मैकाले का विवरण-पत्र
जिस समय प्राच्य पाश्चात्य विवाद (Oriental-Occidental Controversy) उग्र रूप धारण कर रहा था, उस समय लॉर्ड मैकाले (Macaulay) 10 जून, 1834 को गवर्नर-जनरल की कौंसिल के कानून सदस्य के रूप में भारत आया। वह अंग्रेजी का प्रकाण्ड विद्वान् था और अपने लेखों तथा व्याख्यानों से लोगों में जीवन का संचार कर देता था। वह उस युग की उपज था, जब अंग्रेज अपने साहित्य एवं संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ समझकर विश्व-विजय के लिए अपना अभियान प्रारम्भ कर चुके थे। इन्हीं विचारों से ओत-प्रोत मैकाले ने भारत में पदार्पण किया। तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड विलियम बैंटिंक (William Bentinck) ने बंगाल की 'लोक-शिक्षा-समिति' का प्रधान नियुक्त किया। लॉर्ड मैकाले सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के नागरिकों को अंग्रेजी-संस्कृति का अनुगामी बनाने के पक्ष में था। इस सम्बन्ध में उसका कहना था कि-'वर्तमान युग में हमें ऐसे वर्ग का निर्माण करने का अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिए जो दुभाषिए का काम कर सके। हम ऐसी जाति का निर्माण करना चाहते हैं जो रंग-रूप में भारतीय हों, जो रुचि , विचार-धारा, नीति एवं शिक्षा में पूर्णरूप से अंग्रेज हो।'
1813 के आज्ञा-पत्र के बारे में हए विवाद का गहन अध्ययन करने के उपरान्त अपना 'विवरण-पत्र' 2 फरवरी, 1835 को घोषित किया। लॉर्ड मैकाले ने सर्वप्रथम 'साहित्य' शब्द को लिया और कहा कि इसका अर्थ 'अंग्रेजी-साहित्य' से है,न कि संस्कृत, अरबी एवं फारसी के साहित्य से। इसी प्रकार 'भारतीय विद्वान् ' से ऐसे विद्वान् का तात्पर्य है-'जो लॉक (Locke) के दर्शन एवं मिल्टन (Milton) की कविता से परिचित हो।' फिर उसने प्राच्यवादियों के प्राच्य शिक्षा-संस्थाओं को प्रचलित रखने के विचार को लिया और लिखा- "प्राच्य-शिक्षा प्रणाली के प्रशंसकों का तर्क यदि हम मान लें कि वह ठीक है, तो वह परिवर्तनों के विरूद्ध निर्णायक होगा।"
इसके पश्चात् मैकाले ने शिक्षा के माध्यम के प्रश्न को लिया। उसने देशी भाषाओं के विषय में लिखा-"भारत के निवासियों में प्रचलित देशी भाषाओं में साहित्यिक एवं वैज्ञानिक ज्ञान-कोष का अभाव है, तथा वे इतनी अविकसित और गँवारू हैं कि जब तक उन्हें ब्राह्य भण्डार से सम्पन्न नहीं किया जाएगा, तब तक उनमें सुगमता से किसी भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ का अनुवाद नहीं हो सकेगा।"
भारत की भाषाओं को मैकॉले तुच्छ समझता था। उसका कहना था कि-"एक उत्तम यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी भारत के समग्र साहित्य से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।" इस प्रकार अंग्रेजी की प्रारम्भिक शिक्षा नीति प्रकाश में आई जिसमें अंग्रेजी के माध्यम से समान के संभ्रान्त वर्ग को शिक्षित करके समाज में निम्न वर्ग तक शिक्षा पहुँचाने की संकल्पना बनाई गयी।
'मैकाले का प्रस्ताव था कि संस्कृत, अरबी तथा फारसी में लिखे हुए कानूनों की अंग्रेजी में संहिता (Code) बनवा दी जाए। उसका कथन था कि केवल कानूनों की जानकारी के लिए संस्कृत, अरबी तथा फारसी के शिक्षालयों पर धन व्यय करना मूर्खता है। अत: उसने प्रस्ताव किया कि उनको बिल्कुल बन्द कर दिया जाए।
लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी भाषा के प्रचार व प्रसार के सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए
(1) भारतीयों की उन्नति अंग्रेजी के माध्यम से ही सम्भव है।
(2) अंग्रेजी उच्च वर्ग के व्यक्तियों एवं शासकों की भाषा है।
(3) भारत की भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी भाषा अधिक उपयोगी है।
(4) भारत के नागरिक अंग्रेजी सीखना चाहते हैं।
उपर्युक्त तर्कों को विस्तृत रूप में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया--
1. अंग्रेजी, शासकों की भाषा है एवं उच्च वर्ग के भारतीय इसे बोलते हैं।
2. सम्भव है कि अंग्रेजी पूर्वी समुद्रों में व्यापार की भाषा बन जाए।
3. आस्ट्रेलिया एवं अफ्रीका में उन्नतिशील यूरोपियनों की भाषा-अंग्रेजी है और उनका सम्बन्ध भारत से बढ़ रहा है।
4. प्राच्य शिक्षा-संस्थाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता देनी पड़ती है, परन्तु अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने के लिए विद्यार्थी स्वयं फीस देने को तैयार हैं।
5. जिस प्रकार यूनानी एवं लेटिन भाषाओं से इंग्लैंण्ड में पुनरुत्थान हुआ उसी प्रकार अंग्रेजी से भारत में होगा। 6. भारतवासी अंग्रेजी पढ़ने के इच्छुक हैं, न कि अरबी, फारसी तथा संस्कृत।
7. भारतवासियों को अंग्रेजी का विद्वान् बनाया जा सकता है, और इसके लिए प्रयास करना सरकार का कर्तव्य है। इस प्रकार, मैकॉले ने अपने विवरण-पत्र में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पाश्चात्य साहित्य एवं विज्ञानों की शिक्षा पर बल दिया।
लॉर्ड मैकाले की अधोमुखी निस्यन्दन नीति (Lord Macaulay's Downward Filteration Theory)
लॉर्ड मैकाले ने 2 फरवरी, सन् 1835 को शिक्षा सम्बन्धी ऐतिहासिक घोषणा-पत्र गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक को दिया। इस घोषणा-पत्र की मुख्य बातें इस प्रकार थीं
(1)साहित्य की व्याख्या घोषणा-
पत्र में साहित्य' शब्द से अभिप्राय अंग्रेजी साहित्य से लिया गया है। भारतीय विद्वान् से अभिप्राय मिल्टन तथा लॉक के काव्य प्रेमी तथा ज्ञाता से है। मैकाले ने कहा है, "भारतीयों में प्रचलित भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ज्ञान कोष का अभाव है तथा वे इतनी अल्प विकसित और गंवारू हैं कि जब तक कि उनको बाह्य भण्डार से सम्पन्न नहीं किया जाएगा तब तक उनमें सरलता से महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुवाद नहीं किया जा सकता है। हमें ऐसे व्यक्तियों को शिक्षित करना है जो किसी भी प्रकार वर्तमान समय में मातृभाषा द्वारा शिक्षित नहीं किए जा सकते हैं।"
(2) अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम
मैकाले ने विशेष बल शिक्षा के माध्यम पर दिया। उसने कहा कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए। इसका कारण उसने अंग्रेजी भाषा के प्रति भारतीयों की रूचि, शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी होना, व्यापारिक विकास आदि बताया।
(3) निस्यन्दन की व्याख्या-
मैकॉले ने निस्यन्दन सिद्धान्त की व्याख्या यों की है, "जनसमूह में शिक्षा ऊपर से छन-छन कर पहुँचानी थी। बूंद-बूंद करके भारतीय जीवन के हिमालय से लाभदायक शिक्षा नीचे को बहे, जिससे कि वह कुछ समय में चौड़ी एवं विशाल धारा में परिवर्तित होकर शुष्क मैदानों को सिंचित करे।"
इस नीति को सरकार ने स्वीकार कर लिया। लॉर्ड ऑकलैंड ने कहा है, "सरकार को अब शिक्षा समाज के उच्च वर्ग को देनी चाहिए जिससे सभ्यता छन-छनाकर जनता में पहुँचे।"
इस सिद्धान्त का मुख्य आधार था भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रचार करना तथा शासन की सहायता के लिए कर्मचारियों का निर्माण करना। पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार भी इसका उद्देश्य था।
(4) निस्यन्दन नीति के परिणाम-
मैकाले की इस नीति के ये परिणाम हुए
(i) प्राच्य तथा पश्चिमी शिक्षा का विवाद समाप्त हो गया।
(ii) शिक्षा जन-सामान्य के लिए न होकर वर्ग-विशेष के लिए हो गई।
(iii) लॉर्ड हार्डिंग की इस घोषणा से-'अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को सरकारी नौकरी प्रदान करने में प्राथमिकता प्रदान की जाएगी'-अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार अधिक होने लगा।
(iv) भारत में विदेशी शासन की जड़े मजबूत हो गई।
लॉर्ड मैकाले ने उस समय जो शिक्षा नीति हम भारतीयों के लिए प्रस्तुत की थी उसमें ब्रिटिश लोगों का हित था। यद्यपि बहुत से उदारमना अंग्रेज मैकाले की धारणा के विरूद्ध थे। किन्तु सत्ता के आगे उनकी एक न चली। इस नीति के अनुसार जो वर्ग उत्पन्न हुआ, वह न तो भारतीय रहा और न ही अंग्रेज बन सका। इतना अवश्य हुआ कि पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त वर्ग में से ऐसे व्यक्ति अवश्य उत्पन्न हुए जिन्होंने कालान्तर में 'राष्ट्रीय आन्दोलन' की नींव डाली। सन् 1870 तक इस सिद्धान्त का असर भारतीय शिक्षा पर पड़ता रहा।