बालापराध
बालापराध के बचाव के उपायअपराधी बालक
अपराधी बालक की आदत एवं चरित्र में सुधार एवं उपाय
बाल अपराध व्यवहार के कारण
बालापराध का अर्थ (Meaning of Delinquency)-
कोई व्यवहार जो सामाजिक नियमों या कानूनों के विरुद्ध उल्लंघन होता है, यदि वह प्रौढ़ व्यक्ति द्वारा किया जाता है, तो अपराध (Crime) कहलाता है और यदि वह अप्रौढ़ अर्थात् बालक द्वारा किया जाता है, तो बालापराध (Delinquency) कहलाता है। इस प्रकार बालकों द्वारा किए हुए समाज विरोधी या अवैधानिक (Illegal) व्यवहार को बालापराध कहते हैं । भिन्न-भिन्न देशों में बालापराध निश्चित करने की आयु भिन्न-भिन्न होती है। भारत में वह आयु 7 वर्ष से अधिक तथा 15 वर्ष से कम निश्चित की गई है।
दूसरे शब्दों में, वह बालक अपराधी है, जो नियमों को भंग करता है, आवारागर्दी करता है, तथा जिसे आज्ञा का उल्लंघन करने की आदत पड़ गई है। इसका आचरण इस ढंग का होता है कि जिससे उसके स्वास्थ्य और अन्य लोगों की नैतिकता को हानि पहुँचा सकती है।
बालापराध को रोकने हेतु विद्यालय के कर्त्तव्य (Duties of School to Check Delinquency)
बालापराध कों रोकने हेतु विद्यालय निम्न प्रकार व्यवस्था कर सकता है
(1) घर तथा पाठशाला में समन्वय
शिक्षकों को बालकों की समस्याएँ उनके माता-पिता के समक्ष रखकर बालापराध रोकने हेतु ठोस कदम उठाने चाहिए।
(2) पुस्तकालय एवं वाचनालय
पाठशाला में अच्छा पुस्तकालय एवं वाचनालय कक्ष हों, जिसमें वे अवकाश का सदुपयोग कर सकें। इस प्रकार उनमें अच्छी आदतों का निर्माण होगा तथा उनकी रुचि परिस्कृत होगी।
(3) सुप्रशिक्षित अध्यापक
पाठशाला के प्रत्येक शिक्षक का सुप्रशिक्षित होना नितान्त आवश्यक है। उन्हें मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से बालकों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा देनी चाहिए। शिक्षक 'जॉन को समझने का प्रयास करें। (जॉन से अभिप्राय 'विद्यार्थी')
(4)अच्छा पर्यावरण--
विद्यालय का सम्पूर्ण पर्यावरण अच्छे से अच्छा बनाया जाए। इसमें खेल के मैदान, स्वच्छ भवन, फुलवारी, उठने-बैठने का उचित स्थान आदि की व्यवस्था करनी चाहिए। विद्यालय पर्यावरण स्वास्थ्य वर्धक होना चाहिए।
(5)रुचि एवं योग्यतानुसार
शिक्षा-शिक्षकों का परम कर्त्तव्य है कि वे बालकों को उनकी रुचि एवं योग्यतानुसार शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करें। पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप होना चाहिए।
(6)अच्छी शिक्षण-
पद्धति शिक्षकों को चाहिए कि वे ऐसी शिक्षण-पद्धति का उपयोग करें जो बालकों के अनुकूल हो। आयु तथा स्तर के अनुसार शिक्षण-विधियों का प्रयोग किया जाए।
(7)स्वस्थ मनोरंजन के साधन
बालकों के लिए स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था करना, प्रत्येक विद्यालय में खेल के मैदान, रेडियो एवं अच्छे-अच्छे खेलों का प्रबन्ध करना आवश्यक है।
(8) अध्यापक-अभिभावक परिषद्-
बाल-अपराध को रोकने के लिए अभिभावक-अध्यापक परिषद् की स्थापना करना परमावश्यक है, तभी शिक्षक बालकों के माता-पिता को अच्छे-अच्छे सुझाव दे सकते हैं एवं बालक के माता-पिता शिक्षक को बालक के गृह जीवन की बातें बता सकते हैं तथा छात्र समस्याओं पर विचार कर सकते हैं।
(9) अध्यापक-अध्यापक, अध्यापक-प्रधानाध्यापक एवं अध्यापक-बालक सम्बन्ध-पाठशाला में
बालकों को शिक्षा प्रदान करने एवं उनका चरित्र-निर्माण करने के लिए अध्यापक एवं प्रधानाध्यापक बालकों का परस्पर सम्बन्ध अच्छा होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, छात्र-अध्यापक सम्बन्ध पारिवारिक स्वरूप का होना चाहिए।
(10) यौन-शिक्षा प्राय: किशोरावस्था में
किशोर एवं किशोरियाँ यौन अपराध करने लगती हैं। अत: इसकी रोकथाम के लिए उन्हें यौन-शिक्षा (Sex-Education) प्रदान करना परमावश्यक है, क्योंकि इससे उनकी काम-प्रवृत्ति का शोधन (Sublimation) होता है तथा स्वस्थ भावना का विकास होता है।
(11) धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा–
बालकों को धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा प्रदान करना परमावश्यक है, क्योंकि इससे उनके चरित्र का निर्माण होता है, परिणामस्वरूप वे अपराध नहीं करते हैं।
(12) मूल-प्रवृत्तियों
एवं संवेगों का शोधन मूल प्रवृत्यात्मक एवं संवेगात्मक व्यवहार पशुवत् होता है, परिणामस्वरूप शिक्षकों का कर्तव्य है, कि वे बालकों की मूल-प्रवृत्तियों एवं संवेगों का शोधन एवं मार्गान्तीकरण (Redirection) करें। शिक्षा ही व्यक्ति को पशु से मानव बनाती है।
(13) अनुशीलन या अनुवर्तन अध्ययन (Follow up Study-
जो बालक विद्यालय जीवन में अपराध करते हैं, उनकी शिक्षा समास होने के उपरान्त भी उनकी यदा-कदा देखभाल करते रहना चाहिए।
(14) प्रेम एवं सहानुभूति-
बालकों को अच्छे मार्ग की ओर ले जाने के लिए शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे उनके प्रति प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार अपनाए।
(15) शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ाना-
बालक एक मनः शारीरिक (Psychophysical) प्राणी है। अत: उसके व्यवहार को अच्छा बनाने के लिए उसके शरीर एवं मन को स्वस्थ होना चाहिए।
(16) कला एवं साहित्य
बालकों की पाशविक मूल-प्रवृत्तियों का शोधन करने के लिए एवं उनमें अच्छे गुण उत्पन्न करने के लिए उन्हें कलात्मक एवं साहित्यिक ज्ञान देना परमावश्यक है।
(17) स्काउटिंग एवं सरस्वती यात्राएँ (Scouting and Excursion)-
(18) कार्य एवं स्वानुभव द्वारा शिक्षा (Learning by Doing and Experience)
बालकों को स्वास्थ्य एवं श्रोत की ओर ले जाने के लिए उन्हें कार्य का स्वानुभव दिशा प्रदान करनी चाहिए।
बाल अपराध व्यवहार के कारण
बाल अपराध व्यवहार के कारण (Causes of Juvenile Delinquency Beheviour)
मनोविज्ञानकों एवं समाजशास्त्रियों ने बालक-बालिकाओं में आपराधिक प्रवृत्तियों के विकास का गहन अध्ययन किया है और उनके कारणों की व्याख्या भी की है। प्रायः इन कारणों को निम्न वर्गों में बाँटा गया है
1. पारिवारिक परिवेश (Family Environment)-
परिवार के नियम, परस्पर सम्बन्ध एवं अन्त:क्रियाएँ मिलकर परिवेश बनाते हैं और इन सबका उनके व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव पड़ता है। जिन परिवारों में अभिभावकों, माता-पिता एवं बच्चों में आपसी सम्बन्ध गुणात्मक दृष्टि से स्वस्थ एवं सकारात्मक नहीं होते उन परिवारों के बच्चों में नकारात्मक एवं आपराधिक प्रवृत्ति विकसित होती है। यदि पति-पत्नी (माता-पिता) के आपसी सम्बन्ध तनावग्रस्त हों तो बच्चों में स्नेह एवं प्रेम की कमी, अविश्वास एवं अक्रोश की प्रवृत्ति विकसित होती है।
परिवार के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का प्रभाव भी बालकों में अपराधिक प्रवृत्ति विकसित होने में सहायक होता हैं। यदि माता-पिता अपने कार्य एवं अर्थोपार्जन में अधिक व्यस्त रहने के कारण अपने बच्चों के बाल्यकाल में उनकी ओर ध्यान देने में चूक जाते हैं तो बालकों में संवेगात्मक विकार उत्पन्न होते हैं, जो उनमें आक्रोश, अलगाव, भाई बहनों में आपसी तनाव आदि नकारात्मक लक्षण भी उनके व्यवहार में झलकने लगते हैं। उनके आपसी सम्बन्धों में भी दूरी हो जाती है। ऐसे पारिवारिक परिवेश में बच्चे अकेलेपन (Isolation) की भावना से ग्रस्त होकर बाह्य वातावरण के अधिक प्रभाव से शिकार बन जाते हैं और कई प्रकार के आपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
एकांकी परिवार में भी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कारणों से तनाव, द्वन्द्व एवं सम्बद्ध विच्छेद (Breaking relation) जैसी अवांछनीय घटनाएँ घटती हैं और इनका दुष्प्रभाव बच्चों के विकास पर पड़ता है। प्रायः जो बालक-बालिकाएँ बाल अपराधों में संलग्न होते हैं उनके माता-पिता के आपसी सम्बन्धों में भी नकारात्मक तत्त्वों को देखा जाता है। ऐसे पारिवारिक परिवेश में पले-बढ़े बच्चों के व्यक्तित्व में नकारात्मक गुणों का समावेश होता है, माता-पिता द्वारा अपनाई पालन-पोषण की विधियों का प्रभाव भी बच्चों के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास पर पड़ता है। जो माता-पिता अपने बच्चों में अनुशासन की शिक्षा अधिक तानाशाही (Authorisation) तरीके से देते हैं उनके बच्चों में विद्रोह एवं आक्रोश की भावना अधिक होती है अथवा समय आने पर वह पारिवारिक नियमों का उल्लंघन कर अपनी स्वतन्त्र इच्छाओं की पूर्ति के लिए आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। इनके परिणाम का बोध न होने के कारण वह बाल अपराधी बन जाते हैं।
2.सहपाठी एवं मित्रों का प्रभाव (Effect of Classmates & Friends)
बालक बालिकाएँ विकास की यात्रा में स्वभावतः परिवार के वातावरण के साथ-साथ बाह्य वातावरण के प्रभाव में भी रहते हैं। उनके जीवन में शिक्षा एवं विद्यालयों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के पारिवारिक परिवेश में पले-बढ़े बच्चों से सम्पर्क स्थापित होता है। यह उनके व्यवहार व विचार, दोनों को प्रभावित करते हैं। जैसे-जैसे बालक-बालिकायें प्राथमिक कक्षाओं से उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षाओं में आते हैं तो उनका सम्पर्क परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य बच्चों के साथ और घनिष्ठ हो जाता है, जो उनको संवेगात्मक एवं सामाजिक बल देता है। विद्यालयों में बालक अपने परिवार की तुलना में अधिक स्वच्छन्द भाव से व्यवहार करते हैं और कई प्रकार की आदतों को अपनाते हैं, ऐसे में उनके सामाजिक सम्बन्धों के विकास के साथ-साथ अपने मित्रों के विचारों, व्यवहार एवं दृष्टिकोण से प्रभावित होते हैं, क्योंकि बालक अपने मित्र मण्डल में अपनी पहचान स्थापित करने से सुरक्षा की भावना की अनुभूति करते हैं इसलिये उनके प्रभाव में आकर वह सब करते हैं जो मित्र मण्डली के सदस्य कर रहे होते हैं। इस प्रकार के मित्र मण्डलों में कुछ सदस्य अपराधों में लिप्त भी होते हैं तो बालक भी उन गतिविधियों को अपनाने में कोई संकोच नहीं करते और उनके व्यवहार को इन साथियों का समर्थन मिल जाता है।