भारतीय दर्शन | दर्शन का अर्थ | दर्शन की परिभाषा | दर्शन प्रणालियाँ

भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय

[A BRIEF INTRODUCTION OF INDIAN PHILOSOPHIES]

भारतीय दर्शन का स्वरूप

(NATURE OF INDIAN PHILOSOPHY)

दर्शन का अर्थ (Meaning of Philosophy)


मानव जीवन स्वयं एक दर्शन है। संसार का प्रत्येक मानव दार्शनिक है। क्योंकि वह जन्म से मृत्यु तक घटित होने वाली सभी घटनाओं को उत्सुकता एवं कौतूहल से देखता है। अपने नवीन अनुभवों से नीति एवं नियमों का आविष्कार करता है। प्रत्येक नई बात तक पहुँचना उसका स्वभाव है। नई परिस्थितियों में निष्कर्ष निकाले बिना मनुष्य को शान्ति नहीं मिल सकती तभी तो वह जन्मजात दार्शनिक है। उसका जीवन दर्शन की खुली पुस्तक है। वह सत्य का ग्राहक है, तथ्य का अन्वेषक है। शुकरात ने सत्य ही कहा है जो पूर्ण सच्चाई का अभिलाषी हो वास्तविक दर्शन वही है।
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कुछ दार्शनिकों का विचार है कि प्राकृतिक या बौद्धिक अथवा अध्यात्मिक जगत् के तत्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं वे ज्ञानेन्द्रियों की सीमा से परे हैं इसलिये दर्शन शब्द का अर्थ ज्ञान प्राप्त करने से लगाना उपयुक्त है। दर्शन शब्द का प्रयोग किस समय से प्रारम्भ हुआ यह कहना कठिन है। इशोपनिषद शुक्ल यजुर्वेद संहिता के चालीसवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में दृश्ये शब्द आया है

डॉ० भगवान दास अपनी पुस्तक "दर्शन का प्रयोजन" में इसे ही दर्शन शब्द का प्रथम प्रयोग देखने के अर्थ में स्वीकार करते हैं। दर्शन शब्द भातीय संस्कृति में सदैव एक शास्त्र के रूप में ग्रहण किया गया है। जैसे-षड्दर्शन, सर्वदर्शन, संग्रह आदि । प्रसिद्ध षड्दर्शन में पतंजलि के योगसूत्रों पर व्यास द्वारा निर्मित भाष्य और सांख्य के प्रवक्ता पंचशिखाचाय के एक सूत्र का उद्धरण दिया गया है। "एकमेव दर्शनम्, ख्यातिरेव दर्शनम्। टीकाकारों के अनुसार इसका अर्थ है ज्ञान ही एक मात्र सच्चा अंतिम दर्शन है।
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दर्शन का प्रारम्भ ( Origin of Philosophy)


प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का कोई न कोई दर्शन अवश्य होता है। चाहे व्यक्ति को उसके सम्बन्ध में चेतना हो या न हो। जैसा कि हक्सले लिखता है-

सभी लोग अपने जीवन-दर्शन के अनुरूप अर्थात् जगत के सम्बन्ध में अपनी धारणा के अनुसार जीवन बिताते हैं यह बात चिन्तन शून्य लोगों के लिये भी सही है। तत्वज्ञान के बिना जीवन असम्भव है। तत्व चिन्तन अथवा तत्व चिन्तन शून्यता के बीच हमारे पास कोई विकल्प नहीं है अपितु विकल्प केवल सुतत्वचिन्तन और कुतत्वचिन्तन के बीच है।

भारत के दर्शन का उद्गम असन्तोष या अतृप्ति से माना जाता है। व्यक्ति वर्तमान से असन्तुष्ट होकर श्रेष्ठतर की खोज करना चाहता है। यही खोज दार्शनिक गवेषणा कहलाती है। इस प्रकार उपर्युक्त व्याख्या से यह देखने में आता है कि भारतीय दर्शन में निरन्तर प्राकृतिक व्यक्तियां, वस्तुओं एवं उनके लक्ष्यों और उद्देश्यों के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। ईश्वर जगत् और आत्मा के रहस्यों और उनके सम्बन्धों आदि पर भी प्रकाश डाला जाता है।
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भारतीय दर्शन की परिभाषा

(DEFINITION OF INDIAN PHILOSOPHY)

भारतीय दर्शन की परिभाषा हम इन शब्दों में कर सकते हैं। दर्शन सुव्यवस्थित ढंग से अनवरत चिन्तन करने की एक कला है। इसमें मानव जीवन से सम्बन्धित समग्र वस्तुओं पर तार्किक दृष्टि से विचार किया जाता है। साथ ही पारलौकिक जगत् और इहलौकिक जगत् का सम्बन्ध एवं उनके रहस्यों की व्याख्या आदि पर विचार किया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि शाश्वत समस्याओं का चिन्तन ही दर्शन है और जो इन समस्याओं पर गहनता पूर्वक विचार करते हैं वे दार्शनिक हैं। भारतीय दर्शन में चिन्तन-मनन के साथ-साथ वेदों को प्रधान स्थान दिया गया है। वेदों की प्रधानता का अर्थ यह है कि ऋषियों का तर्कातीत साक्षात् अनुभूतियों को प्रमाण मानना ।
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भारतीय दर्शन प्रणालियाँ

(SYSTEMS OF INDIAN PHILOSOPHY)

भारतीय दर्शन को प्रायः दो भागों में विभक्त किया जाता है-

1. आस्तिक दर्शन

2. नास्तिक दर्शन

आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी नहीं है। इनको आस्तिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये वेदों की सत्ता मानते हैं।

नास्तिक दर्शन वेदों की सत्ता नहीं मानते। 
नास्तिक दर्शन तीन हैं— 
(1) चार्वाक 
(2) बौद्ध तथा 
(3) जैन 
आस्तिक दर्शन मुख्य रूप से छह हैं- 
(1) सांख्य 
(2) योग 
(3) न्याय 
(4) वैशेषिक 
(5) पूर्व मीमांसा तथा 
(6) उत्तर मीमांसा । 
इन्हें षड्दर्शन भी कहा जाता है।

भारतीय दर्शन के इस विभाग को नीचे दर्शाया गया है-
भारतीय दर्शन
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अब हम भारतीय दर्शनों का सामान्य परिचय प्राप्त करेंगे-

चार्वाक दर्शन

(CHARVAK PHILOSOPHY )

नास्तिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन प्राचीनतम कहा जा सकता है। चार्वाक चेतना को शरीर से ही उत्पन्न मानते हैं। ये चैतन्य शरीर को ही आत्मा मानते हैं ईश्वर के अस्तित्व को ये नकारते हैं। अजर अमर आत्मा को ये नहीं मानते।

जगत् को ये वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी से निर्मित मानते हैं। संकल्प की स्वतन्त्रता को ये नहीं मानते। पुद्गल को ये परमतत्व मानते हैं तथा जगत् को यान्त्रिक मानते हैं। इस प्रकार यह दर्शन भौतिकवादी है |

चार्वाक दर्शन के अनुसार केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। किसी अन्य प्रकार के ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं की जा सकती। हम बहुत सा काम अनुमान से करते हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि अनुमान ज्ञानप्राप्ति का प्रामाणिक साधन है। अनुमान व्याप्ति पर आधारित होता है और व्याप्ति बनाना असम्भव है क्योंकि सभी स्थितियों का निश्चित ज्ञान नहीं होता। गलत व्याप्ति के आधार पर गलत अनुमान लगाया जाता है अतः अनुमान सम्भव नहीं है। जगत् का कोई कारण नहीं अतः अनुमान की विशेष आवश्यकता नहीं है। कुछ अनुमान सत्य निकल सकते हैं किन्तु यह आकस्मिक संयोग है।

जीवन का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति है। यह दर्शन परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास नहीं करता और सांसारिक सुखों को ही प्रधानता देता है।
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बौद्ध दर्शन

(BUDDHIST PHILOSOPHY)

गौतम बुद्ध के उपदेशों से बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति हुई है। सिद्धार्थ जरा मरण तथा रोग के दयनीय दृश्यों को देखकर द्रवित हुए थे और तप एवं ज्ञान के द्वारा उन्होंने परम सत्य को जाना, बुद्ध बने और अपने धर्म तथा दर्शन का उपदेश दिया।

बौद्ध दर्शन के अनुसार चार आर्यसत्य हैं- 
1. दुःख अर्थात् संसार दुःख से परिपूर्ण है। 

2. दुःख समुदाय अर्थात् दुःख के कारण है ।

3. दुःख निरोध, अर्थात् दुःख का नाश सम्भव है।

4. दुःख निरोध मार्ग, अर्थात् दुःख का निरोध करने के लिए एक सुनिश्चित मार्ग है।

दुःख निरोध से निर्वाण प्राप्त होता है। निर्वाण प्राप्ति के लिए अथवा दुःख निरोध के लिए बुद्ध ने जिस मार्ग का प्रतिपादन किया है उसको अष्टमार्ग कहते हैं जो निम्नलिखित आठ तत्वों से बना है-

1. सम्यक दृष्टि

2. सम्यक संकल्प

3. सम्यक् वाक् 

4. सम्यक कर्मान्त 

5. सम्यक आजीव

6. सम्यक व्यायाम

7. सम्यक स्मृति

8 सम्यक समाधि

उपर्युक्त आठ साधन अविद्या तथा तृष्णा का नाश करते हैं और पुनर्जन्म की सम्भावना नहीं रहती। ऐसी दशा को निर्वाण कहा गया है।

भौतिक या आध्यात्मिक जितनी भी घटनाएँ होती उन सबका कारण होता है। बिना किसी कारण के कोई घटना घटित नहीं हो सकती। इसे ही बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद्य कहा गया है। प्राचीन बौद्ध दर्शन में नित्य आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार किया गया है। आत्मा विज्ञानों के प्रवाह का संघात मात्र है। निर्वाण से पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है। कालान्तर में बौद्धदर्शन के निम्नलिखित चार सम्प्रदाय बन गये-

1. माध्यमिक मत का शून्यवाद । संसार शून्य है |

2. योगाचार या विज्ञानवाद । जो वस्तु बाहर दिखाई पड़ती है वह चित्त की प्रतीति मात्र है।

3. सौत्रांतिक मत । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों सत्य हैं। मन से बाह्य चित्त की प्रतीति मात्र है।

4. वैभाषिक मत। हम बाह्य वस्तु को ही पहले देखते हैं। यह बाह्य प्रत्यक्षवाद भी कहा जाता है।

बौद्ध दर्शन ने भारतीय विचारधारा को कालान्तर में बहुत प्रभावित किया ।
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जैन दर्शन

(JAIN PHILOSOPHY )

जैन दर्शन के अनुसार वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। केवल अपने ज्ञात धर्म के विषय में हठ करना मिथ्या है। काल के योग से वस्तु की अनन्तता में वृद्धि हो जाती है। पूर्णज्ञान मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। केवल केवली (सर्वज्ञ) ही समस्त ज्ञान रख सकता है।

सत्य सदा सापेक्ष है। वह निरपेक्ष नहीं होता। हमें वस्तुओं का आंशिक ज्ञान होता है। इसे "नय" कहा गया है। हमारा ज्ञान सभी दृष्टियों से सच नहीं हो सकता। अतः जैन दर्शन में सत्य को कहने के लिए शायद । (स्यात्) लगा दिया जाता है। इसे स्यादवाद कहा गया है। सत्य को सात प्रकार से "नय" से कहा जाता है। यह सप्तभंगी नय कहा गया है जो निम्नलिखित हैं-

1. स्यादस्ति शायद है। विधायक रूप ।

2. स्याद् नास्ति । शायद नहीं है। प्रतिपेषात्मक नय ।

3. स्यास्ति च नास्ति च । शायद है अथवा नहीं है। संयुक्त परामर्श ।

4. स्याद् अवक्तव्यम् । शायद अनिर्वचनीय है।

5. स्यादस्ति च अवक्तव्यम् च। शायद है और अवक्तव्य भी है। प्रथम एवं चतुर्थ का संयोग ।

6. स्याद् नास्ति अवक्तव्यम् च । शायद नहीं है और अनिर्वचनीय भी है। दूसरे तथा चौथे का संयोग ।

7. स्याद् अस्ति च स्याद् नास्ति च स्याद अवक्तव्यम् च। शायद हैं, नहीं और अनिर्वचनीय भी है। तीसरे तथा चौथे का संयोग ।

इस प्रकार हम देख रहे हैं कि जैन दर्शन में परामर्श के सात रूप है। प्रत्येक नय के साथ स्यात् जोड़ दिया गया है जो आशिकता को प्रकट करता है। जैन दर्शन अत्यधिक उदार है। इसके अनुसार जीवन सर्वव्यापी नहीं है। इसके भेद हैं। इसका गुण चेतना है। आत्मा का स्वरूप चैतन्य है। यह स्वयं प्रकाशित है और दूसरे को भी प्रकाशित करता है। आत्मा नित्य है। आत्मा के अस्तित्व को जैन दर्शन में स्वीकार किया गया है।
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न्याय दर्शन

न्याय-वैशेषिक


भारतीय दर्शन में तर्क शास्त्र के लिए न्याय - शास्त्र शब्द का प्रयोग किया जाता है। न्याय' शब्द का एक अर्थ उचित' अथवा 'वांछनीय' भी होता है। न्याय दर्शन में प्रधानतः शुद्ध विचार के नियमों तथा तत्व ज्ञान प्राप्त करने के उपायों का वर्णन किया गया है। न्याय के अध्ययन से युक्ति-युक्त विचार करने तथा आलोचनात्मक दृष्टि से सोचने-समझने की शक्ति बढ़ती है।

न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे, जो अक्षपाद के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इसी कारण न्याय शास्त्र को अक्षपाद-दर्शन भी कहा जाता है।

अन्य भारतीय दर्शनों के समान न्याय दर्शन में भी दर्शन के विभिन्न पक्षों का सांगोपांग वर्णन मिलता है, परन्तु न्याय का प्रमुख योगदान ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में है। न्याय दर्शन के प्रमुख विषय "ज्ञान" "ज्ञान प्राप्ति के साधन तथा "प्रक्रिया हैं।

न्याय दर्शन के अनुसार बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर नहीं रहता, अर्थात् वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतन्त्र रहता है। मानसिक भावों का जैसे- हर्ष, विषाद, भय, क्रोध आदि भावों का अस्तित्व मन पर निर्भर करता है। जब तक मन उसकी अनुभूति नहीं कर लेता तब तक उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता, परन्तु कुर्सी, मेज, कलम आदि बाह्य पदार्थ हमारे मन पर निर्भर नहीं है। हमें उनके बारे में कोई ज्ञान न हो तब भी उसका अस्तित्व रहेगा।

न्याय दर्शन का मत पूर्व जन्म की ओर भी झुका हुआ है और उनका कहना है कि बालक जब जन्म के समय अपने मुख से हर्ष व विषाद प्रकट करता है तो वह भावना उसके पूर्व जन्म की स्मृति के फलस्वरूप ही है। वह विश्व में अलग-अलग स्तर पर सुख-दुःख आदि भोगता है।

न्याय दर्शन के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया में चार तत्व होते हैं-प्रमाता, प्रमेय प्रमाण तथा प्रमिति । प्रमाता ज्ञान प्राप्त करने की सामर्थ्य रखने वाले जिज्ञासु अथवा शिक्षार्थी को कहते हैं। प्रमेय ज्ञेय-विषय अथवा जिस विषय का अध्ययन करना है, उसे कहते हैं। प्रमाण उस साधन को कहते हैं, जिसके माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। प्रमिति उस यथार्थ ज्ञान को कहते हैं, जो निश्चित तथा त्रुटिरहित होता है। पदार्थों का स्पष्ट प्रकटीकरण ही ज्ञान कहलाता है।

प्रमाण- शास्त्र न केवल पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक होता है, बल्कि ज्ञान की वैधता का परीक्षण करने में भी सहायक होता है। न्याय- शास्त्र की मान्यता है कि हमारे मस्तिष्क में जगत् का ज्ञान जिस रूप में प्रकट होता है. वह अधिकांश विश्वसनीय होता है। सभी प्रकार का ज्ञान यथार्थ को प्रदर्शित करता है। हमारे शरीर की प्राकृतिक रचना इस प्रकार की है कि हम इन्द्रियों द्वारा पदार्थों का बोध करते हैं, उनकी समानता को ध्यान में लाते हैं और इस प्रकार अनुमान द्वारा एक विशेष परिणाम में पहुँचते हैं। जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ स्वस्थ तथा संवेदनशील हैं और जिसमें सोचने की शक्ति है, वह उपर्युक्त क्रिया सम्पन्न कर सकता है। जब कभी हमारे मन में पदार्थ की यथार्थता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आकांक्षा होती है. तो हमें तार्किक आलोचना के लिए एक विषय मिलता है। यथार्थ के अन्वेषण का कार्य तो मानव कार्य-कलापों में पहले से ही विद्यमान रहता है, न्याय-शास्त्र उसे उत्पन्न नहीं कर सकता. परन्तु तर्क शास्त्र वह वैज्ञानिक विधि है, जिसके माध्यम से यथार्थ का पता अधिक संगत तथा प्रभावोत्पादक ढंग से लगाया जा सकता है।

न्याय - शास्त्री यह मानता है कि तथ्य एवं मूल्य पृथक्-पृथक् नहीं हैं तथा जो विधि तथ्यों का पता लगाने के लिए प्रयुक्त की जाती है, वही विधि मूल्यों के अन्वेषण के लिए प्रयुक्त की जाती है। न्याय शास्त्र के अनुसार मूल्य तथ्यों के साथ जुड़े हुए हैं और उनका अध्ययन तथ्यों के साथ हो सकता है। न्याय दर्शन के अनुसार हमारे अपने निजी अनुभव तथा संस्कारों तथा परम्पराओं के आधार पर संसार के विषय में ज्ञान हमारे कोष में पहले से विद्यमान रहता है। न्याय नवीन ज्ञान प्रदान नहीं करता, अपितु उन भिन्न-भिन्न उपायों का वर्गीकरण करता है, जिनके द्वारा हमें पदार्थ सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। वे उपाय प्रमाण के रूप में हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) प्रत्यक्ष,

(ii) अनुमान, 

(iii) उपमान,

(iv) शब्द अर्थात् आप्त प्रमाण ।
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वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं जिनका वास्तविक नाम उलूक था। इसमें विशेष की विशेष व्याख्या की गई है इसलिए इसे वैशेषिक दर्शन कहा जाता है। प्रकृति के दर्शन का विश्लेषण इसमें विशेष रूप से पाया जाता है। इसमें सात कोटियाँ स्वीकार की गई हैं-

(i) द्रव्य,

(ii) गुण, 

(iii) कर्म.

(iv) सामान्य, 

(v) विशेष,

(vi) समवाय, 

(vii) निषेध ।

वैशेषिक चिन्तन जगत् की वस्तुओं के लिए पदार्थ शब्द का व्यवहार करता है। पदार्थ दो प्रकार के होते हैं-

(i) भाव पदार्थ

(ii) अभाव पदार्थ

भाव पदार्थों के छह भेद माने जाते हैं जिनका उल्लेख ऊपर कोटियों के अन्तर्गत हुआ है। ये हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय अभाव निषेधः है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रत्येक शरीर में आत्मा का निवास है जो स्वयं अविनाशी है। आत्मा एक द्रव्य है जिसका असाधारण गुण चैतन्य है। आत्मा के दो भेद हैं-

(i) जीवात्मा

(ii) परमात्मा ।

जीवात्मा के पाँच सामान्य और नौ विशेष गुण हैं। ये निम्नलिखित हैं-

सामान्य गुण-

(i) संख्या

(ii) परिणाम

(iii) पृथकत्व 

(iv) संयोग

(v) वियोग

विशेष गुण- 
(i) बुद्धि

(ii) सुख

(iii) दुःख

(iv) इच्छा

(v) द्वेष

(vi) प्रयत्न

(vii) भावना

(viii) धर्म

(ix) अधर्म ।

जीवात्मा के मुक्त हो जाने पर विशेष गुण विलुप्त हो जाते हैं किन्तु सामान्य गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। आत्मा नित्य है। यह शरीर से भिन्न है।

वैशेषिक दर्शन में परमात्मा या ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गई है। अधिकतर वैशेषिक दार्शनिकों का मत है कि ईश्वर का शरीर नहीं होता। कुछ के मतों में संसारी जीवों के धर्म अधर्म से ईश्वर का शरीर रूप में अवतार होता है। कुछ के में परमाणु और कुछ के मत में आकाश ही ईश्वर का शरीर हैं।
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सांख्य योग

सांख्य

सांख्य का अर्थ है सम्यक ख्याति या यथार्थ ज्ञान अपने चारों ओर विद्यमान संघर्ष व विभेद को यथार्थ समझने वाले सामान्य जन के संकुचित लौकिक दृष्टिकोण से सर्वथा विपरीत कपिल की यह शिक्षा है कि समस्त पदार्थों का क्षेत्र वस्तुतः सातव्य का एक ऐसा दृश्य है जो अनेकतामय होने पर भी मूलतः समायोजित एकता पर आधारित है। प्रकृति एवं पुरुष के संयोग से ही सष्टि का निर्माण होता है। प्रकृति और पुरुष दो स्वाधीन सत्ताएँ हैं परन्तु उनमें संयोग की क्षमता है। इसी संयोग के कारण प्रकृति के गुणों का सामंजस्य दृढता है और विकास का आरम्भ होता है।

यह प्रकृति एक प्रकार का अविकसित व अदृश्य जगन्मूलक अव्यक्त है। वास्तविक रूप से वह मौलिक पदार्थ तीन गुणों (सत्, रजस, तमस) की समाविष्ट से निर्मित एक जड़ तत्व है। प्रकृति के मूल में स्थित यह तीन गुण वस्तुतः अगणित सक्रिय तत्वों के समुदाय हैं जो स्वयं को आन्तरिक व बाह्य जगत् के दुःख सुख, मोह, प्रकाश प्रवृत्ति नियमन तथा उत्साह, गति और जड़ता के रूप में प्रकट करते हैं। इस प्रकार सृष्टि के भौतिक व मानसिक दोनों ही स्वरूप इस प्रकृति तत्व के ही विकसित तत्व के व्यक्त रूप हैं। प्रकृति निश्चल और आविर्भूत दो अवस्थाओं में रहती है। निश्चल दशा में तीनों अंग भूत गुणों की समाष्टि व्यवस्था में रहती है परन्तु जगदाविर्भाव की स्थिति में यह तीनों गुण वैषम्यावस्था को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह तीनों गुणों से परस्पर संघर्ष करते हैं, सहयोग करते हैं तथा प्रधानता की प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं ।

सांख्य दर्शन का पुरुष- अतीन्द्रिय चेतन तत्व इस बाह्य जगत् का साक्षी होता है। यह पुरुष मूल रूप में अमूर्त, चेतन, नित्य, सर्वगत, अकत्ती, निर्गुण, सूक्ष्म आदि विशेषताओं से युक्त है। सांख्य दर्शन का यह पुरुष ही अन्य दर्शनों की आत्मा है। सांख्य पुरुष भी अनेकता में विश्वास करता है।

सांख्य का पुरुष (विशुद्ध चेतन तत्व) निष्क्रिय एवं प्रकृति । (जड़) पुरुष के संयोग से सक्रिय है। दोनों के संयोग से प्रतिझलित होता है। कपिल के मत से प्रत्येक जीव एक लघु तत्व समष्टि है जिसका नियन्ता पुरुष और नियन्त्रित पूरक तत्वों में प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 तन्मात्राएँ और पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) नामक तत्व परिगणित होते हैं। इस सबसे सम्बद्ध जागतिक समष्टि है। पर उस व्यष्टि से समष्टि के साथ अन्योन्यारुपरता पर अधिक जोर नहीं दिया गया है। सांख्य में 25 तत्वों का वर्णन मिलता है उसी प्रकार योग दर्शन में "ईश्वर तत्व और समाहित होता है। अतः योग दर्शन में 26 तत्व माने गये हैं।

सांख्य दर्शन में ज्ञान पाँच प्रकार का माना गया है-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प. निद्रा व स्मृति । प्रमाण, प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द तीन हैं। इसी को कपिल प्रभा अर्थात् यथार्थ ज्ञान के साधन भूत तीन प्रमाण कहते हैं जिसमें दूसरे प्रमाण (अनुमान) के द्वारा प्रकृति की सत्ता सिद्ध होती है।

मानव व उसकी नियति सांख्य द्वारा वर्णित पुरुष ही जग शरीर, मन, इन्द्रिय आदि से बद्ध होता है तब वह जीव कहलाता है। प्रत्येक जीव का एक स्थूल शरीर होता है जो मृत्यु के समय नष्ट हो जाता है। मानव शरीर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है जिसके साथ (मानव शरीर स्थूल शरीर के साथ) जीवात्मा पुनर्जन्म लेती है। किसी भी जीवन में प्रत्येक "पुरुष" का जीवन चरित्र उन मानसिक व शारीरिक गुणों के मिश्रित विकास से आरम्भ होता है जिनके कारण वह शरीर धारण करता है।
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योग दर्शन

सांख्य दर्शन सृष्टि के विकास हेतु तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग के लिए ईश्वर की धारणा को आवश्यक नहीं मानता है। योग यहाँ सांख्य से भिन्न हो जाता है। वह आस्तिक है। उसका विश्वास, पुरुष एवं प्रकृति से ऊपर उठकर ईश्वर जैसी परम शक्ति तक पहुँच जाता है।

शुद्ध एवं अविनाशी आत्मा के रूप में स्वयं का आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा. द्वारा बोध प्राप्त कर लेना अथवा अपने शुद्ध अविनाशी स्वरूप से आत्म-साक्षात्कार कर लेना ही मोक्ष का एक मात्र उपाय है। आत्मिक सत्य की प्रतीति अथवा अन्तः अनुभूति तब तक नहीं हो सकती जब तक कोई व्यक्ति अशुद्ध एवं अशुभ विचारों से लिप्त है। शुद्धता के पश्चात् ही मोक्ष के लिए आत्म-साक्षात्कार की साधना सम्भव है। इस साधना अथवा योग-साधना के लिए योग-दर्शन द्वारा आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें योगांग कहा गया है। इन योगांगो के पूर्ण अभ्यास से मनुष्य योगी की स्थिति में आ जाता है और योगी शुद्ध तथा तीव्र अन्तर्दृष्टि वाला व्यक्ति होता है। यह सत्य का अनुभव करता है, वह शुद्ध आत्मा के स्वरूप को पहचान लेता है। इस प्रकार, योगी मोक्ष का अधिकारी होता है। वे आठ योगांग जो योग-साधना में सहायक हैं. निम्नलिखित हैं-

(i) यम 

(ii) नियम

(iii) आसन

(iv) प्राणायाम

(v) प्रत्याहार

(vi) ध्यान

इनका अभ्यास व्यक्ति को सांसारिक वासना तथा असत् विचारों से दूर एक शुद्ध योगी बना देती है और तभी गत् विचार सम्भव है। अतः मोक्ष के मार्ग पर बढ़ने के लिये अष्टांग-साधना अनिवार्य है।

(i) यम -
 यम के अनुसार, किसी प्राणी को किसी प्रकार का आघात नहीं पहुँचाना चाहिये, मन और वचन से सच बोलना चाहिये, किसी प्रकार की चोरी नहीं करनी चाहिये, अपनी वासनात्मक वृत्तियों पर नियन्त्रण रखना चाहिये तथा दूसरों से अनावश्यक वस्तुएँ दान रूप में भी नहीं लेनी चाहिये। इस प्रकार (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) आस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह ये पाँच यम हैं। ये साधनाएँ योगी के लिये परम आवश्यक हैं अन्यथा वह शुद्ध होकर सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता और समाधिस्थ होकर आत्म साक्षात्कार करना उसके लिये कभी सम्भव नहीं हो सकता। आत्म-शोध के लिए इनका अभ्यास आवश्यक है ।

(ii) नियम-
नियम के अनुसार- (1) शौच, (2) सन्तोष, (3) तपस् (4) स्वाध्याय तथा (5) ईश्वर प्रणिधान की आदतें डाल लेनी चाहिये। शौध अर्थात् शुद्धता बाह्य अथवा शारीरिक और आभ्यांतर अथवा मानसिक होती है। जो कुछ प्राप्त हो सके उसी से तृप्त रहना, यही सन्तोष है। उष्णता तथा शीत के सहन करने की क्षमता उत्पन्न करना तपस् कहलाता है। धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन में संलग्न रहना स्वाध्याय के अन्तर्गत आता है। ईश्वर प्रणिधान के नियम के अनुसार ईश्वर - चिन्तन और उसके प्रति समर्पण योगांग साधना के अन्तर्गत आता है।

(iii) आसन-ध्यानावस्थित होने के लिये शारीरिक बाधाओं से मुक्ति भी आवश्यक है। अतः योग-दर्शन, शरीर को पुष्ट एवं निरोगी रहने के लिए कुछ आसन बताता है। ये योगासन कहलाते हैं। पद्मासन, मयूरासन, भद्रासन, वीरासन आदि कई आसनों का निर्देश योग-दर्शन में किया गया है।

(iv) प्राणायाम-प्राणायाम श्वास- क्रिया के उचित नियन्त्रण से सम्बन्ध रखता हैं। प्राणायाम की पूरक, कुम्भक, रेचक ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। प्राणायाम हृदय को शक्ति देने में लाभदायक होता है।

(v) प्रत्याहार - इन्द्रिय - नियन्त्रण प्रत्याहार कहलाता है। अपनी इन्द्रियों को अनेक वस्तुओं से उद्दीप्त न होने देना और उन्हें अपने मनस् के वशीभूत कर लेने में दशा प्रत्याहारी की दशा है।

साधना के ये पाँच अंग बहिरअंग-साधना कहलाते हैं, क्योंकि वे शरीर और इन्द्रिय नियन्त्रण से सम्बन्ध रखते हैं। इनका अभ्यास शारीरिक साधना के अन्तर्गत है ।

(vi) धारणा - धारणा के अनुसार चित्त पर नियन्त्रण पाने का अभ्यास किया जाता है। चित्त को वांछनीय पदार्थों पर ही केन्द्रित करना धारणा कहलाता है।

(vii) ध्यान- किसी वस्तु पर, निर्वाध ध्यान स्थिर रखना ही योगी की ध्यानावस्था है। ध्यान के एकाग्रीकरण के प्रथम दृष्टि में वस्तु का स्वरूप स्पष्ट हो उठेगा और निर्बाधित रूप से उस पर ध्यान जमे रहने पर वस्तु का वास्तविक स्वरूप प्रत्यक्ष हो जायेगा ।

(viii) समाधि-योग की अन्तिम अवस्था है समाधि । समाधि में मनस् एक पदार्थ पर ध्यान केन्द्रित कर उस पदार्थ से अपने आपको एक कर देता है और अपना स्वत्व खो बैठता है।

धारणा ध्यान और समाधि मनस् के नियन्त्रण एवं मानसिक साधना से सम्बद्ध हैं। अतः इन तीनों को अन्तरंग साधना कहा जाता है। किसी एक पदार्थ पर चित्त को एकाग्र कर उस पर निर्वाध ध्यान किया जाता है और फिर केवल उसी का ज्ञान रह जाने पर समाधि की अवस्था आ जाती है। इस प्रकार ये तीनों एक ही पदार्थ के प्रति होते हैं। इन्हें संयम कहते हैं

योग-साधना से योगी को दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। अणिमा, गणिमा, लघुमा, महिमा आदि सिद्धियाँ उसके वश में होती हैं। वह अनेक हिंसक पशुओं को वश में कर सकता है, इच्छित पदार्थ प्राप्त कर सकता है, देवी-देवताओं से साक्षात्कार कर सकता है, त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा वह अन्तर्ध्यान और प्रकट हो सकता है। पर योग-दर्शन योग के साधकों को इन सिद्धियों के लिये साधना न करने की चेतावनी देता है। उसके अनुसार, योग-साधन का लक्ष्य मोक्ष और सिद्धियों का लोभ संवरण करके मोक्ष प्राप्ति तक अपनी साधना में रत रहना ही योगी का परम धर्म है।
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मीमांसा ( पूर्व एवं उत्तर )

पूर्व-मीमांसा  

जेमिनी द्वारा प्रस्तुत पूर्व मीमांसा दर्शन पूर्ण रूप से वेदों पर आधारित है और

श्रुति वाक्यों में इसका अक्षरशः विश्वास है। पूर्व-मीमांसा आवश्यक रूप से धर्म एवं नीति परायण अधिक है और कारण मानव जीवन से सम्बन्धित धर्म और नैतिकता विधि और निषेध उचित और अनुचित आदि का विषद वर्णन इसमें मिलता है।

मीमांसा दार्शनिकों ने वैसे तो परम शक्ति के रूप में ईश्वर को स्वीकार किया परन्तु उनका विशेष आग्रह बहुदेव वाद की ओर है। अनेक देवों की सत्ता के साथ ही स्वर्ग और नरक की सत्ताओं कर्म नियम, पुनर्जन्म आत्मा का नित्यता आदि में इनका विश्वास है। इस दर्शन के अनुसार-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य परतन्त्रता, शक्ति सादृश्य व संख्या नामक आठ पदार्थ हैं। इनके अनुसार द्रव्य नौ हैं जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, आत्मा, मन, काल और स्थान है। समस्त सृष्टि की रचना इन्हीं द्रव्यों से होती है। मानव जीवन का पुनर्जन्म "अपूर्व सिद्धान्त" के द्वारा नियन्त्रित होता है। यह अपूर्व न्याय वैशेषिक के अदृश्य सिद्धान्त के समान है।
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उत्तर मीमांसा

उत्तर मीमांसा को वेदान्त भी कहा जाता है। वेदान्त का शब्दार्थ है-वेद का अन्त । प्रारम्भ में इस शब्द से उपनिषदों का बोध होता था। पीछे उपनिषदों के आधार पर जिन विचारों का विकास हुआ उनके लिए भी वह शब्द का व्यवहार होने लगा। उपनिषदों को भिन्न-भिन्न अर्थों में वेद का अन्त कहा जा सकता है-

उपनिषद वैदिक युग के अन्तिम साहित्य हैं। वैदिककाल में तीन प्रकार का साहित्य देखने को मिलता है। सबसे पहले वैदिक मंत्र भिन्न-भिन्न संहिताओं (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) में संकलित हैं। तत्पश्चात् ब्राह्मण भाग जिसमें वैदिक कर्मकाण्ड की विवेचना है। अंत में उपनिषद् जिसमें दार्शनिक तथ्यों की आलोचना है।

वेदान्त शब्द का प्रयोग सबसे पहले उपनिषदों में किया गया। उपनिषदों को ही वेद का अन्तिम भाग कहा जाता है। क्योंकि उपनिषदों में वेद के रहस्यमय सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। किन्तु उपनिषदों में विरोध का परिहार करने के लिए वादरायण व्यास ने बह्मसूत्रों की रचना की। इसमें 550 सूत्र हैं और वेदान्त दर्शन का यही आधार है। वेदान्त सार प्रणेता सदानन्द के अनुसार वेदान्त वह शास्त्र है जिसके लिए उपनिषद् ही प्रमाण है। वेदान्त में जितनी बातें कही गई हैं उन सबका आधार उपनिषद हैं।

वे सभी चिन्तन धाराएँ, जिनका उद्गम वेदों से हुआ है वेदान्त के अन्तर्गत आती हैं। भारतीय चिन्तन का चरम उत्कर्ष वेदान्त दर्शन में मिलता है। वेदान्त शाखा के आदि प्रवर्तक शंकराचार्य थे। शंकराचार्य का वेदान्त दर्शन कहलाता है।

शंकराचार्य के अनुसार हम सब मूलतः अनन्त शक्ति के स्रोत हैं, हम दिव्य-दृष्टि सम्पन्न हैं, हम अनन्त ज्ञान से युक्त हैं, परन्तु अविद्या के कारण इस अनन्त ज्ञान दिव्य दृष्टि तथा अनन्त शक्ति को पहचान नहीं पाते तथा अपने को अज्ञानी, सीमित दृष्टि वाले तथा निर्बल पाते हैं। शिक्षा अविद्या से मुक्ति कराती है तथा सद्ज्ञान की ओर प्रेरित करती है, उनमें कोई द्वैतभाव नहीं है। इस दृष्टि में, जो अनेक आत्माएँ प्रतीत होती हैं, वे भी वास्तव में सृष्टि के अन्तराल में बैठकर हम ब्रह्म को नहीं देखते, अपितु अविद्या-जनित भ्रम के कारण यही अज्ञान है कि हम वास्तविक ब्रह्म को न देखकर उसके विकृत रूप को देखते हैं।

मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त करने की तैयारी के रूप में वेदान्त में चार सोपानों का उल्लेख किया गया है-

प्रथम साधन-मुमुक्ष के लिए प्रथम आवश्यकता है नित्य और अनित्य पदार्थों के बीच विवेकपूर्ण भेद कर सकना। इसके अन्तर्गत जगत् और ब्रह्म के बीच भेद, शरीर और आत्मा का भेद, आत्मा और परमात्मा की एकता, साधन और साध्य के बीच अन्तर आदि विवेक का समावेश होता है।

द्वितीय साधन- विवेकपूर्ण ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् तृष्णा का त्याग आवश्यक है। अनेक लौकिक एवं पारलौकिक भोग हैं, जिनकी आकांक्षा मात्र व्यक्ति को असंयमित कर देती हैं और लक्ष्य की ओर बढ़ना कठिन कर देती है। अतः तृतीय साधन लौकिक एवं पारलौकिक भोगों की ओर प्रवृत्त करते हैं।

चतुर्थ साधन- उपर्युक्त तीनों साधनों को प्राप्त करने के बाद साधक को लक्ष्य प्राप्ति के लिए दृढ़ करना चाहिए। बिना संकल्प के अध्यवसाय नहीं होता और अध्यवसाय के अभाव में लक्ष्य प्राप्ति नहीं हो सकती।

वेदान्त में भी अन्य भारतीय दर्शनों के समान विदेह मुक्ति के साथ ही जीवन मुक्ति की कल्पना की गई है। मोक्ष प्राप्त करने के बाद भी शरीर तो रह सकता है. परन्तु मुक्तात्मा अपने आपको शरीर नहीं मानता। ज्ञान प्राप्त हो जाने से यह संसार नष्ट नहीं हो जाता, परन्तु मिथ्या लगने लगता है। संसार की तृष्णाएँ उसे मोहित नहीं करतीं।

मुक्त आत्मा सब प्राणियों में अपना स्वरूप देखती है। अतः वह किसी के साथ भेद-भाव नहीं कर सकता। जगत् के प्रलोभन उसे प्रवंचित नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें वह मिथ्या समझ लेता है।
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भारतीय दर्शन की मूलभूत विशेषताएँ 

(Basic Specialities of Indian Philosophy)

अब तक हम लोगों ने भारतीय दर्शनों के विषय में अनके दृष्टि से विचार किया है। सभी दर्शनों का अवलोकन करने के पश्चात् हम कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं और भारतीय दर्शन की मूलभूत विशेषताओं से परिचय प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय दर्शनों में कुछ मूलभूत समस्याओं पर विचार किया गया है। इन समस्याओं का संकेत भी इसकी मूल विशेषताओं में मिलता है। इन मूलभूत विशेषताओं के नीचे संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है-

(i) आत्मा का अस्तित्व - भारत के सभी आस्तिक अर्थात् आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं यद्यपि उसके स्वरूप के विषय में उनमें मतभेद है।

(ii) जगत् का अस्तित्व- सभी ने जगत् के अस्तित्व को स्वीकार किया है | जगत् वास्तविक है। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अनुसार संसार निरपेक्ष दृष्टिकोण से मिथ्या है किन्तु व्यावहारिक रूप से उन्होंने भी इसकी सत्ता स्वीकार की है। बौद्धों के कुछ सम्प्रदाय भी संसार की सत्ता व्यावहारिक ही मानते हैं।

(iii) संसार की दुःखमयता-अधिकतर दार्शनिक संसार को दुःखमय मानते हैं, इसीलिये कुछ आलोचक भारतीय दर्शन को निराशावादी मानते हैं किन्तु यह उनकी भूल है।

(iv) दुःख की निवृत्ति सभी दर्शन यह तो मानते हैं कि संसार दुःखमय है किन्तु वे यह भी मानते हैं कि इस दुःख का निवारण सम्भव है। इस दृष्टि से भारतीय दर्शन आशावादी हो जाते हैं।

(v) मोक्ष-लगभग सभी दर्शनों का विश्वास मोक्ष में है। केवल चार्वाक इसे स्वीकार नहीं करते।

(vi) कर्म का सिद्धान्त - चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के सभी दर्शन कर्म से नियम को स्वीकार करते हैं। शुभ कर्म का फल अनिवार्यतः शुभ होता है और अशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः अशुभ होता है। यही कर्म-नियम है। यह नैतिकता के क्षेत्र में काम करने वाला कारण कार्य नियम है।

(vii) पुनर्जन्म - चार्वाक को छोड़कर सभी दार्शनिक मत आवागमन, जन्मान्तर एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। जन्मान्तर का कारण अज्ञान अथवा मिथ्या ज्ञान है। जब ज्ञान से अज्ञान का नाश होता है तब बन्धन से मुक्ति होती है और तत्पश्चात् पुनर्जन्म नहीं होता ।

(viii) वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास- कुछ को छोड़कर सभी आस्तिक दर्शन वेदों को प्रमाण मानते हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे वेदों के अन्धानुयायी हैं। उनमें तर्क-वितर्क एवं विश्लेषण की प्रधानता है। वेदों के प्रामाणिक मानने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान के साक्षात्कार एवं प्रत्यक्ष अनुभूति को प्रमाणिक मानना । आस्तिक दर्शनों ने ऋषियों के साक्षात् अनुभव को प्रामाणिक मानते हुए अपनी तार्किक प्रणाली का विकास किया है।
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Kkr Kishan Regar

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