"किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।"
किशोरों में समस्याएँ समाधान के लिए एक संक्षिप्त कार्यक्रम
"किशोरावस्था तनाव, दबाव तथा संघर्ष की अवस्था है।" स्टेनले हॉल के इस कथन की सोदाहरण विवेचना
किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है। |
"किशोरावस्था तनाव, दबाव तथा संघर्ष की अवस्था है।" उपर्युक्त कथन स्टेनले हॉल का है। किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास की सबसे जटिल अवस्था है। यह शब्द लैटिन भाषा के Adolcescence' से विकसित हुआ है। इसका अर्थ है-परिपक्वता में आना या प्रजनन क्षमता का विकास होना। सैले तथा रॉस ने किशोरावस्था की आयु 12 से 18 वर्ष तक की बताई है जबकि कॉलसनिक ने किशोरावस्था की आयु 12 से 21 वर्ष की आयु के मध्य बताया है। सामान्यत: हम किशोरावस्था को 12 से 19 वर्ष की आयु के मध्य मान सकते हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे टीन-एज (Teenage) भी कहा है।
किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन-
किशोरावस्था में विकास के रूप में होने वाले परिवर्तनों को हम निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट कर सकते हैं
1. शारीरिक विकास
शारीरिक दृष्टि से किशोरावस्था में लड़के-लड़कियों में अति तीव्र गति से विकास होता है। लड़के-लड़कियों के भार, लम्बाई आदि में वृद्धि होती है। लड़कों की माँसपेशियाँ सुदृढ़ होने लगती हैं और बलिष्ठ होते हैं; जबकि लड़कियों में लावण्य, सन्तुलन एवं सुन्दरता का विकास होता है। किशोरावस्था में सभी अस्थाई दाँतों की जगह स्थायी दाँत आ जाते हैं। इस अवस्था में आवाज में भी काफी परिवर्तन आ जाता है। लड़कों की आवाज भारी व कर्कश हो जाती है जबकि लड़कियों की आवाज में कोमलता आ जाती है। किशोरों में स्वभाव की चंचलता समाप्त होकर गम्भीरता आ जाती है। लड़के और लड़कियों के शरीर पर विभिन्न स्थानों पर बाल उग आते हैं। लड़कियों के केवल गुप्तांगों और काखों में ही बाल उगते हैं जबकि लड़कों के इनके अतिरिक्त चेहरे पर भी दाढ़ी, मूळे आ जाती है तथा सीने पर भी बाल उग जाते हैं। इस अवस्था में लड़कियों की छाती का विकास होने लगता है। लड़के और लड़कियों के यौनांगों का विकास भी होता है। किशोर व किशोरियों के पसीने से एक विशेष प्रकार की गन्ध निकलना शुरू हो जाती है। चेहरे पर परिपक्वता आने लगती है जिससे मुँह पर मुहाँसे हो जाते हैं। बाह्य परिवर्तनों के साथ-साथ इस अवस्था में आन्तरिक परिवर्तन भी होने लगते हैं। लड़कियों में मासिक रक्त-स्राव व लड़कों में वीर्यपात प्रारम्भ हो जाते हैं। यही प्रजनन क्षमता का सूचक है। मस्तिष्क, हृदय, श्वास, पाचन-क्रिया, स्नायु संस्थान आदि पूर्णतया विकसित हो जाते हैं।
2. मानसिक विकास—
इस अवस्था में मानसिक विकास परिपक्वता के समीप होता है। किशोर के अनेकों लक्षण यथा गहन विचार, समस्या का अध्ययन, सोचना, तर्क करना, निर्णय लेना तथा कठिन से कठिन मानसिक कार्यों में रुचि लेना आदि उसके मानसिक विकास को स्पष्ट करते हैं। उसमें प्रत्यक्ष ज्ञान, चिन्तन, कल्पना, तार्किक, स्मृति, अवधान, गूढ़ विचारों को समझने की योग्यता तथा अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा तीव्र गति से विकसित होती है। किशोरावस्था में रुचि का विकास तेजी से होने लगता है तथा उसकी रुचि विशिष्ट रुचियों की ओर विकसित होने लगती है। ये सिनेमा, नाटक, संगीत, खेल, कला एवं साहित्य आदि में रुचि लेने लगते हैं। लड़के और लड़कियों की रुचियों में भी भिन्नताएँ होती हैं। लड़के खेलों में,फिल्म देखने और साहित्य पढ़ने में भी रुचि लेते हैं जबकि लड़कियों की रुचि नाचने, गाने, रोमेन्टिक एवं सुखांत फिल्म देखने तथा इसी प्रकार के साहित्य पढ़ने में रुचि लेती है। व्यवसाय चुनाव में भी लड़के और लड़कियों की रुचि में भिन्नता पाई जाती है। लड़के सामान्यतया डॉक्टर, इंजीनियर, वकील तथा प्रशासनिक अधिकारी बनने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं जबकि लड़कियाँ डॉक्टर, नर्स, अध्यापिका आदि बनने में रुचि रखती हैं। .
3. संवेगात्मक विकास-
किशोरावस्था में विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग संवेगात्मक विकास है। यह अवस्था तनाव और झंझावत की अवस्था भी कही जाती है। अन्तर्द्वन्द्व, उत्तेजना, भावात्मक उथल-पुथल इस अवस्था में सामान्य होती है। वह अपने संवेगों को उचित अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न करता है, अनुकूल परिस्थितियों में उत्साहित और प्रतिकूल परिस्थितियों में उसमें निराशा उत्पन्न होती है। किशोर प्रायः चिन्ताओं, स्वाभिमान, भावुकता, आलोचना एवं झिड़की के प्रति अत्यन्त संवेदनशीलता से घिरा रहता है। किशोरावस्था में क्रोध भी अधिक आता है, वह प्रायः अपने माता-पिता या साथी से झगड़ा कर बैठता है। देश-प्रेम, सहानुभूति, करुणा, दया आदि गुणों के विकसित होने के कारण यह दूसरों के दुःख से दुःखी तथा दूसरों के सुख से प्रसन्न होता है। प्रेम के संवेग के विकसित होने के कारण लड़के-लड़कियों में रोमांस के सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं। विपरीत लिंगियों के प्रति रोमांस तथा प्रेम का कारण यौनांगों में तीव्र गति से विकास होना भी है।
4.सामाजिक विकास-
किशोरावस्था में सामाजिक विकास पर शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास का प्रभाव पड़ता है। जो लड़के-लड़कियाँ उपयुक्त तीनों रूप से उचित तरीके से विकसित होते हैं, उनका संवेगात्मक विकास भी उचित रूप में होता है। इस अवस्था में लड़के-लड़कियाँ अपने समान स्तर तथा व्यक्तिगत गुणों वाले लड़के-लड़कियों से मित्रता करना पसन्द करते हैं। इनमें विषमलिंगियों के प्रति विशेष आकर्षण होने के कारण से विषमलिंगियों से मित्रता करना ज्यादा पसन्द करते हैं। इस अवस्था में अपने मित्रों की आदतों, रुचियों, अभिवृत्तियों एवं मूल्यों का अधिकाधिक प्रभाव पड़ता है। इस अवस्था में उदारता, सेवाभावी, . भावुकता, संवेदनशीलता, करुणा, दया आदि संवेगों के विकसित होने के कारण इनमें परोपकार एवं समाज-सेवा की भावना तीव्र होती है। किन्तु क्रोध, उत्तेजना आदि संवेगों के विकसित होने के कारण इनको अपने परिवार, साथियों, शाला तथा समाज में समायोजन स्थापित करने में कई बार काफी कठिनाई होती है। उचित रूप से समायोजन न होने के कारण कई बार इनके अपचारी हो जाने की आशंका बनी रहती है। इस अवस्था में सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने की अभिरुचि भी विकसित होती है।
किशोरों की आवश्यकताएँ एवं समस्याएँ
इस अवस्था में लड़के और लड़कियों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना होता है। इन्हें कई प्रकार की आवश्यकताएँ अनुभव होती हैं, ये निम्नलिखित हैं
1. सुरक्षा की आवश्यकता-
बालक जन्म से युवावस्था तक निरन्तर सुरक्षा की आवश्यकता अनुभव करता है। सुरक्षा हेतु वह प्रेम, स्नेह, देख-रेख, समर्थन, अनुमोदन की अपेक्षा करता है। वह चाहता है कि उसके विचारों को आदर एवं समर्थन मिले। उसे अपनत्व का अनुभव हो, उसे यह अनुभव हो कि वह किसी के लिए महत्त्वपूर्ण है, कोई उसे चाहता है। घर एवं विद्यालय ही वह स्थान है जहाँ उसकी इस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है।
2. प्रतिष्ठा की आवश्यकता-
किशोरावस्था में पद या प्रतिष्ठा की प्राप्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन जाती है। स्वयं के प्रति अत्यन्त जागरूक हो जाने के कारण वह अपने हमवयों के समूह, परिवार, समाज तथा विद्यालय में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है। वह ऐसे कार्य करता है जिससे अन्य व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित कर सके। वह स्वयं को पूर्ण वयस्क समझने लगता है
और आकांक्षा रखता है कि उसे उत्तरदायित्वपूर्ण प्रौढ़ों के कार्य करने के अवसर प्राप्त हों तथा उनके समान ही सुविधाएँ प्राप्त हों।
3. अपनत्व की आवश्यकता
प्रत्येक मानव यह चाहता है कि वह दूसरे के द्वारा स्वीकारा जाये, अपनाया जाये, उसकी किसी को चाह हो। इस आवश्यकता की तीव्रता किशोरावस्था में अत्यधिक बढ़ जाती है। इसकी पूर्ति हेतु किशोर अपने सामाजिक क्षेत्र का विस्तार करता है, अनेक मित्र बनाता है, क्लबों तथा युवा संगठनों की सदस्यता ग्रहण करता है।
4. उपलब्धि की आकांक्षा–
किशोर में कुछ कर-गुजरने की महत्त्वाकांक्षा होती है। वह अपनी उपलब्धियों से अपने साथियों, माता-पिता तथा अध्यापकों को प्रभावित करना चाहता है। यह आकांक्षा उसे साहसी बना देती है। वह चुनौतिपूर्ण कार्य करना चाहता है। वह ऐसे अवसरों की तलाश में रहता है जिनके माध्यम से वह अपनी योग्यता, क्षमता तथा प्रतिभा और ज्ञान का प्रदर्शन कर लोगों की प्रशंसा प्राप्त करे।
5. आत्मनिर्भरता की आवश्यकता—
किशोर अपने परिवार के प्रौढ़ों के नियंत्रण से मुक्त हो स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहता है। वह अपनी योग्यता व क्षमता के प्रति जैसे ही सजग होता है उन्हें आजमाने के लिए प्रयत्न करता है। धीरे-धीरे वह अपने से बड़ों के ऊपर आश्रित होना कम करता जाता है और आत्मनिर्भर होता जाता है। ऐसी आकांक्षा किशोर में उत्तरदायित्व, यथार्थ का मुकाबला करने की शक्ति तथा निर्णय लेने की शक्ति उत्पन्न करती है। वह अपनी इसी आकांक्षा के कारण व्यवसाय की ओर उन्मुख होता है। माता-पिता तथा शिक्षक को चाहिए कि वे उसकी योग्यता, क्षमता, रुचि आदि को ध्यान में रखकर उसे उचित निर्देशन प्रदान करें।
6. जीवन-दर्शन की आवश्यकता–
व्यक्ति में इस अवस्था में सोचने-समझने, तर्क करने, निर्णय लेने आदि की शक्ति पर्याप्त रूप में विकसित हो जाती है। इनके आधार पर वह अपने अन्दर कुछ आदतें, मान्यताएँ और मूल्य स्थापित करता है, वह अपने विचारों, मान्यताओं एवं संस्कारों के अनुरूप जीवन-दर्शन की खोज करता है। वह ऐसे अवसरों की तलाश में रहता है जहाँ वह अपने आदर्शों के अनुरूप रचनात्मक कार्य कर संतोष प्राप्त कर सके। ऐसी स्थिति में परिवार तथा विद्यालय का दायित्व है कि वे उसको उचित रचनात्मक कार्यों में लगाएं।
7. काम-प्रवृत्ति की आवश्यकता
तीव्र गति से शारीरिक विकास होने तथा अन्तःस्त्राविक ग्रन्थियों के सक्रिय हो जाने के कारण किशोर में काम सम्बन्धी भावनाएँ तीव्र गति से विकसित होने लगती हैं। लडके और लडकियाँ एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। इसके लिए लड़के-लड़कियाँ अपने वस्त्रों, बालों, नाखून, चेहरे तथा शरीर के अन्य अंगों को सुन्दर तथा आकर्षक बनाने का प्रयास करते हैं। उन्हें विपरीत लिंगियों से मिलने जुलने और बात-चीत करने में बड़ा आनन्द और संतोष अनुभव होता है। इस अवस्था में इस बात की आवश्यकता है कि विद्यालय किशोरों को काम-विज्ञान की स्वस्थ शिक्षा प्रदान करें तथा इससे सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं व भ्रांतियों का निराकरण करें।
किशोरों की उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि उनकी इन आवश्यकताओं की पूर्ति न हो, तो किशोरों में तनाव एवं कुण्ठा उत्पन्न हो जाती है जिससे उनका समायोजन उचित रूप में नहीं हो पाता है और उनके अपचारी (Delinquent) बनने की संभावना रहती है। किशोरों में अति तीव्र गति से होने वाले परिवर्तनों तथा इन परिवर्तनों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्याओं एवं आवश्यकताओं के कारण ही इस अवस्था को तूफान और संघर्ष का काल कहा जाता है। अत: इस अवस्था में माता-पिता और विद्यालय का दायित्व हो जाता है कि वे लड़के-लड़कियों को उचित रूप से तथा पूर्ण रूप से विकसित करने हेतु उनकी समस्याओं को जाने और उनके निराकरण का प्रयत्न करते हुए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करें।