्याद्वाद का तात्पर्य सापेक्षता से है। सापेक्षता में कोई न कोई अपेक्षा निहित होती है। अतः जैनियों का विश्वास है कि कोई भी चीज सत् और असत् दोनों ही हो सकती है। अपने स्वरूप के दृष्टिकोण से किसी चीज को सत् माना जा सकता है, परन्तु स्वरूप के अतिरिक्त उसे असत भी समझा जा सकता है। एकदम कोई वस्तु न सत् है और न असत्। किसी अपेक्षा से ही समय-समय पर हम किसी वस्तु को सत् तथा असत् दोनों दृष्टिकोण से देखते हैं। सत् और असत् दोनों रूप प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। उदाहरणार्थ, मिट्टी का बर्तन अपने स्वरूप में सत् है, परन्तु जब वह टूट जाता है तो उसे असत् माना जा सकता है। इस प्रकार परस्पर विरोधी भावों का समन्वय करना ही जैन दर्शन के अन्तर्गत अनेकान्तवाद कहा जाता है।
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अनेकान्त सिद्धान्त या स्याद्वाद में निहित शैक्षिक विचार (Underlying Edu cational Thoughts in Relativity or Pluralism Principle) -
अनेकान्त सिद्धान्त में "उदारतावाद' का भाव निहित है। यदि इस सिद्धान्त का हम और आगे विश्लेषण करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी विषय का केवल एक ही पक्ष मान्य नहीं हो सकता। किसी भी विचार के विषय में दो या दो से अधिक मत हो सकते हैं अतः किसी विषय पर एक निश्चित निर्णय पर पहुँचने के लिए हमें विभिन्न स्वाभाविक पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक है। आज के लोकतांत्रिक युग में विचारों में विभिन्न मत-मतान्तरों का होना स्वाभाविक ही है। कक्षा में अध्यापक अथवा किसी विद्यार्थी की धारणा से कक्षा के सभी विद्यार्थियों का सहमत होना सम्भव नहीं है। मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना' की कहावत यहाँ चरितार्थ होती है। अतः कक्षा में किसी विषय पर विचार-विनिमय के क्रम में विभिन्न प्रकाशित मतों का समन्वय आवश्यक है। किसी निर्णय पर पहुँचने के क्रम में प्रत्येक विद्यार्थी को इस सन्तोष का अनुभव होना चाहिए कि उसके विचारों तथा अभिमतों को निर्णय की प्रक्रिया में समुचित स्थान दिया गया है। विद्यार्थी का अपने में यह अनुभव उसके व्यक्तित्व का विकास करेगा और उसे उदार दृष्टिकोण का बनाने में सहायक होगा। आजकल की कक्षा शिक्षण प्रणाली में सामूहिक विचार-विनिमय के सन्दर्भ में हमे विभिन्न मतों में समन्वय प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। कहना न होगा कि इस क्रम में एक ही विचार सब पर थोपना अलोकतांत्रिक होगा और अनेक विद्यार्थियों के व्यक्तित्वों के विकास को अवरुद्ध करना होगा।
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अहिंसा (Non Violence )
अहिंसा जैन धर्मावलम्बियों का प्रमुख आचार या व्यवहार दर्शन है। जैन धर्म में अहिंसा को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। अहिंसा का इस धर्म में बड़ा ही सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। जैन धर्म में किसी भी स्थावर या जंगम प्राणी की हिंसा का निषेध है। खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते अर्थात् हमारी विविध क्रियाशीलताओं के अन्तर्गत हिंसा होती रहती है। जैन धर्म के अनुसार इस प्रकार की हिंसा से बचने का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए। "स्थूल हिंसा" और "भाव हिंसा" दोनों वर्जित हैं, अर्थात् किसी स्थूल चीज की हमें हिंसा नहीं करनी चाहिए। भेद-भाव या विचारों द्वारा हमें किसी को मानसिक पीड़ा नहीं देनी चाहिए। ज्ञातव्य है कि हिंसा के भय से जैनी लोग रात्रि को भोजन नहीं करते। साँस के माध्यम से अनेक सूक्ष्म जीव नाक से होकर शरीर में जा सकते हैं और यह एक प्रकार से इन सूक्ष्म जीवों की हिंसा ही है। अतएव बहुत से कट्टर जैनी अपनी नाक के नीचे एक ऐसे हलके कपड़े का टुकड़ा, डाले रहते हैं जिससे हवा उससे छन करके नाक में जाती है और हिंसा करने से व्यक्ति का बचाव हो जाता है। जैन धर्म का विश्वास है कि अहिंसा के पालन से सभी प्राणियों की रक्षा होगी और उन्हें सुख की अनुभूति होगी ।
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अहिंसा धर्म में निहित शैक्षिक विचार (Underlying Educational Thoughts in Ahimsa Religion) -
आज विश्व के प्रायः सभी देशों में नाना प्रकार की हिंसाएँ चल रही हैं। एक-दूसरे देश को अथवा उसके किसी भू-भाग को हड़प लेना चाहता है। किसी भी देश के विभिन्न प्रदेशों के निवासियों में विभिन्न प्रकार की ऐसी प्रतिद्वन्द्विताएँ चल रही हैं जिसके फलस्वरूप हर जगह उग्रवादी और आतंकवादी पनप रहे हैं। किसी भी नगर, शहर या ग्रामीण क्षेत्र में सूर्य के डूबने पर महिलाएँ स्वतन्त्रतापूर्वक घरों के बाहर आने में भय खाती हैं क्योंकि पता नहीं कहाँ किसी अराजक तत्व से उनका सामना न हो जाय। देश के विभिन्न विद्या-केन्द्रों में विद्यार्थियों और शिक्षकों का एक-दूसरे के प्रति अथवा अपनी ही कोटि के विभिन्न लोगों के प्रति सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार का अभाव दिखाई पड़ता है। हर स्थल पर सभी लोग अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। यहाँ तक कि कुछ परिवारों के विभिन्न सदस्यों में भी राजनीति चलती रहती है और एक सदस्य दूसरों की भावनाओं पर चोट करता रहता है। स्पष्ट है कि हम अहिंसा धर्म से बहुत दूर हो गये हैं और होते जा रहे हैं। जैन धर्म हमें यह सिखाता है कि हम अपने कर्म तथा वाणी से किसी को दुःख न पहुँचाये । क्या ही अच्छा होता यदि हमारे शिक्षक और विद्यार्थीगण जैन धर्म के इस अहिंसा धर्म को हृदयंगम करके अपने विविध क्रिया-कलापों को चलाते। ऐसा होने पर ही हमारे शिक्षा-केन्द्र आदर्श नागरिक उत्पन्न कर सकेंगे। यदि हम अपने इस उद्देश्य में सफल हो सके तो अन्ततोगत्वा हमारे पूरे समाज का ही रूप आदर्श स्वरूप हो जायेगा और हम सभी सुखी रहकर अपने कर्त्तव्यपालन में रत रहेंगे।
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तपस्या और सदाचार (Worship and Good Life)
जैन धर्म में तपस्या को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। बाहरी और आन्तरिक दोनों प्रकार की तपस्या पर अत्यधिक बल दिया गया है। बिना संयम और अहिंसा के कोई सदाचारी नहीं हो सकता। सदाचार के सहारे ही तपस्या सम्भव है। सभी जीवों के प्रति प्रेम का भाव रखना आवश्यक है। यदि किसी से कोई अपराध हो जाय तो उसे क्षमा कर देना चाहिए। किसी के विरुद्ध शत्रुता का भाव नहीं रखना चाहिए। कपट, क्रोध तथा अभिमान का भाव मन में लाना अधर्म है। सत्य बोलना चाहिए। चोरी नहीं करनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है। किसी के ऊपर निर्भर होने से सच्चे धर्म का पालन सम्भव नहीं है। कोमल और मीठे वचन बोलना परम धर्म है। कहीं से चीजों को ठीक से उठाना चाहिए और पुनः उन्हें यथास्थान व्यवस्थित कर देना चाहिए। अपने मल, मूत्र तथा कफ आदि से कहीं गन्दगी नहीं फैलानी चाहिए। अपने मन, वाणी और शरीर को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि कोई पाप न हो जाय। अपने से जो यथासम्भव सुख पहुँचाने की चेष्टा करनी चाहिए। जो अपने से विपरीत स्वभाव के हों उनके प्रति क्रोध न दिखाएँ, वरन् उनके प्रति तटस्थ रहें। जैन धर्म में तीन प्रमुख रत्न माने गये हैं— 1. सम्यक दर्शन, 2. सम्यक ज्ञान, 3. सम्यक चरित्र सम्यक दर्शन का तात्पर्य सच्चे दर्शन से है, अर्थात् सच्चे सिद्धान्त में अनुराग रखना सच्चे गुरु, सच्चे देव और सच्चे शास्त्र में श्रद्धा रखनी चाहिए।जैन दर्शन एवं शिक्षा | जैन धर्म का अर्थ | जैन धर्म का जन्म | jain darshan kya hai | jain darshan ka arth | jain darshan in hindi | जैन दर्शन की शिक्षा
तपस्या और सदाचार सम्बन्धी विचारों में निहित शैक्षिक विचार
(Underlying Educational Thoughts in Worship and Good Behaviour) -
वस्तुतः तपस्या और सदाचार सम्बन्धी जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त विचार शिक्षा के मूल आदर्शों की ओर संकेत करते हैं। शिक्षा के द्वारा यही चाहते हैं कि व्यक्ति सभी विधि से सदाचारी बन जाय। संयम और अहिंसा जैन धर्म का प्रमुख विचारबिन्दु है। यदि हमारी शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में संयमी और अहिंसा का प्रेमी हो जायेगा। इस प्रवृत्ति के किसी से कुछ अपराध होने पर उसे क्षमा कर दिया जायेगा। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप धीरे-धीरे प्रत्येक व्यक्ति में यह भाव उत्पन्न होगा कि वह किसी भी प्रकार का अपराध न करे। इस भाव के कारण हमारे शैक्षिक आदर्शों की पूर्ति होगी और व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास की ओर उन्मुख होगा। तब सभी लोग एक-दूसरे को सुख पहुँचाने की चेष्टा में रहेंगे। समाज के दीन दुखियों का कष्ट सबका कष्ट हो जायेगा। फलतः दीन और दुखी लोग सुखी हो जायेंगे। जैन धर्म में सम्यक दर्शन, सम्यक् चरित्र और सम्यक् ज्ञान है। अच्छा व्यवहार ही सम्यक् चरित्र है। अच्छे चरित्र पर ही श्रद्धा (अर्थात् सम्यक दर्शन) और सच्चा ज्ञान (सम्यक् ज्ञान) आश्रित होता है। यदि चरित्र ही अच्छा न हुआ तो सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान व्यर्थ सिद्ध होगा।
जैन धर्म में तपस्या पर विशेष बल दिया गया है। किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तपस्या अर्थात् कठिन प्रयास अत्यन्त आवश्यक है। आजकल के शिक्षा केन्द्रों में विद्यार्थीगण कठिन कार्य से घबड़ाते हैं। फलतः वे येन-केन-प्रकारेण परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाने के प्रयास में रहते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी विषय का गहन अध्ययन न करके केवल उसके सतही ज्ञान पर चलते रहते हैं। फलतः शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। यदि जैन मुनियों द्वारा की गई तपस्या का आदर्श आजकल के विद्यार्थियों के सामने रखा जाय तो उन्हें यह विश्वास हो सकता है कि किसी आदर्श की प्राप्ति हेतु ऐसी घोर तपस्या आवश्यक होती है। तपस्या का आधार सदाचार होना चाहिए। सदाचार में पाँच प्रमुख बातों जैसे-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर विशेष बल दिया गया है। अस्तेय का अर्थ चोरी न करने से है और अपरिग्रह का तात्पर्य वस्तुओं के संकलन के अभाव से है।
जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित इन पाँचों आदर्शों के आधार पर हम ऐसी शैक्षिक विचारधारा का प्रसार कर सकते हैं जिसके कार्यान्वयन के फलस्वरूप आज के समाज में व्याप्त हिंसा, असत्य भाषण चोरी अर्थात् दूसरों के हक को मारने, ब्रह्मचर्य व्रत का उल्लंघन तथा धन एकत्रीकरण की कुचेष्टा आदि के प्रति विद्यार्थियों में हम घृणा पैदा कर सकते हैं। इन सब बुरी बातों के विरुद्ध यदि हम उनमें घृणा उत्पन्न कर सकें तो समाज का उत्थान कर सकें तो समाज का उत्थान होगा और यह भूमि भी स्वर्ग की तरह रमणीय हो जायेगी।
जैन धर्म मीठे और न्याय के अनुसार वचन बोलने तथा क्रोध, अभियान और कपट आदि को मन में न लाने पर बल देता है। सब प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखने, अपने से बड़ों के प्रति समुचित सम्मान देना, दीन-दुखियों की सहायता हेतु सदैव तत्पर रहना तथा अपने से विरोधी स्वभाव से एकदम तटस्थ रहना आदि जैन धर्म के प्रमुख उपदेशों में से हैं। जैन धर्म सम्यक दर्शन, सच्चे ज्ञान और सच्चे सिद्धान्त की ओर संकेत करता है। सम्यक ज्ञान को तात्पर्य किसी वस्तु के सच्चे ज्ञान से है। सम्यक् चरित्र का बोध अच्छे व्यवहार से लेना चाहिए। सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र एक साथ ही होते हैं। एक के बिना दूसरा सम्भव नहीं है। इन तीनों की प्राप्ति पर ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। इन सब उपदेशों में निहित शैक्षिक विचार स्पष्ट हैं।
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जैन धर्म में तपस्या पर विशेष बल दिया गया है। किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तपस्या अर्थात् कठिन प्रयास अत्यन्त आवश्यक है। आजकल के शिक्षा केन्द्रों में विद्यार्थीगण कठिन कार्य से घबड़ाते हैं। फलतः वे येन-केन-प्रकारेण परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाने के प्रयास में रहते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी विषय का गहन अध्ययन न करके केवल उसके सतही ज्ञान पर चलते रहते हैं। फलतः शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। यदि जैन मुनियों द्वारा की गई तपस्या का आदर्श आजकल के विद्यार्थियों के सामने रखा जाय तो उन्हें यह विश्वास हो सकता है कि किसी आदर्श की प्राप्ति हेतु ऐसी घोर तपस्या आवश्यक होती है। तपस्या का आधार सदाचार होना चाहिए। सदाचार में पाँच प्रमुख बातों जैसे-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर विशेष बल दिया गया है। अस्तेय का अर्थ चोरी न करने से है और अपरिग्रह का तात्पर्य वस्तुओं के संकलन के अभाव से है।
जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित इन पाँचों आदर्शों के आधार पर हम ऐसी शैक्षिक विचारधारा का प्रसार कर सकते हैं जिसके कार्यान्वयन के फलस्वरूप आज के समाज में व्याप्त हिंसा, असत्य भाषण चोरी अर्थात् दूसरों के हक को मारने, ब्रह्मचर्य व्रत का उल्लंघन तथा धन एकत्रीकरण की कुचेष्टा आदि के प्रति विद्यार्थियों में हम घृणा पैदा कर सकते हैं। इन सब बुरी बातों के विरुद्ध यदि हम उनमें घृणा उत्पन्न कर सकें तो समाज का उत्थान कर सकें तो समाज का उत्थान होगा और यह भूमि भी स्वर्ग की तरह रमणीय हो जायेगी।
जैन धर्म मीठे और न्याय के अनुसार वचन बोलने तथा क्रोध, अभियान और कपट आदि को मन में न लाने पर बल देता है। सब प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखने, अपने से बड़ों के प्रति समुचित सम्मान देना, दीन-दुखियों की सहायता हेतु सदैव तत्पर रहना तथा अपने से विरोधी स्वभाव से एकदम तटस्थ रहना आदि जैन धर्म के प्रमुख उपदेशों में से हैं। जैन धर्म सम्यक दर्शन, सच्चे ज्ञान और सच्चे सिद्धान्त की ओर संकेत करता है। सम्यक ज्ञान को तात्पर्य किसी वस्तु के सच्चे ज्ञान से है। सम्यक् चरित्र का बोध अच्छे व्यवहार से लेना चाहिए। सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र एक साथ ही होते हैं। एक के बिना दूसरा सम्भव नहीं है। इन तीनों की प्राप्ति पर ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। इन सब उपदेशों में निहित शैक्षिक विचार स्पष्ट हैं।
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जैन दर्शन में जीव का बन्धन (कर्म सिद्धान्त ) ( Work Principle)
भारतीय दर्शन में "जीव के बन्धन" तथा "मोक्ष की व्याख्या विभिन्न मतों के आधार पर की गई है। परन्तु जैन दर्शन के अन्तर्गत "जीव" और "अजीव" (जड़-पुद्गल तथा शरीर) के सम्बन्ध या संयोग को बन्धन माना गया है। जैन दर्शन 'जीव' को चेतन मानता है। जीव में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द रहता है। अपने कर्म के फलस्वरूप अज्ञानता के कारण जीव की इन शक्तियों का लोप हो जाता है और वह (अर्थात् जीव) बन्धन में आ जाता है। यदि व्यक्ति (जीव) को ज्ञान प्राप्त हो जाय तो उसे ये शक्तियाँ पुनः मिल जाती हैं। इन शक्तियों को पुनः प्राप्त हो जाय तो उसे ये शक्तियाँ पुनः मिल जाती हैं और उसका स्वरूप शोभायमान हो जाता है। यहाँ एक उपयुक्त प्रश्न उठता है कि जीवन का पुद्गल (अर्थात् जड़ या शरीर) से संयोग कैसे हो जाता है ? जैन दर्शन के अनुसार यह बन्धन कर्म के कारण होता है। जीव का जब कर्म से सम्बन्ध हो जाता है। तो दोनों की वास्तविक अवस्था बदल जाती है और एक-दूसरे को प्रभावित करता रहता है। राग और द्वेष के फलस्वरूप ही हम विविध कर्म किया करते हैं। जीवन की जो कुछ मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रिया होती है। उसके साथ एक द्रव्य जीव में समाविष्ट हो जाता है। इसके फलस्वरूप जीव उससे बँध जाता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जीवन का कर्म से सम्बन्ध क्यों हुआ ? इस प्रश्न के उत्तर में जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। कर्म करने से राग-द्वेष पैदा होता है और राग-द्वेष से कर्म चलते रहते हैं। कर्म के कारण ही नया जन्म होता रहता है। नये जन्म से शरीर प्राप्त होता है। शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं और इन्द्रियों से विषय-वासना की जागृति होती है। इस प्रकार की जागृति से विविध प्रकार के राग और द्वेष उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार संसार-चक्र चलता रहता और जीव के भावों से कर्मबन्धन और कर्मबन्धन से राग-द्वेष के भाव उत्पन्न होते रहते हैं। कर्म के कारण ही पुद्गल जीव की ओर आकर्षित होते हैं। दूसरे शब्दों में, कर्म ही जीव और पुदगलों के संयोग का कारण है जब जीव का प्रत्येक कार्य राग-द्वेष से रिक्त रहता है, तो जीव कर्मबन्धन में फँस जाता है।जैन दर्शन के अनुसार कर्म का अर्थ कर्म- परिमाणु से है। कर्म- परिमाणु जीव को पुदगलों की ओर खींचते हैं। राग-द्वेष-मोह-मान आदि के फलस्वरूप पुद्गल की ओर जीव आकर्षित होता है। राग-द्वेष-मोह-मान को कषाय की संज्ञा दी गई है। ये कषाय ही बन्धन के प्रमुख कारण होते हैं। जैन दर्शन में जीव-बन्धन के चार प्रधान भागों का उल्लेख है। ये भाग हैं-प्रकृति बन्धन, प्रदेश बन्धन, स्थिति बन्धन और अनुभाग-बन्धन। अनेक प्रकार के कर्म परिमाणुओं के कारण जो स्वभाव बनता है वह प्रकृति-बन्धन है कर्म-पुद्गलों की संख्या का निश्चित होना प्रदेश बन्धन कहा गया है। कर्म-पुद्गलों से जो फल की शक्ति प्राप्त होती है उसे अनुभाग बन्धन माना गया है। स्पष्ट है कि ये चारों प्रकार के बन्धन कर्म से ही उत्पन्न होते हैं। अतएव कर्म को ही बन्धन का कारण माना गया है।
जैन धर्म की यह मान्यता है कि जीव जो कुछ पाता है वह उसके कर्म का ही फल होता है। हमारे शरीर का रंग, आकार, रूप आयु कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय आदि सभी व्यक्ति के कर्म के फलस्वरूप ही प्राप्त होते हैं। कर्म का यह विश्लेषण तथा व्याख्या जैन दर्शन का एक विशिष्ट भाग है। जैन दर्शन के अनुसार, ईश्वर भाग्य का निर्माता नहीं होता। वास्तव में जैन दर्शन ने तो ईश्वर को माना ही नहीं है। व्यक्ति को उसके जीवन में जो कुछ भी प्राप्त होता है वह उसके कर्म के फलस्वरूप ही प्राप्त होता है, न कि ईश्वर की कृपा से व्यक्ति स्वयं कर्म का फल प्राप्त करता है। वह अपने शुभ और अशुभ का स्वयं निर्माता होता है। इस सन्दर्भ में किसी अदृश्य शक्ति का नियन्त्रण नहीं समझना चाहिए। जैन दर्शन कर्मों का दो प्रकार का प्रमुख विभाजन करता है-घाती कर्म और अघाती कर्म घाती कर्म की श्रेणी में ज्ञानावरण. दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय प्रकार के कर्म आते हैं। आयु, गोत्र, नाम और वेदनीय कर्मों का विवरण जैन दर्शन में मिलता है-
(i) ज्ञानावरण वाले-
कारण व्यक्ति कम या अधिक ज्ञान को ढलने वाले कर्म। इस प्रकार के कर्म के ज्ञान का होता है।
(ii) दर्शनावरण वाले-
दर्शन को ढकने वाले। इसके फलस्वरूप दर्शन या सत्य प्रकाशित नहीं होता अर्थात् सत्य का ज्ञान नहीं हो पाता।
(iii) मोहित करने वाले-
(iii) मोहित करने वाले-
वे कर्म जो व्यक्ति को मोहित करते हैं।
(iv) अन्तराय कर्म -
(iv) अन्तराय कर्म -
इसके प्रभाव से व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार फल की प्राप्ति नहीं होती।
(v) वेदनीय-
(v) वेदनीय-
सुख या दुख देने वाला कर्म ।
(vi) आयु कर्म -
(vi) आयु कर्म -
यह जीव के जाने की अवधि निर्धारित करता है।
(vii) नाम-कर्म-
(vii) नाम-कर्म-
अच्छे या बुरे शरीर की प्राप्ति जीव को नाम कर्म के कारण होती है।
(viii) गोत्र-कर्म-
(viii) गोत्र-कर्म-
इसके फलस्वरूप ऊँचे अथवा नीचे कुल में जन्म लेना है।
उपर्युक्त आठों प्रकार के कर्म प्रकृति-बन्धन के अन्तर्गत आते हैं और इन्हीं प्रकार के कर्म- परिमाणुओं के आधार पर मनुष्य का स्वभाव निर्मित होता है।
जैन दर्शन एवं शिक्षा | जैन धर्म का अर्थ | जैन धर्म का जन्म | jain darshan kya hai | jain darshan ka arth | jain darshan in hindi | जैन दर्शन की शिक्षा
उपर्युक्त आठों प्रकार के कर्म प्रकृति-बन्धन के अन्तर्गत आते हैं और इन्हीं प्रकार के कर्म- परिमाणुओं के आधार पर मनुष्य का स्वभाव निर्मित होता है।
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जैन दर्शन में जीव के बन्धन अथवा कर्म सिद्धान्त में निहित शैक्षिक विचार
(Underlying Educational Thoughts in Work Principle) -
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैन दर्शन व्यक्ति के जीवन में कर्म को प्रधानता देता है। (गोस्वामी तुलसीदास ने भी किसी प्रसंग में कहा है कि कर्म-प्रधान विश्व करि राखा, जो जस कीन्ह सो तस फल चाखा ।") इस सिद्धान्त से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति को कर्मशील होना चाहिए अर्थात् अपने उत्थान के लिए उसे विविध प्रकार के सुनियोजित ढंग से अच्छे कार्य करते रहना चाहिए। भाग्य पर निर्भर रहना तो कायरों का कार्य होता है। हमारे भारत देश में व्याप्त गरीबी एक प्रकार से हमारे अकर्मण्यता का ही सूचक है। अनेक लोग हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं और अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। आज के सभी अग्रगण्य देशों में शिक्षा रोजगारपरक बनाई गई है। यदि हमारी भारतीय शिक्षा भी रोजगारपरक हो जाय तो धीरे-धीरे देश की गरीबी दूर हो जायेगी। हमारे बहुत से नवयुवक बेकारी के कारण ही कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने चले आते हैं, यह सोचकर कि कम से कम 4 या 6 वर्ष तो इस प्रकार बीत जायेंगे। इस प्रकार शिक्षा प्राप्त कर लेने पर उन्हें बेकारी का सामना करना होता है, वे अकर्मण्य हो जाते हैं। स्पष्ट है कि उनकी शिक्षा उन्हें कर्मठ बनाने में असफल रही है। तो आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से कैसे सम्बन्धित किया जाय जिससे पढ़-लिख कर व्यक्ति कर्मठ बन सके और अपने भाग्य को न कोसे। हर्ष का विषय हैं कि अब शिक्षा को रोजगारपरक बनाने के लिए देश में जागृति प्रारम्भ की गई है। यदि इस जागृति को अच्छी प्रकार कार्यान्वित किया जा सके तो हमारे अधिकांश नवयुवक भाग्यवादी के स्थान पर कर्मवादी बनकर अपनी तथा साथ ही देश की समृद्धि में भारी योगदान करेंगे। कहना न होगा कि कर्म-सम्बन्धी जैन-धर्म का सिद्धान्त शिक्षा के एक महान आदर्श की ओर स्पष्टतः संकेत करता है।
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जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवस्था में परमानन्द की प्राप्ति होती है और व्यक्ति सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पा लेता है। इस छुटकारा की प्राप्ति के बाद मुक्त आत्मा को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है। पूर्ण ज्ञान की यह अवस्था अनन्त ज्ञान से परिपूर्ण होती है।
मोक्ष के साधन-
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जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की कल्पना (Liberation)
जैन दर्शन के अनुसार, आत्मा और शरीर का वियोग या दूसरे शब्दों में 'जीव' और अजीव (पुद्गल या जड़) का सम्बन्ध-विच्छेद मोक्ष है। पुद्गलों (जड़ वस्तुओं) के संयोग से कर्म होता है और पुद्गलों से वियोग, जीव के कार्यों पर ही निर्भर है। यदि इस प्रकार के कर्मों से व्यक्ति का छुटकारा हो जाता है तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जीव और पुद्गलों का वियोग कैसे होता है ? इसके लिए दो बातें होनी चाहिए-नये पुद्गलों (जड़ वस्तुओं) को आश्रय देना बन्द कर दिया जाय और पुराने पुद्गलों का विनाश हो जाय। इन दोनों प्रक्रियाओं को क्रमशः संवर और निर्जरा की संज्ञा दी गई है। संवर का तात्पर्य "रोकने से है। इस 'रोकने का अर्थ यह हुआ कि जिन रास्तों से कर्म का विकास होता है उन्हें अवरुद्ध कर दिया जाय। संवर का अर्थ रक्षा करना या गुप्ति से है। मन, वचन और कर्म से क्रियाओं को रोकना गुप्ति हैं। मानसिक और शारीरिक क्रियाओं पर नियन्त्रण प्राप्त करने से गुप्ति या संवर सम्भव हो सकता है। गुप्ति में व्यक्ति सफल हो गया है तो उसमें नये पुद्गल या जड़-सम्बन्धी सांसारिक संस्कार एकत्रित नहीं होंगे। यदि व्यक्ति ऐसा करने में सफल होता है तो उसके पुराने पुद्गलों अर्थात सांसारिक (जड़-सम्बन्धी) संस्कारों का क्रमशः विनाश होता जायेगा। निर्जरा दो तरह की होती है-अविपाक और सविपाक । यदि व्यक्ति अपनी तपस्या के आधार पर अपने कर्मों का फल समाप्त करता है तो उसे अविपाक कहते हैं और स्वाभाविक ढंग से कर्मों के फलों का नष्ट हो जाना सविपाक निर्जर कहा जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार संवर और निर्जरा के फलस्वरूप सभी कर्मों अर्थात कर्मफलों को समाप्त कर देना मोक्ष है। मोक्ष प्राप्त हो जाने पर जीव और अजीव (पुद्गल) का सम्बन्ध एकदम टूट जाता है। इस सम्बन्ध के टूटने पर जीव अपने में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य का अनुभव करने लगता है और वह सिद्ध-लोक में अविस्थित हो जाता है। सिद्ध-लोक में इस प्रकार अवस्थित होने को "सिद्धशिला की प्राप्ति कहा गया है।जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवस्था में परमानन्द की प्राप्ति होती है और व्यक्ति सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पा लेता है। इस छुटकारा की प्राप्ति के बाद मुक्त आत्मा को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है। पूर्ण ज्ञान की यह अवस्था अनन्त ज्ञान से परिपूर्ण होती है।
मोक्ष के साधन-
जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के लिए पाँच प्रमुख साधनों को अनिवार्य बताया गया है। ये पाँच साधन इस प्रकार हैं-
(i) अहिंसा - मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे पर आघात न करना ।
(ii) अमृत त्याग अथवा असत्य का त्याग झूठ न बोलना ।
(iii) अस्तेय चोरी न करना ।
(iv) ब्रह्मचर्य पालन-काम वासनाओं का त्याग ।
(v) अपरिग्रह- सांसारिक वस्तुओं का संग्रह न करना ।
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(i) अहिंसा - मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे पर आघात न करना ।
(ii) अमृत त्याग अथवा असत्य का त्याग झूठ न बोलना ।
(iii) अस्तेय चोरी न करना ।
(iv) ब्रह्मचर्य पालन-काम वासनाओं का त्याग ।
(v) अपरिग्रह- सांसारिक वस्तुओं का संग्रह न करना ।
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मोक्ष-सम्बन्धित जैन दर्शन में निहित शैक्षिक विचार-
मोक्ष-सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों में निहित शैक्षिक विचारों का समझना कठिन नहीं है। वस्तुतः एक प्रकार से यह भी कहा जा सकता है कि शिक्षा प्राप्त करने का परम लक्ष्य ही मोक्ष प्राप्त करना है। इस अर्थ में "मोक्ष" और "शिक्षा" दोनों पर्याय हो जाते हैं। सांसारिक वस्तुओं से मोह न करके अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति और वीर्य का प्राप्त करना ही मोक्ष है। यदि हमें सांसारिक वस्तुओं से मोह नहीं रहेगा तो हमारी व्यर्थ की अनेक लिप्साओं का स्वतः लोप हो जायेगा। जब हम सिद्धि की अवस्था की प्राप्ति की ओर उन्मुख होंगे। इस उन्मुखता के फलस्वरूप हमारा सारा कार्य ही दूसरों के हित के लिए ही नियोजित होगा। यदि ऐसा हुआ तो यह पृथ्वी सभी प्राणियों के लिए स्वर्गसमान सुखदायी हो जायेगी। मोक्ष की प्राप्ति हेतु जिन उपर्युक्त पाँच साधनों-अहिंसा, असत्य का त्याग, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्रतिपादन किया गया है वे शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी प्रमुख साधन माने जा सकते हैं ।
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