लिंग संवेदनशीलता का अर्थ
लैंगिक संवेदनशीलता स्थापित करने में
शिक्षा की भूमिका
लैंगिक संवेदनशीलता से तात्पर्य हैं
लैंगिक संवेदनशीलता से अभिप्राय है
लैंगिक संवेदनशीलता के विकास में
शिक्षा की भूमिका
लिंग संवेदनशीलता |
लैंगिक संवेदनशीलता-
लैंगिक संवेदनशीलता
से तात्पर्य 'व्यवहार-परिवर्तन' एवं स्वयं एवं
विपरीत लिंग के प्रति
हमारी परम्परागत सोच में परानुभूति/तदनुभूति स्थापित करना
है। इसके माध्यम
से व्यक्तियों को स्वयं के
दृष्टिकोण एवं विश्वासों का मूल्यांकन
का अवसर प्राप्त होता
है तथा वे तथाकथित
वास्तविकताओं, जिन्होंने अपने जीवन
में जाना है, पर प्रश्न-चिह्न लगा सकते
हैं। इस प्रकार 'लैंगिक-संवेदनशील' व्यक्ति अन्य लिंग के व्यक्तियों के प्रति न केवल व्यवहार के नए प्रारूपों को अपनाता है अपितु यह संवेदनशीलता उसको लैंगिक मुद्दों पर स्वयं के दृष्टिकोण, विश्वास एवं मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाने हेतु भी सक्षम बनाती है।
विश्व-स्वास्थ्य संगठन के अनुसार लैंगिक संवेदनशीलता से तात्पर्य है,"महिला-पुरुषों के बेहतर स्वास्थ्य हेतु शोध, नीतियों एवं ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम जागरूकता का निर्माण एवं विकास करना जो उनके मध्य समानता की भावना को विकसित कर सके।"
यूनेस्को के अनुसार, "लैंगिक संवेदनशीलता के सम्प्रत्यय का विकास महिला एवं पुरुष के मध्य व्यक्तिगत एवं आर्थिक विकास में आने वाली बाधाओं को कम करने के मार्ग के रूप में विकसित किया गया है। लैंगिक संवेदनशीलता व्यक्तियों में एक-दूसरे के प्रति लैंगिक आधार के बिना भी सम्मान करने में सहायता करती है। लैंगिक संवेदनशीलता की शिक्षा के माध्यम से दोनों ही लिंगों के सदस्यों को लाभ पहुँचता है। लैंगिक संवेदनशीलता की शिक्षा व्यक्तियों को यह निर्धारित करने में सहायता करती है कौन सी मान्यता स्वीकार्य है और कौनसी मान्यताएँ मात्र जड़तावादी विचारधाराएँ है। लैंगिक जागरूकता हेतु न केवल बौद्धिक प्रयासों की आवश्यकता होती है अपित संवेदनशीलता एवं खुले विचारों की भी इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह महिला एवं पुरुषों के जीवन-विकल्पों की अधिकतम सम्भव सीमाओं को खोलती है।"
अर्थात्, लैंगिक संवेदनशीलता को मात्र महिला एवं पुरुषों के मध्य भेद के रूप में परिभाषित नहीं किया जाता है, अपितु यह एक वृहद् सम्प्रत्यय है जिसमें महिला एवं पुरुषों के
सामाजिक-मानसिक स्वास्थ्य का विकास एवं पुरातन मान्यताओं से मुक्त करने से सम्बन्धित कार्य भी सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत बिना किसी लैंगिक आधार के सभी मनुष्यों को समान सम्मान एवं अधिकार दिया जाना भी सम्मिलित है।
लैंगिक संवेदनशीलता के विकास में शिक्षा की भूमिका-लैंगिक संवेदनशीलता नीति के अनुसार लैंगिक संवेदनशीलता के विकास में शिक्षा की भूमिका निम्नांकित रूप से महत्त्वपूर्ण है
1. शिक्षा के माध्यम से भिन्न लिंग के प्रति जड़तावादी दृष्टिकोण को समाप्त किया जा सकता है।2. शिक्षा विपरीत लिंग के व्यक्तियों की आवश्यकताओं, रुचियों एवं दृष्टिकोण कोसमझने में सहायक होती है।3. शिक्षा के माध्यम से भिन्न लिंग के बालक-बालिका परस्पर समझ विकसित कर पाते हैं।4. शिक्षा के माध्यम से सामाजिक मूल्यों को पुनर्स्थापित किया जा सकता है।5. शिक्षा के माध्यम से अनावश्यक वर्जनाओं को समाप्त कर बालक-बालिका केलिए समान रूप से विकास एवं उन्नति के अवसर सुनिश्चित किए जा सकते हैं।6. शिक्षा समाज में लैंगिक संवेदनशीलता के प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकती है।7. शिक्षा एकमात्र माध्यम है जो नागरिकों में नवीन विचारों को अपनाने में सहायक होता है।8. शिक्षा के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक संसाधनों तक महिला-पुरुष कि समानपहुँच एवं नियंत्रण को सुनिश्चित किया जा सकता है।9. शिक्षा महिला एवं पुरुषों को राजनैतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में भी समान अवसर प्रदानकरने में सहायक है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में जेण्डर संवेदी शिक्षक प्रशिक्षण आवश्यक
(1) सरकार बालिकाओं
की शिक्षा को विशेष
महत्त्व देने के लिए
वचनबद्ध है। यह स्वीकार करती है
कि यदि सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा को
यथार्थ रूप में साकार
करना है तो बालिकाओं
की प्रवेश संख्या को
बढाना होगा तथा उनकी
स्कूल छोड़ने की दर
को कम करना होगा। इस उद्देश्य
की प्राप्ति के लिए संक्रमण
काल में विभिन्न पद्धतियों
को अपनाना होगा; जैसे-औपचारिक, अनौपचारिक,
संक्षिप्त कार्यक्रम एवं रात्रि स्कूल आदि प्रारम्भ करने होंगे।
संक्षिप्त कार्यक्रम एवं रात्रि स्कूल आदि प्रारम्भ करने होंगे।
(2) स्कूलों के
लिए प्रावधान करना ही पर्याप्त नहीं होगा। उन कठिनाइयों
पर सर्वोच्च ध्यान दिया जाएगा जिनके
कारण बालिकाएँ स्कूल में उपस्थित
होने से रोक दी
जाती हैं। घरेलू काम के बोझ
को ढ़ोने तथा कई घण्टों तक काम
करने के बाद थक
जाने से, बालिकाओं के प्रति स्कूल में
विशेष ध्यान रखे जाने
की आवश्यकता है। बालकों को विशेषकर बालिकाओं
की स्कूल में उपस्थिति
बनाए रखने के लिए स्कूल
के वातावरण को सुखद
एवं सुरक्षित बनाना, शिक्षण कार्य को आनन्दमय
बनाना आवश्यक है। ।
(3) जिन बालिकाओं
के ऊपर अपने छोटे
भाई-बहनों की
देखरेख की जिम्मेदारी है, उनके लिए स्कूल या
शिशुपालन सम्बन्धी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जानी
चाहिए, जिससे ऐसी
बालिकाओं के लिए स्कूल
में प्रवेश व लम्बे अन्तराल तक शिक्षा सम्भव हो सके।
(4) महिलाओं के सकारात्मक चित्रण को
प्रोन्नत करने, परिवार एवं समाज के
भीतर उनके योगदान को स्वीकार
करने तथा उनके अधिकारों
को सम्मान देने की
दृष्टि से विद्यमान पाठ्यपुस्तकों एवं शैक्षिक
सामग्री की समीक्षा करना।
(5) बालिकाओं एवं महिलाओं के
लिए आदर्श भूमिका प्रस्तुत
करने की दृष्टि से,
महिला शिक्षकों की विशिष्ट रूप से ग्रामीण विद्यालयों में नियुक्ति एवं प्रशिक्षण आदि को प्रोत्साहित करना।
महिला शिक्षकों की विशिष्ट रूप से ग्रामीण विद्यालयों में नियुक्ति एवं प्रशिक्षण आदि को प्रोत्साहित करना।
(6) बालिकाओं की विशेष स्थिति
के बारे में समस्त
अध्यापकों, महिलाओं एवं
पुरुषों का आमुखीकरण करना, जेण्डर मुद्दों के प्रति
उन्हें संवेदनशील बनाना तथा बालिका
शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा
करने के लिए उन्हें
सक्षम व समर्थ बनाना।
(7) महिला
शिक्षकों एवं शैक्षिक कार्यकर्ताओं
के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना
ताकि नियमित सेवा पूर्व
एवं सेवान्तर्गत प्रशिक्षण के लिए उन्हें
तैयार किया जा सके। पुरुषों की
तरह उन्हें भी समान
स्तर पर लाने के
लिए यह कदम अति आवश्यक है।
(8) सभी कार्यकर्ताओं के लिए जेण्डर
प्रशिक्षण चाल करना।
(9) विद्यालयों में एवं अभिमानित
पंचायतों में बालिकाओं एवं उनके
माता-पिताओं के
लिए व्यावसायिक एवं कैरियर गाइडेंस
की व्यवस्था करना।
भारत में लैंगिक
असमानता/विषमता प्राचीनकाल से ही
है परन्तु आजकल लैंगिक विषमता
काफी बढ़ रही है। इसके प्रमुख
कारण निम्नलिखित है
भारतीय समाज में लिंग
असमानता के कारणों पर
चर्चा करें तथा सुधारात्मक
उपाय
लैंगिक असमानता/विषमता के कारण
(1)पितृसत्ता-
भारतीय समाज में पितृसत्ता
की भावना सदैव से
मानी जाती है। समाज में पुरुष
को सबसे अधिक महत्त्व
दिया जाता है इसलिए
परिवारों में पुत्र जन्म
को सबसे अधिक महत्त्व
देकर पुत्र के जन्म
पर खुशियाँ मनाई जाती
है। लड़की को
पराया धन मानकर उसके
लालन-पालन पर
भी विशेष ध्यान नहीं
दिया जाता है। शिक्षा की दृष्टि
से भी बालिका शिक्षा व महिला शिक्षा दर बहुत
कम है।
(2) स्त्रियों की उपेक्षा
अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों से
स्त्री शिक्षा की उपेक्षा
की गई। समाज में यह धारणा
बन गई कि स्त्री शिक्षा
अनावश्यक है। शिक्षा के अभाव में
स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति
जागरूक नहीं बन सकी। वे परिवार
की चार दीवारी तक
ही सीमित रही। पुरुषों ने एक-एक करके
उनके सब अधिकार छीन
लिए। अशिक्षा के
कारण महिलाएँ अंधविश्वासों व कुरीतियों और रुढ़ियों
में फँस गई । इसका परिणाम यह
हुआ कि पुरुषों की
तुलना में महिलाएँ पीछे
रहने लगी।
(3) हिन्दू आदर्श
हिन्दू समाज
में विवाह एक धार्मिक
संस्कार माना जाता है। कन्यादान को विशेष
महत्त्व दिया जाता है। समाज में
पति परमेश्वर की धारणा विद्यमान
है। इस प्रकार 'कन्यादान' की भावना ने
लड़की को भी एक
वस्तु की तरह माना
है। दान से
प्राप्त वस्तु पर प्राप्तकर्ता
का पूर्ण अधिकार माना
जाता है। वह चाहे उसका उपयोग
कैसे ही करें। इससे महिलाओं के
अधिकार समाप्त हो गए। विवाह के
बाद तो वह ससुराल
की दासी ही बन
गई। पति परमेश्वर
की भावना से ही
पति की मृत्यु के
बाद सती परम्परा बनी। जिसे अंग्रेजों
के शासन काल में
कानून के जरिए समाप्त
कर दिया गया है।
(4) वैवाहिक कुरीतियाँ
समाज में बाल विवाह
की प्रथा थी जो छुट-पुट रूप में अभी
भी देखी जाती है। वैसे सरकार
ने बाल विवाह पर
रोक लगा दी है। बाल विवाह
के कारण लड़कियों की शिक्षा
नहीं होती थी। शिक्षा के अभाव
में उनके व्यक्तित्व का पूर्ण
विकास नहीं होता था। विवाह में
दहेज प्रथा के कारण
भी परिवार में लड़कियों
के साथ लड़कों की तरह व्यवहार
नहीं किया जाता है। दहेज प्रथा
बंद है परन्तु अप्रत्यक्ष
रूप से यह अभी
भी चालू है।
(5)संयुक्त परिवार प्रथा
भारत में हिन्दू
परिवारों में संयुक्त परिवार
प्रथा रही है जो
कहीं-कहीं अभी
भी है। नौकरियों के कारण अब
परिवार एकांकी बनने लगे
है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में स्त्रियों
को कोई अधिकार नहीं
थे। परिवार की
सम्पत्ति पर पुरूषों का
ही अधिकार माना जाता
था। स्त्रियों का काम
बच्चों की देखभाल करना
और परिवार के वृद्धजनों
की सेवा करना ही
होता था।
(6) पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता
प्रायः देखा जाता है
कि महिलाएं अपने जीवनयापन के लिए
पुरुषों पर ही आश्रित
थी। युवावस्था में पति
पर तथा वृद्धावस्था में पुत्रों
पर आश्रित रहना ही
उनकी नियति थी। बचपन में माता-पिता पर
आश्रित रहती थी। पुरुषों पर आश्रित
रहने के कारण स्त्री
का जीवन सदैव परावलम्बी
रहा है। इसी कारण समाज में
सदैव उनके साथ असमानता
का व्यवहार रहा है।
पुरूष प्रधान समाज, अंधविश्वास, रुढ़िवादिता के कारण प्रत्येक समाज में स्त्रियों के साथ असमानता का व्यवहार होता रहा है। शिक्षा के प्रसार व महिला जागरुकता के कारण अब परिवारों में महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार होने लगा। परन्तु आदिवासी समाजों में अभी भी महिलाओं के प्रति समान व्यवहार नहीं किया जाता।
पुरूष प्रधान समाज, अंधविश्वास, रुढ़िवादिता के कारण प्रत्येक समाज में स्त्रियों के साथ असमानता का व्यवहार होता रहा है। शिक्षा के प्रसार व महिला जागरुकता के कारण अब परिवारों में महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार होने लगा। परन्तु आदिवासी समाजों में अभी भी महिलाओं के प्रति समान व्यवहार नहीं किया जाता।
लिंग असमानता दूर करने हेतु सुधारात्मक उपाय–
लिंग समानता लाने के लिए हम निम्नलिखित उपाए कर सकते हैं(1)जनसंचार माध्यमों द्वारा जागरूकता पैदा करना (To create an awarness through means of mass communication)
समाज
में लिंग समानता के
लिए रेडियो, टी.वी. जैसे जनसंचार साधनों
द्वारा ऐसे कार्यक्रम दिखाए जाएँ
जिसमें महिलाओं को उनकी
परम्परागत भूमिका से भिन्न
भूमिका दी जाए। महिलाएं नौकरी करते
हुए दिखाई जाएँ, पुरुषों को घर के
कामकाज में सहयोग करते
दिखाया जाए। लिंग भेद को दूर
करने के लिए बनाई
गई संवैधानिक व्यवस्थाओं व कानून के विषय
में जानकारी दी जाए।
(2) कानून (Law)
भारतीय
समाज में लिंग भेद
का अनुभव करते हुए
कानून के द्वारा इसे
दूर किया जाए। संविधान में दिया
गया है कि राज्य, धर्म, लिंग, जन्म, स्थान आदि
के आधार पर नागरिकों
में कोई भेद नहीं
करेगा। समान कार्य
के लिए स्त्री-पुरुष को समान
वेतन देने की
बात भी कही गई है। लड़की भी लड़कों के समान अपने पिता की सम्पत्ति की अधिकारी होगी। इसके अतिरिक्त हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, सती निवारक अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम तथा राज्य कर्मचारी बीमा अधिनियम के द्वारा जेण्डर समानता के प्रयास हुए हैं। अत: आवश्यक यह होगा कि लोगों को इन अधिकारों व कानूनों की जानकारी दी जाए।
बात भी कही गई है। लड़की भी लड़कों के समान अपने पिता की सम्पत्ति की अधिकारी होगी। इसके अतिरिक्त हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, सती निवारक अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम तथा राज्य कर्मचारी बीमा अधिनियम के द्वारा जेण्डर समानता के प्रयास हुए हैं। अत: आवश्यक यह होगा कि लोगों को इन अधिकारों व कानूनों की जानकारी दी जाए।
(3) परस्पर सहयोग (Mutual Cooperation)
भारत में
लिंग समानता के लिए
संगठन व आयोग कार्यरत
हैं; जैसे—महिला आयोग, महिला संगठन व राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार
आयोग। इसके अतिरिक्त
सरकारी, गैर-सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी संगठन
भी प्रयासरत हैं। अच्छा यह होगा कि
ये सभी संगठन आपसी
सहयोग से कार्यरत हों, तभी ये सभी सफल हो
सकते हैं।
(4) महिला सशक्तिकरण (Women empowerment)
महिलाओं को
सशक्त बनाए बिना लिंग
समानता नहीं आ सकती। नोबेल पुरस्कार
विजेता डॉ. अमर्त्य सेन ने स्त्री
व पुरुष में असमानता
के सात कारण बताए
हैं। जो कि
इस प्रकार हैं-नैतिकता, उत्पत्ति क्रम, बुनियादी सुविधाएँ, विशेष अवसर, व्यवसाय, प्रभुत्व व परिवार से सम्बन्ध । इन्हें दूर करके
ही महिला सशक्तीकरण सम्भव है। उन्हें अपनी
मानसिकता भी बदलनी होगी।
(5) मुस्लिम समाज की सोच में परिवर्तन (Change in thinking of Muslim community)
मुस्लिम
समुदाय में महिलाओं की
दशा अत्यधिक शोचनीय है
। उन्हें शिक्षित करना
व आर्थिक आजादी देना
मुस्लिम समुदाय नहीं चाहता। हालांकि पैगम्बर मोहम्मद का
कथन है-"यदि तुमने एक
पुरुष को पढ़ाया तो एक व्यक्ति को
पढ़ाया और यदि एक
महिला को पढ़ाया तो
पूरे परिवार को पढ़ाया।" आज
भी मुस्लिम महिलाएँ निरक्षरता
व पर्दा-प्रथा के चलते बदहाली
का शिकार हैं। अत: लिंग समानता के लिए
मुसलमानों की सोच को
बदलना होगा।
(6) शिक्षा (Education)
शिक्षा लिंग
समानता लाने का सबसे
सशक्त साधन है। शिक्षा पुरुषों की
सोच को बदल सकती
है कि वे महिलाओं
को आदर व समानता की दृष्टि से
देखें। महिलाएँ भी हीन-भावना को
दूर कर आत्मगौरव का अनुभव
कर सकती हैं। शिक्षा ही महिलाओं
में आत्मविश्वास पैदा करती है। स्वयं को
स्वावलम्बी बनने, सफलता के आयाम स्थापित
करने के योग्य बनाती
हैं। शिक्षा द्वारा
ही लिंग भेद को
समाप्त कर जेण्डर समानता
स्थापित की जा सकती
है।
लैंगिक/असमानता विषमता को दूर करने में विद्यालय की भूमिका—
लैंगिक विषमता
में कमी लाने में
विद्यालयों का स्थान महत्त्वपूर्ण
है। जिस प्रकार
परिवार का महत्त्व किसी
बालक के विकास में
होता है ठीक उसी
प्रकार औपचारिक शिक्षा के
केन्द्र विद्यालयों के बिना किसी
बालक के सर्वांगीण विकास की
कल्पना भी नहीं की
जा सकती है। विद्यालय को अब समाज
का लघु रूप माना
जाता है जिसके कारण
विद्यालयों में वे समस्त
कार्य तथा गतिविधियाँ आयोजित की
जाती हैं जो समाज में
की जाती हैं। विद्यालय वर्तमान में केवल अध्ययन-अध्यापन
के कार्य तक ही
सीमित नहीं है, अपितु सामाजिक दोषों, कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों
को समाप्त करने में
भी इनकी अग्रणी भूमिका
है। लैंगिक विषमता
को समाप्त करने और
जागरूकता लाने में विद्यालय
की भूमिका निम्न प्रकार
है
1. विद्यालयों की जनतंत्रीय स्वरूप-
लैंगिक विषमता
दूर करने में विद्यालय
अपनी भूमिका निर्वहन विद्यालयी
परिवेश को जनतंत्रीय बनाकर करते
हैं । जनतांत्रिक व्यवस्था में सभी
व्यक्ति समान होते हैं। भारतीय संविधान
भी अपनी सभी नागरिकों
को स्वतन्त्रता, समानता तथा न्याय के
साथ-साथ अधिकार
प्रदान करता है। इसमें जाति, धर्म, जन्म, स्थान तथा
लिंगादि के
आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है और विद्यालय में भी सभी जाति, धर्म, स्थान तथा बालक-बालिकायें और अब तृतीय लिंग (Third Gender) बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी हैं। विद्यालय में समानता का व्यवहार देखकर बालक-बालिकाएँ समान व्यवहार करना एक-दूसरे का आदर करना सीखते हैं, जिससे लैंगिक विषमता में कमी
आती है।
आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है और विद्यालय में भी सभी जाति, धर्म, स्थान तथा बालक-बालिकायें और अब तृतीय लिंग (Third Gender) बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी हैं। विद्यालय में समानता का व्यवहार देखकर बालक-बालिकाएँ समान व्यवहार करना एक-दूसरे का आदर करना सीखते हैं, जिससे लैंगिक विषमता में कमी
आती है।
2. सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास-
वर्तमान विद्यालयों
में बालकों को खाली
बर्तन मानकर ज्ञान को
ढूंसने की अपेक्षा ज्ञान
के प्रकाश को उनके
भीतर निहित माना जाता
है। विद्यालय बालक हो
या बालिकाएँ, उनकी अन्तर्निहित शक्तियों-शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सांवेगिक तथा आध्यात्मिक आदि का
समन्यात्मक विकास करने का
कार्य करते हैं, जिससे धैर्य तथा
विवेकयुक्त सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता
है। सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास
द्वारा विद्यालय लैंगिक मुद्दों पर
समान तथा सकारात्मक विवेकपूर्ण दृष्टि का
विकास करते हैं जिसके
कारण लैंगिक विषमता का
भेदभाव समाप्त होने में
सहायता प्राप्त होती है।
3.व्यक्तिगत विभिन्नता–
प्रत्येक बालक या बालिका स्वयं
में विशिष्ट होता है, क्योंकि उनमें
कुछ व्यक्तिगत विभिन्नताएँ विद्यमान होती हैं, अन्यों की अपेक्षा
। व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त विद्यालयों में बालकों
तथा बालिकाओं दोनों पर समान
रूप से लागू होता
है जिससे बालक-बालिका अर्थात् लिंग
विषयक विषमता नहीं पनपने
पाते हैं।
4. व्यावसायिक शिक्षा-
विद्यालयों में व्यावसायिक शिक्षा प्रदान
की जाती हैं और
बालिकाओं की रुचियों तथा
आवश्यकताओं के अनुरूप उनकी
व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था
विद्यालय करते हैं, जिससे लैंगिक विषमता
में कमी आ रही हैं क्योंकि व्यावसायिक
शिक्षा उन्हें सशक्तीकरण की ओर
अग्रसर करती है।
5.मनोवैज्ञानिकतापूर्ण वातावरण-
विद्यालयी वातावरण शिक्षार्थियों के मनोवैज्ञानिक
पर आधारित होता है
और ऐसे वातावरण में
अधिगम सरल तथा प्रेरणादायक
होता है, जिससे बालिकाओं में मनोवैज्ञानिक सुरक्षा के
भाव का विकास होता
है। इस प्रकार
विद्यालय अपने मनोवैज्ञानिकतापूर्ण वातावरण के द्वारा भी
लैंगिक विषमता को कम
करते हैं।
6. वयस्क शिक्षा की व्यवस्था-
विद्यालय निरक्षरों को साक्षर बनाने, व्यावहारिक कुशलता लाने
के लिए व्यस्क शिक्षा (Adult
Education) की व्यवस्था करते
हैं, जिससे समाज
में जागरूकता आती है और
लड़कियों को लड़कों के
ही समान स्थान प्रदान
किया जाता है।
7.सह-शिक्षा की व्यवस्था विद्यालयों में सह-
शिक्षा का प्रचलन
अब देखा जा रहा
है जिसे भारतीय समाज
भी स्वीकार कर रहा
है। सह-शिक्षा के द्वारा बालक-बालिकाएँ साथ साथ शिक्षा ही नहीं
ग्रहण करते, अपितु सहयोग करना, एक-दूसरे के गुणों तथा
उनकी समस्याओं से अवगत होते
हैं, जिससे परिवार
लिंग के प्रति स्वस्थ
वैचारिक आदान-प्रदान होता है, सुरक्षा का
विस्तार, संवेगात्मक सहयोग का
विकास तथा कुण्ठाओं और भावना
ग्रन्थियों का जन्म नहीं
होता। सह-शिक्षा के द्वारा
बालक-बालिकाओं को सम्मान
और सुरक्षा प्रदान करते
हैं, जिससे लिंगी
दुर्व्यवहार तथा असमानता का
भाव मिटता है।
8. सामूहिकता की भावना का विकास-
विद्यालय भले ही व्यक्तिगत
विभिन्नता का आदर करते
हों, परन्तु वे
सामूहिकता की भावना के
उद्देश्य को प्रमुखता देते हैं
। विद्यालय में इस भावना
के विकास हेतु विभिन्न
कार्य दिये जाते हैं
जो जाति, धर्म, अमीर-गरीब या लिंग
देखकर नहीं दिये जाते। इस प्रकार एक-दूसरे के
सहयोग से भावी जीवन
में भी साथ-साथ काम करने, जीवनयापन करने की
कला का विकास होता
है और लिंगीय विषमता
कम होती हैं।
9.शिक्षण उद्देश्य, पाठ्यक्रम, अनुशासन तथा शिक्षण
विधियों द्वारा
विद्यालयों में प्रवेश बिना
किसी भेदभाव के लिया
जाता है तथा शिक्षण
उद्देश्यों में सभी के
लिए एक समानता होती
है। पाठ्यक्रम में बालिकाओं
की रुचियों, स्त्रियों के त्याग, धैर्य तथा वीरता
की कथायें और उनकी
और उनकी उपलब्धियों का वर्णन
होता है। प्रभावी तथा सामाजिक अनुशासन
के द्वारा बालिकाओं का आदर
करना, गत्यात्मक शिक्षण विधियों
के प्रयोग द्वारा भी
लैंगिक विषमताओं को कम करने
का प्रयास विद्यालय द्वारा किया
जा रहा है।
10. प्रशिक्षित शिक्षक-
शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के द्वारा आदर्श
शिक्षक के गुण, अधिगम की प्रभाविता, विद्यालय तथा समाज
के मध्य सम्बन्ध, लैंगिक मुद्दों पर
जागरूकता इत्यादि का ज्ञान और
प्रशिक्षण प्रदान किया जाता
है जिससे शिक्षक में
उदारता का दृष्टिकोण और नवीन
विचारों का सृजन होता
है। प्रशिक्षित शिक्षक विद्यालय और अपने
सम्पर्क के परिवेश में
लैंगिक विषमताओं को नहीं पनपने देते
हैं।
11. अन्य अभिकरणों से सहयोग-
विद्यालय को वर्तमान
युग में समाज और
राष्ट्र निर्माता कहा जाता है। किसी भी
देश की दिशा और
दशा का निर्धारण वहाँ के
विद्यालय करते हैं। विद्यालयों को लैंगिक मुद्दों
पर अपनी सशक्त भूमिका
के निर्माण के लिए
अन्य अभिकरणों, जैसे–परिवार, समाज, समुदाय तथा राज्य आदि से
सहयोग प्राप्त करना चाहिए।
लैंगिक विषमता को दूर करने में मीडिया की भूमिका–
वर्तमान में
मीडिया एक शक्तिशाली स्रोत है। इसी कारण
मीडिया लैंगिक विषमता को
दूर करने में एक
सक्रिय एवं सार्थक भूमिका
निभा सकता है। महिलाओं से जुड़ी समस्याओं को जन सामान्य
के सामने लाकर उनका
समाधान ढूँढ़ सकता है
तथा विभिन्न क्षेत्रों; जैसे—शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, न्याय आदि में महिलाओं
के लिए एक सकारात्मक
वातावरण बना सकता है।
वर्तमान समय में यह नितान्त आवश्यक है कि महिलाएँ स्वयं आकर मीडिया से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में बागडोर संभाले और जनसंचार साधनों के माध्यम से नारी की बिगड़ी हुई छवि सुधारे तथा इन साधनों का प्रयोग नारी उत्थान एवं सशक्तिकरण के लिए करें, कई मायनों में प्रयास भी हो रहे हैं। सिनेमा के माध्यम से भी अच्छी छवि या सफल और शक्तिशाली महिलाओं को रोल मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जिससे समाज की अन्य महिलाओं में आत्मविश्वास का तीव्र संचार उत्पन्न होता है कि अगर अमुक महिला एक महिला होते हुए सफलता का परचम लहरा सकती है तो वह क्यों नहीं। वस्तुतः यही वह वैचारिक है जो महिलाओं को अन्दर से इतना मजबूत बना देती है कि वह ना केवल अपने को इस वर्ग का हिस्सा होने में गर्वान्वित महसूस करती है बल्कि आत्मविश्वास से भरकर अबला, कमजोर, आश्रित के बेरी को तोड़कर सामान्य से असामान्य लक्ष्य भेद की ओर अग्रसर होकर अन्तत: उसमें सफलता प्राप्त करती है।
वर्तमान समय में यह नितान्त आवश्यक है कि महिलाएँ स्वयं आकर मीडिया से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में बागडोर संभाले और जनसंचार साधनों के माध्यम से नारी की बिगड़ी हुई छवि सुधारे तथा इन साधनों का प्रयोग नारी उत्थान एवं सशक्तिकरण के लिए करें, कई मायनों में प्रयास भी हो रहे हैं। सिनेमा के माध्यम से भी अच्छी छवि या सफल और शक्तिशाली महिलाओं को रोल मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जिससे समाज की अन्य महिलाओं में आत्मविश्वास का तीव्र संचार उत्पन्न होता है कि अगर अमुक महिला एक महिला होते हुए सफलता का परचम लहरा सकती है तो वह क्यों नहीं। वस्तुतः यही वह वैचारिक है जो महिलाओं को अन्दर से इतना मजबूत बना देती है कि वह ना केवल अपने को इस वर्ग का हिस्सा होने में गर्वान्वित महसूस करती है बल्कि आत्मविश्वास से भरकर अबला, कमजोर, आश्रित के बेरी को तोड़कर सामान्य से असामान्य लक्ष्य भेद की ओर अग्रसर होकर अन्तत: उसमें सफलता प्राप्त करती है।
मीडिया के माध्यमों
द्वारा महिलाओं को विचार
स्वतंत्रता हेतु मंच प्रदान
किया जा रहा है
जो उनसे सम्बन्धित मुद्दों पर
न्याय पाने और न्याय
नहीं मिलने जैसी दोनों
ही स्थिति में व्यवस्था पर दबाव समूह
के रूप में कार्य
करती है, मीडिया चैनलों में समाचार
संवाददाता, समाचार एंकर
और समाचार निर्माता जैसे चुनौतिपूर्ण
उत्तरदायित्व द्वारा सम्पूर्ण समाज के
अनेक सक्षम नेतृत्व और
प्रतिनिधित्व के प्रति एक
सकारात्मक माहौल का निर्माण
कर समाज के सामने
अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर
रहा है।
समाज में किसी वर्ग के सशक्तिकरण के लिए मात्र कानून या योजना बना देना अपने आप में उस वर्ग की भलाई या कानून की सफलता का पैमाना नहीं हो सकता। बल्कि इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनता तक उस कानून या योजना के बारे में सही और समुचित जानकारी समय पर पहुँचती है कि नहीं। सही जानकारी जनता को जहाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाती हैं वहाँ जब कोई उसके अधिकारों का हनन करता है तो वह उसके विरोध में एकजुट खड़ा होने का प्रयास करता है। अगर उसे अपने अधिकारों का भी पता ही होता तो वह किस अधिकार को प्राप्त करने का प्रयास करेगा। शायद यही कारण है कि Knowledge is power वाली बात Information is power में बदल गयी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं प्रिन्ट मीडिया में कानूनों, सरकारी व गैर सरकारी योजनाओं एवं इससे सम्बन्धित विस्तृत सूचनाओं को अपने विभिन्न कार्यक्रमों एवं ऐड कपेन माध्यमों से महिलाओं तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस क्रम में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रचार अभियान जिससे जनसंचार माध्यमों की सक्रिय भागीदारी निरन्तर देखी जा सकती है, वे हैं-सर्व शिक्षा अभियान के तहत शिक्षा का प्रचार, महिलाओं को छात्रवृत्ति योजना, जननी सुरक्षा के तहत शिक्षा का जच्चा-बच्चा का सुरक्षा उपाय, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन प्रधानमंत्री निधि, शिशु सुरक्षा योजना, जन्म के समय बच्चों को पीला दूध पिलाओं अभियान, राष्ट्रीय आरोग्य निधि जिसमें तहत 15 साल से कम उम्र के बच्चों को मुफ्त इलाज, मेरा वोट मेरा अधिकार वाई.बी. एन 7 का अभियान, जिन्दगी लाइव, टाटा टी का जागो रे जागो एवं महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति 2000 इत्यादि प्रमुख हैं।
समाज में किसी वर्ग के सशक्तिकरण के लिए मात्र कानून या योजना बना देना अपने आप में उस वर्ग की भलाई या कानून की सफलता का पैमाना नहीं हो सकता। बल्कि इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनता तक उस कानून या योजना के बारे में सही और समुचित जानकारी समय पर पहुँचती है कि नहीं। सही जानकारी जनता को जहाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाती हैं वहाँ जब कोई उसके अधिकारों का हनन करता है तो वह उसके विरोध में एकजुट खड़ा होने का प्रयास करता है। अगर उसे अपने अधिकारों का भी पता ही होता तो वह किस अधिकार को प्राप्त करने का प्रयास करेगा। शायद यही कारण है कि Knowledge is power वाली बात Information is power में बदल गयी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं प्रिन्ट मीडिया में कानूनों, सरकारी व गैर सरकारी योजनाओं एवं इससे सम्बन्धित विस्तृत सूचनाओं को अपने विभिन्न कार्यक्रमों एवं ऐड कपेन माध्यमों से महिलाओं तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस क्रम में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रचार अभियान जिससे जनसंचार माध्यमों की सक्रिय भागीदारी निरन्तर देखी जा सकती है, वे हैं-सर्व शिक्षा अभियान के तहत शिक्षा का प्रचार, महिलाओं को छात्रवृत्ति योजना, जननी सुरक्षा के तहत शिक्षा का जच्चा-बच्चा का सुरक्षा उपाय, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन प्रधानमंत्री निधि, शिशु सुरक्षा योजना, जन्म के समय बच्चों को पीला दूध पिलाओं अभियान, राष्ट्रीय आरोग्य निधि जिसमें तहत 15 साल से कम उम्र के बच्चों को मुफ्त इलाज, मेरा वोट मेरा अधिकार वाई.बी. एन 7 का अभियान, जिन्दगी लाइव, टाटा टी का जागो रे जागो एवं महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति 2000 इत्यादि प्रमुख हैं।
महिलाओं से
सम्बन्धित कानून और कल्याणकारी
योजनाओं की जानकारी महिलाओं
तक पहुँचाने, उनके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षणिक
अधिकारों की बात करने, उनका समर्थन
करने, महिला सशक्तिकरण
को अपनी मूल्यवान, सक्रिय और प्रतिभाशाली
भूमिका और समाज में
अपनी पहचान सालों के
आधार पर नहीं बल्कि
हर घंटे के आधार
पर दिये जा रहे
अंजाम के रूप में
देखा, सुना और
पढ़ा जा सकता है।
लिंग समानता की आवश्यकता
लिंग समानता
की समझ को विकसित
करने में शिक्षक का योगदान
लिंग समानता की
आवश्यकता एवं महत्त्व
लिंग समानता की
आवश्यकता एवं महत्त्व भारतीय
समाज में लिंग समानता
की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्न प्रकार से
हैं
1. मानवीय संसाधनों के समुचित उपयोग के लिए राष्ट्र विकास के लिए यह आवश्यक है कि उपलब्ध मानव संसाधनों का समुचित उपयोग हो। महिलाएँ भी महत्त्वपूर्ण मानव संसाधन हैं, अत: इन्हें भी कुशल बनाया जाए तथा इसके लिए इन्हें पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाएँ अर्थात् लिंग समानता स्थापित की जाए।
2. प्रजातंत्र की सफलता के लिए भारत में प्रजातंत्र तभी पूरी तरह सफल होगा जब महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर समानता का व्यवहार किया जाए। यद्यपि संविधान द्वारा लिंग समानता स्थापित की गई है परन्तु आज भी वे न्याय से वंचित हैं तथा उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। अतः भारत में प्रजातंत्र की सफलता के लिए लिंग समानता आवश्यक है।
3. मानवाधिकारों की रक्षा संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित मानवाधिकार प्रत्येक मानव के लिए है चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। समाज के वर्ग को इनसे वंचित करना उनके अधिकारों का हनन है। इसे रोकने के लिंग समानता आवश्यक है।
4.लिंगसमानता प्रकृति का नियम–प्रकृति का नियम है कि केवल पुरुष से यह सृष्टि नहीं चल सकती। मानव प्रकृति के इस नियम की उपेक्षा कर प्रकृति को चुनौती दे रहा है। आज भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या निरन्तर घट रही है। अतः लिंग समानता प्राकृतिक माँग है।
5.भारतीय संस्कति की रक्षा प्राचीन भारत में स्त्रियों को पुरुषों के समान समझा जाता था। हिन्दू धर्म में नारी को अर्धांगिनी, धर्मपत्नी कहा गया है। अत: नर व नारी एक दूसरे के पूरक हैं। किसी भी सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठान में स्त्री की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। अत: महिलाओं को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलना चाहिए। अत: लिंग समानता आवश्यक है।
6. महिलाओं में आत्मविश्वास का विकास—आज महिला केवल घर में नहीं, बाहर भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर सकती है। महिलाएं पुरुषों से कम योग्य नहीं होती। आज महिलाओं ने भी अपना वर्चस्व उन क्षेत्रों में कायम कर लिया है जिसमें केवल पुरुषों का एकाधिकार समझा जाता था। अत: आवश्यक है कि महिलाएँ अपनी प्रतिमा पहचानें और पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़े। परन्तु लिंग भेद के कारण वे हीन-भावना से ग्रस्त हैं । अत: लिंग समानता द्वारा ही महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा किया जा सकता है।
7. अच्छे पारिवारिक सम्बन्ध भारतीय समाज में लड़की का पालन-पोषण ही ऐसा होता है कि उनमें हीन-भावना पनपने लगती है। बचपन में पति व बुढ़ापे में पुत्र उसकी रक्षा करते हैं। जिससे उसके स्वाभिमान व आत्मविश्वास को ठेस पहुंचती है। दूसरे पुरुष स्वयं को श्रेष्ठ समझता है, जिससे स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्धों में कटुता पैदा हो जाती है। अत: अच्छे पारिवारिक सम्बन्धों के लिए लिंग समानता आवश्यक है।
अत: स्पष्ट है कि लिंग समानता समय की मांग है। पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों की योग्यताओं का लाभ भी समाज को मिलना चाहिए।
1. मानवीय संसाधनों के समुचित उपयोग के लिए राष्ट्र विकास के लिए यह आवश्यक है कि उपलब्ध मानव संसाधनों का समुचित उपयोग हो। महिलाएँ भी महत्त्वपूर्ण मानव संसाधन हैं, अत: इन्हें भी कुशल बनाया जाए तथा इसके लिए इन्हें पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाएँ अर्थात् लिंग समानता स्थापित की जाए।
2. प्रजातंत्र की सफलता के लिए भारत में प्रजातंत्र तभी पूरी तरह सफल होगा जब महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर समानता का व्यवहार किया जाए। यद्यपि संविधान द्वारा लिंग समानता स्थापित की गई है परन्तु आज भी वे न्याय से वंचित हैं तथा उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। अतः भारत में प्रजातंत्र की सफलता के लिए लिंग समानता आवश्यक है।
3. मानवाधिकारों की रक्षा संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित मानवाधिकार प्रत्येक मानव के लिए है चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। समाज के वर्ग को इनसे वंचित करना उनके अधिकारों का हनन है। इसे रोकने के लिंग समानता आवश्यक है।
4.लिंगसमानता प्रकृति का नियम–प्रकृति का नियम है कि केवल पुरुष से यह सृष्टि नहीं चल सकती। मानव प्रकृति के इस नियम की उपेक्षा कर प्रकृति को चुनौती दे रहा है। आज भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या निरन्तर घट रही है। अतः लिंग समानता प्राकृतिक माँग है।
5.भारतीय संस्कति की रक्षा प्राचीन भारत में स्त्रियों को पुरुषों के समान समझा जाता था। हिन्दू धर्म में नारी को अर्धांगिनी, धर्मपत्नी कहा गया है। अत: नर व नारी एक दूसरे के पूरक हैं। किसी भी सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठान में स्त्री की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। अत: महिलाओं को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलना चाहिए। अत: लिंग समानता आवश्यक है।
6. महिलाओं में आत्मविश्वास का विकास—आज महिला केवल घर में नहीं, बाहर भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर सकती है। महिलाएं पुरुषों से कम योग्य नहीं होती। आज महिलाओं ने भी अपना वर्चस्व उन क्षेत्रों में कायम कर लिया है जिसमें केवल पुरुषों का एकाधिकार समझा जाता था। अत: आवश्यक है कि महिलाएँ अपनी प्रतिमा पहचानें और पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़े। परन्तु लिंग भेद के कारण वे हीन-भावना से ग्रस्त हैं । अत: लिंग समानता द्वारा ही महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा किया जा सकता है।
7. अच्छे पारिवारिक सम्बन्ध भारतीय समाज में लड़की का पालन-पोषण ही ऐसा होता है कि उनमें हीन-भावना पनपने लगती है। बचपन में पति व बुढ़ापे में पुत्र उसकी रक्षा करते हैं। जिससे उसके स्वाभिमान व आत्मविश्वास को ठेस पहुंचती है। दूसरे पुरुष स्वयं को श्रेष्ठ समझता है, जिससे स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्धों में कटुता पैदा हो जाती है। अत: अच्छे पारिवारिक सम्बन्धों के लिए लिंग समानता आवश्यक है।
अत: स्पष्ट है कि लिंग समानता समय की मांग है। पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों की योग्यताओं का लाभ भी समाज को मिलना चाहिए।
लिंग समानता का प्राप्त करने में अध्यापक की भूमिका
Role of
a Teacher in achieving Gender Equality)
(1) कक्षा में
लड़कों व लड़कियों पर समान ध्यान दें।वह ध्यान रखें
कि लड़कियाँ एक ओर दुबक कर न बैठी रहें, वरन् कक्षा की
प्रत्येक गतिविधि में समान
रूप से भाग लें। (2) यदि लड़कियाँ किसी विषय में पिछड़ रही हैं तो उसका कारण जानकर उसे दूर करने का प्रयास करें।
(3) वह कार्यों का विभाजन लिंग-भेद के आधार पर न करें। रजिस्टर व चाक लाना, सूचना पट्ट पर विद्यार्थियों की उपस्थिति, समाचार व महत्त्वपूर्ण कथन लिखना तथा मॉनीटर के रूप में कक्षा में अनुशासन स्थापित करना आदि कार्य करने का अवसर क्रमशः सभी बालक-बालिकाओं को दें।
(4) वह कक्षा में लिंग-भेद को प्रदर्शित करने वाले कथन; जैसे–'तुम लड़कियों की तरह क्यों रो रहे हो','तुम लड़कों की तरह क्यों उछल कूद रहे हो' जैसे कथनों का प्रयोग न करें।
(5) यदि किसी कार्य के लिए समूह बनाने हों तो वह लड़कों-लड़कियों के मिले-जुले समूह बनाएँ।
(6) लड़कों और लड़कियों दोनों को ही उत्तरदायित्व तथा चुनौतीपूर्ण कार्य दिए जाने चाहिए।
(7) अध्यापक का स्वयं का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिए। यदि वह पूर्वाग्रह (Prejudice) से ग्रस्त है तो वह लिंग समानता लाने का कार्य कर ही नहीं सकता क्योंकि उसके मनोभाव किसी-न-किसी रूप में उसके व्यवहार में अवश्य ही प्रतिबिम्बित हो जाएंगे।
(8) वह बालक-बालिकाओं के कार्य की तुलना न करें। वह उन्हें परम्परागत भूमिका से हटकर एक दूसरे के लिए निर्धारित भूमिकाओं का निर्वाह करने के लिए अवसर प्रदान करें।
(9) वह बालक-बालिकाओं की योग्यताओं को पहचान कर उन्हें विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।
(10) वह बच्चों के माता-पिता से सम्पर्क करके उन्हें भी लिंग समानता के लिए प्रेरित करें। वह लड़कियों के प्रति उनके परम्परागत विचारों को बदल कर उन्हें उनको अपनी क्षमतानुसार आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करने के लिए तैयार करें।
(11) समाज में विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत सफल महिलाओं को विद्यालय में आमन्त्रित करके विद्यार्थियों को उनसे प्रेरणा लेने का अवसर प्रदान करें।
लिंग समानता
को विकसित करने में
परिवार की भूमिका
लिंग समानता को विकसित
करने में परिवार की
भूमिका समाज में जाति, भाषा, धर्म, रंग, प्रजाति, देश, जन्मस्थान आदि के आधार
पर मनुष्य, मनुष्यों से भेदभावपूर्ण व्यवहार सदियों
से करता आया है। इसी प्रकार
का एक भेदभाव है
लैंगिकता को लेकर किया
जाने वाला भेदभाव। स्त्री-पुरुष दोनों ही ईश्वर
की अमूल्य कृतियाँ हैं
या यूँ कहें कि
एक व्यक्ति की दोनों
आँखों के समान हैं, फिर भी
स्त्रियों को सदैव पुरुषों
की अपेक्षा नीचा समझा
जाता है। उनसे सम्मानपूर्ण तथा बराबरी का
व्यवहार नहीं किया जाता
है। चूंकि कोई
भी व्यक्ति के विचारों, आदर्शों, मान्यताओं तथा दृष्टिकोणों की नींव परिवार
में पड़ती है। अत: इस ज्वलन्त समस्या का
समाधान भी पारिवारिक पृष्ठभूमि में खोजने
का प्रयास इन बिन्दुओं
के अन्तर्गत किया जा रहा
है 1.सर्वांगीण विकास का कार्य
परिवार को अपने सभी
बच्चे, चाहे वे
लड़की हों या लड़के, सर्वांगीण विकास के
प्रयास का कार्य करना
चाहिए, जिससे उनमें
किसी प्रकार की हीनता
का भाव न पनप पायें। जिन बालकों को सर्वांगीण
विकास नहीं होता, उनमें हीनता की
भावना व्याप्त रहती है
और वे विकृत मानसिकता
से शिकार होकर लैंगिक
भेदभावों को जन्म देते
हैं तथा महिलाओं के
प्रति संकीर्ण विचार रखते
हैं।
2. समानता का व्यवहार--
परिवार में यदि लड़के-लड़कियों के प्रति
समानता का व्यवहार किया
जाता है तो ऐसे
परिवारों में लिंगीय भेदभाव
कम होते हैं। समानता के व्यवहार
के अन्तर्गत लडके-लडकियों को पारिवारिक कार्यों में
समान स्थान, समान शिक्षा, रहन-सहन और
खान-पान की
सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए, जिससे प्रारम्भ
से ही बालकों में
श्रेष्ठता का बोध स्थापित
न हो और वे बालिकाओं
और भविष्य में महिलाओं
के साथ समान व्यवहार
करेंगे। पारिवारिक सदस्यों को
चाहिए कि वे लिंगीय टिप्पणियाँ, भेदभाव तथा शाब्दिक निन्दा और
दुर्व्यवहार कदापि न करें, क्योंकि बालक
जैसा देखता है वह
वैसा ही अनुकरण करता
है। इस प्रकार
परिवार में किया जाने
वाला समानता का व्यवहार
लैंगिक भेदभावों को कम करने
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता
है।
3.समान शिक्षा की व्यवस्था
परिवारों में प्राय: देखा जाता है
कि लड़के-लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था
में असमानता का व्यवहार
किया जाता है, जिससे लड़कियाँ उपेक्षित और पिछड़ी
रह जाती हैं। लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था
भी उत्तम कोटि की
करनी चाहिए, परन्तु पैसे इत्यादि की
समस्याओं के कारण लड़कियों
की रुची इत्यादि के अनुरूप शिक्षा
व्यवस्था नहीं मिल पाती
है, जिससे वे
स्वावलम्बी नहीं बन पाती
हैं। अत: लैंगिक भेदभाव को
कम करने के लिए
लड़कों के समान ही लड़कियों
की शिक्षा की व्यवस्था
करनी चाहिए, जिससे लड़के-लड़की के मध्य भेदभाव
में लड़कियों की शैक्षिक स्थिति
उन्नत होने से सुधार
आयेगा।।
4.उदार दृष्टिकोण का विकास-
परिवारों में महिलाओं
और लड़कियों के प्रति संकीर्ण
दृष्टिकोण बरता जाता है। पारिवारिक कार्यों तथा
महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय
लेते समय महिलाओं की
राय पूछी तक नहीं
जाती है और यही
भाव परिवार की भावी
पीढ़ियों में भी व्याप्त
हो जाता है। महिलाओं को कठोर
सामाजिक और पारिवारिक प्रतिबन्धों में रहना
पड़ता है। यदि उनसे कोई चूक
हो जाये तो कठोर
दण्ड दिये जाते हैं। इस प्रकार
परिवार के सदस्यों तथा
रीति-रिवाजों एवं
परम्पराओं में महिलाओं के
प्रति उदार दृष्टिकोण का विकास
करना चाहिए। इस प्रकार महिलाओं को
भी समुचित स्थान और
सम्मान मिलेगा तथा उनको
समानता का अधिकार मिलेगा।
5. बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना—
परिवार को चाहिए कि
वह अपने बालकों को
बालिकाओं के महत्त्व से
परिचित कराये जिससे वे
धाक जमाने की बजाय
सम्मान करना सीखें । बालिकाएँ ही बहन, माता, पत्नी आदि हैं और
इन रूपों की उपेक्षा
करके पुरुष का जीवन
अपूर्ण रह जायेगा।
6.साथ-साथ रहने, कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास
परिवार परस्पर सहयोग की
नींव डालता हैं और
अपने सदस्यों में, जिससे स्त्री-पुरुष के मध्य
किसी भी प्रकार का
भेदभाव नहीं रहता है, क्योंकि कार्य
सम्पादन में दोनों ही
एक-दूसरे का
सहयोग कर रहे हैं। साथ-साथ कार्य करने
की प्रवृत्ति के द्वारा महिलाओं
की महत्ता स्थापित होती
है जिससे लैंगिक भेदभावों
में कमी आती है।
7. पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता-
परिवार को अपने सभी
सदस्यों की रुचि के
अनुरूप कार्यों में सहभागिता
सुनिश्चित करनी चाहिए न कि लिंग के
आधार पर। अधिकांश परिवारों में लड़कों और
लड़कियों के लिए कार्यों
का एक दायरा बना
दिया जाता हैं जो उचित है। इससे लड़कियाँ कभी भी
बाहरी दुनिया और बाह्य
कार्यों को कर नहीं
पाती हैं और उन्हें
इस हेतु अयोग्य समझा
जाता है और बाहरी
कार्यों को करने में
वे स्वयं भी असहज
महसूस करने लगती हैं।
8.हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग
निषेध-परिवार में
भाषा का प्रयोग कैसा
हो रहा है, उसका प्रभाव भी
लैंगिक भेदभावों पर पड़ता है। कुछ परिवारों
में लड़कियों और महिलाओं के
लिए हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग किया
जाता है जिससे वे
हीन भावना की शिकार
हो जाती है और
बालकों का मनोबल बढ़ता
है। वे भी
बालिकाओं को सदैव हीन
समझकर उनके लिए हीनतायुक्त
शब्दावली का प्रयोग करते
हैं, जिससे लैंगिक
भेदभावों को बढ़ावा मिलता
है।
9.सामाजिक वातावारण में बदलाव-
परिवार को चाहिए
कि वह लड़के-लड़कियों में किसी भी
प्रकार का भेदभाव न करें। ऐसी सामाजिक परम्पराएँ जिसमें लड़कियों
के प्रति भेदभाव किया
जाता है और उनकी
सामाजिक स्थिति में ह्रास
आता हो, ऐसी स्थितियों में परिवार को बदलाव लाने की पहल
करनी चाहिए। परिवार से ही सामाजिक
वातावरण को सुधारा जा
सकता है क्योंकि समाज
परिवार का समूह होता
है।
10. अन्धविश्वासों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार-
लड़के ही वंश चलाते
हैं, वे ही
नरक से पिता को
बचाते हैं, पैतृक कर्मों तथा सम्पत्तियों को वहीं
संचालित करते हैं, पुत्र ही अन्त्येष्टि तथा पिण्डदान इत्यादि कार्य
करते हैं। इस प्रकार के कई
अन्धविश्वास और जड़ परम्पराएँ
परिवारों में मानी जाती हैं। अत: इन परम्पराओं और विश्वासों
को तार्किकता की कसौटी पर
कसना चाहिए। यदि परिवार इन जड़
परम्पराओं, अन्धविश्वासों और कुरीतियों के प्रति
जागरूक हो जाये तो
स्त्रियों की स्थिति स्वत: उन्नत हो
जायेगी।
11. उच्च चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण
परिवारों
को चाहिए कि वे
अपनी संततियों के उच्च चरित्र
तथा सुदृढ़ व्यक्तित्व निर्माण पर
बल दें। उच्च चरित्र और व्यक्तित्व
सम्पन्न व्यक्ति अपने अस्तित्व
के साथ-साथ सभी के अस्तित्व
का आदर करता है। स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी
आदि उच्च चरित्र तथा
सुदृढ़ व्यक्तित्व वाले नायकों ने
स्त्रियों की समानता पर
बल दिया। इस प्रकार चारित्रिक और व्यक्तित्व
के विकास के द्वारा
परिवार लैंगिक भेदभावों में कमी
करने का प्रयास कर
सकते हैं।
12. व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा-
परिवार को
चाहिए कि वह अपने सभी
सदस्यों को आत्मनिर्भर बनाने के
लिए उनकी व्यावसायिक कुशलता की
उन्नति हेतु प्रयास करे। यह शिक्षा
परिवार द्वारा औपचारिक तथा
अनौपचारिक दोनों ही प्रकार
से प्राप्त कराने का
प्रबन्ध किया सकता है। जब परिवार
के सभी सदस्य अपने-अपने कार्यों
में संलग्न रहेंगे तो
उनके विचारों और सोच में गतिशीलता
आयेगी जिससे लैंगिक भेदभावों
में कमी आयेगी।
13. जिम्मेदारियों का अभेदपूर्ण वितरण
परिवार में स्त्री-पुरुष लड़के-लड़कियों के मध्य
लिंग के आधार पर
भेदभाव न करके सभी
प्रकार की जिम्मेदारियाँ बिना भेदभाव
के प्रदान. करनी चाहिए, जिससे लैंगिक भेदभाव की
बात तक भी दिमाग
में न आये।
14. आर्थिक संसाधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति का समापन-
परिवार को
चाहिए कि वह आर्थिक
संसाधनों को इस प्रकार
प्रबन्धन और वितरण करें
कि स्त्री-पुरुष में किसी भी
प्रकार का कोई भेदभाव
न रहे। इस प्रकार आर्थिक संसाधनों
पर पुरुष वर्ग के
एकाधिकार की समाप्ति का
परिवार लैंगिक भेदभावों को समाप्त
करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का
निर्वहन कर सकते हैं।
15. बालिकाओं को आत्म-
प्रकाशन के अवसरों
की प्रधानता परिवार में बालिकाओं
की रुचियों और प्रवृत्तियों
के आत्म-प्रकाशन के अवसर बालकों के
समान ही प्रदान करने चाहिए, इससे उनमें
आत्मविश्वास आयेगा, हीनता नहीं आयेगी और
अपनी प्रतिभा को प्रकाशित
करने का उन्हें अवसर
प्राप्त होगा। आत्म-प्रकाशन के द्वारा
उनमें भावना ग्रन्थियाँ नहीं पनपेंगी।
16. सशक्त बनाना—
कुछ परिवारों
में प्रत्येक कार्य में लड़कियों
को यह स्मरण कराया
जाता है कि वे लड़कियाँ
हैं, अत: उन्हें अपनी सीमा में रहना
चाहिए, परन्तु इस
प्रकार का व्यवहार उनमें
कुण्ठा और निराशा के
भाव भर देता है
वहीं यदि परिवार के
सदस्य सदैव महिलाओं के सशक्त
रूप का वर्णन और
प्रोत्साहन करते हैं तो
ऐसे परिवारों में लड़कियाँ भी लड़कों
के समान सभी उत्तरदायित्वों
को पूर्ण करती हैं। अत: परिवार को चाहिए
कि वे स्त्री को
अबला न समझकर उसे
शक्ति और सबला समझें
जिससे भावी पीढ़ियों की सोच
में परिवर्तन आयेगा और लैंगिक
भेदभावों में कमी आयेगी।
लिंग समानता के विकास में शिक्षा को प्रभावी बनाने हेतु सुझाव
लैंगिकता की शिक्षा में प्राथमिक शिक्षा का महत्त्व तो एक स्वर से स्वीकार है। इस समय बालकों के अपरिपक्व मन पर जो छाप पड़ जाती है, वह आजीवन बनी रहती है। अब प्राथमिक शिक्षा की लैंगिकता की शिक्षा के विकास में प्रभावी बनाने हेतु कुछ सुझाव इन बिन्दुओं में दिये जा रहे हैं1. पाठ्यक्रम इस प्रकार से निर्मित किया जाए कि विपरीत लिंग के प्रति आदर और सम्मान का भाव विकसित हो।
2. महिलाओं के कार्यों एवं उनकी आवश्यकता से परिचित कराना।
3. विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के योगदान से परिचित कराना।
4. स्त्रियों के विभिन्न रूपों तथा गुणों से परिचित कराना । बालकों को तथा बालिकाओं
को भी पुरुष के विविध रूपों, उनके कार्यों, आवश्यकता तथा महत्त्व से अवगत
कराकर स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोण का विकास करना।
5. गतिशील तथा प्रयोगात्मक शिक्षण विधियों का प्रयोग करना, जिससे बालक
बालिकाओं में सहयोग की भावना का विकास हो।
6. स्वानुशासन की प्रणाली का विकास।
7. खेलकूदों का आयोजन।
8. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन कराना, जिससे स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोण का विकास हो सके।
9. शिक्षकों, शिक्षिकाओं तथा समस्त विद्यालयों में बालकों और बालिकाओं के प्रति समान व्यवहार के द्वारा।
10. अभिभावकों के मीटिंग में लैंगिक मुद्दों को उठाना और उन्हें बेटा-बेटी एक समान के लिए जागरूक करना।
11. छोटे-छोटे बच्चों को लैंगिक मुद्दों का अग्रदूत बनाकर विद्यालय से बाहर जागरूकता के कार्यक्रमों का आयोजन कराना।
12. प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में लिंगानुपात, महिला साक्षरता दर इत्यादि आँकड़ों का प्रदर्शन होना चाहिए।
13. प्रत्येक बालक तथा बालिका को स्नेह तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करना।
14. लिंगीय टिप्पणियों तथा भेदभावों पर सख्त कार्यवाही।
15. कहानियों, कार्टून, चलचित्र और सिनेमा द्वारा लिंगीय अभेदपूर्ण व्यवहार की शिक्षा प्रदान करना।
16. प्रशासनिक स्तर पर भी प्रयास, जिससे प्राथमिक शिक्षा लिंगीय भेदभावों से मुक्त सके।
17. प्राथमिक शिक्षा में सह-शिक्षा का प्रचलन।
18. इस स्तर पर महिला शिक्षिकाओं की अधिक मात्रा में नियुक्ति हो
19. प्राथमिक स्तर के शिक्षकों तथा शिक्षिकाओं को समय-समय पर लैंगिक मुद्दों से अवगत कराने तथा उसकी उदार और व्यापक शिक्षा प्रदान करने हेतु प्रशिक्षित करने की व्यवस्था।
20. निबन्ध, चित्र लेखन इत्यादि प्रतियोगिताओं द्वारा बालकों और बालिकाओं में परस्पर लिंगों के महत्त्व तथा कार्यों के अंकन द्वारा स्वस्थ लैंगिक शिक्षा का विकास करना।
21. लैंगिकता के विकास हेतु प्राथमिक विद्यालयों में विभिन्न पर्यों जैसे-रक्षाबन्धन इत्यादि का आयोजन। इससे बालक बालिकाओं में एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्यबोध का विकास होगा।
22. अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन।
23. रचनात्मक शक्तियों तथा वैयक्तिक विभिन्नता के विकास के कार्य द्वारा भी लैंगिक विकास सकारात्मक दिशा में होगा।
24. प्राथमिक विद्यालयों को सामाजिक सहयोग इस दिशा में प्राप्त करना चाहिए।
25. प्राथमिक विद्यालयों को लैंगिक मुद्दों के जागरूकता के केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहिए।
महिलाओं को लैंगिक भेदभावों से बाहर निकालने में भारतीय संविधान में न्यायिक प्रावधान
महिलाओं को लैंगिक भेदभावों से बाहर निकालने, समानता, स्वतन्त्रता तथा उनके अधिकार प्रदान करने के लिए भारतीय संविधान में कुछ न्यायिक प्रावधान निम्नांकित प्रकार से किये गये हैं1.प्रसवपूर्व नैदानिक तकनीकी अधिनियम, 1994(The Pre-Natal Diagnostic Techniques Act-PNDT, 1994)—
प्रसवपूर्व ही गर्भ में
पल रहे शिशु के
लिंग के विषय में
पता लगाकर बालिका भ्रूण
की गर्भ में ही
हत्या कर दी जाती
थी, जिसका दुष्परिणाम
हमारे समक्ष बिगड़ते लिंगानुपात
के रूप में उपस्थित
है। राजस्थान तथा हरियाणा
जैसे राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति
अत्यन्त चिन्ताजनक है। अत: इस विषय
पर तत्काल प्रभाव से
संज्ञान लेते हुए प्रसवपूर्व
नैदानिक तकनीकी अधिनियम 20 सितम्बर, 1994 को पारित किया
गया। इसको 'लिंगचयन प्रतिषेध अधिनियम' के नाम से
भी जाना जाता है। इस अधिनियम
के द्वारा गर्भ में
पल रहे शिशु के
लिंग का परीक्षण कराना
कानूनी रूप से अपराध
की श्रेणी में आता
है। इस अधिनियम
को 1996 में संशोधित
किया गया। लिंग जानने या किसी
अन्य इरादे से लिंग
पता करना तथा कराने
वाले व्यक्ति या करने
वाले डॉक्टर, क्लीनिक तथा अस्पताल के
विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने का
प्रावधान किया गया है। बिना औरत
की सहमति के जबरन
गर्भपात कराने वाले को
धारा 313 के द्वारा
दस वर्ष की सजा, आजीवन कारावास
तथा जुर्माने का प्रबन्ध किया
गया है।
2. यौन हमला कानून प्रारूप में सुधार भारत, 2000—
यौन हमलों से
तात्पर्य है गलत इरादों
से किसी स्त्री की
ओर दृष्टि डालना।यौनजनित हमलों में
बलात्कार, शालीनता भंग, जबरन सम्बन्ध
बनाना, अश्लील सामग्री
प्रस्तुत करना, शादी तथा जबरन अपहरण
करके शारीरिक सम्बन्ध बनाने
हेतु विवश करना। इसकी प्रभाविता के लिए
यौन हमला कानून प्रारूप
में 2000 में सुधार
किये गये। धारा 376 में बलात्कार
के लिए दस वर्ष
की सजा या उम्रकैद
का प्रावधान किया गया है। धारा 354 के द्वारा शालीनता
भंग करने के लिए
दो वर्ष की सजा
का प्रावधान किया गया है। धारा 366 में शादी, अपहरण हेतु विवश
करने पर दस वर्ष
की सजा का प्रावधान
किया गया है। धारा 306 के
द्वारा अश्लील कार्य के
लिए दस वर्ष की
सजा तथा धारा 294 के द्वारा अश्लील
कार्य आदि के लिए
तीन माह की कैद
तथा जुर्माने का प्रावधान किया गया
है। अपशब्दों के लिए
धारा 509 में एक
वर्ष की सजा का
प्रावधान किया गया है।
3. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (Domestic Violence Act, 2005)-
घरेलू हिंसा के निवारण
के लिए घरेलू हिंसा
अधिनियम 2005 में बनाया
गया तथा 26 अक्टूबर, 2006 से
यह अधिनियम प्रभावी हुआ। यह कानून
महिलाओं की सुरक्षा के
लिए बनाया गया। महिलायें रोजमर्रा की जिन्दगी में
पुरुषों की प्रताड़ना, मार-पीट तथा गाली-गलौज का सामना
करती रहती हैं और
इसे अपनी नियति मानकर
चलती रहती हैं, जिससे वे अपने
अधिकारों से युक्त तथा
गरिमामयी जीवन व्यतीत नहीं
कर पाती। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण III के आँकड़ों के
अनुसार भारत में विवाहित
महिलाओं का बड़ा हिस्सा
लगभग 37.2% शारीरिक तथा यौन
शोषण का शिकार है
और इस सर्वेक्षण के द्वारा
यह तथ्य भी सम्मुख
आता है कि शिक्षा
से वंचित महिलाएँ पतियों
द्वारा अधिक प्रताड़ित होती हैं। घरेलू हिंसा
की परिभाषा में दुर्व्यवहार
या धमकी, यौनाचार, मौखिक, भावनात्मक या आर्थिक दुर्व्यवहार
सम्मिलित हैं। इस अधिनियम ने महिलाओं
को पूरा अधिकार दिया
कि वे पति के
घर में रहने की
अधिकारिणी हैं। पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में
महिलाओं को सम्पत्ति तथा आर्थिक
अधिकारों से वंचित रखा
गया है। यह अधिनियम महिलाओं को
ससुराल तथा मायके की पैतृक सम्पत्ति
में बराबर का अधिकार
प्रदान करता है। दूसरी पत्नी या
बिना विवाह के रह
रही महिला को आश्रय
देने का प्रावधान है। विविक सेवा प्राधिकरण
अधिनियम, 1987 के
द्वारा पीड़िता को नि:शुल्क विविक
सेवा प्रदान करने का
प्रावधान भी किया गया
है। इस प्रकार
घरेलू हिंसा महिलाओं की
सुरक्षा, संरक्षा और
सम्मान की. दिशा में अत्यधिक सशक्त
कानून है।
4. महिला आरक्षण (Reservation for Women)-
15 अगस्त, 1947 को भारत ने
चिरकाल से देखे जाने
वाले अपने स्वप्न स्वतन्त्रता
को साकार किया। वर्षों से शोषित
भारतीय जनमानस को असमानता
से बाहर निकालने के
लिए लोकतन्त्र की स्थापना की
गयी। लोकतन्त्र में सभी
को समानता, स्वतन्त्रता, न्याय तथा
अधिकार प्रदान किये गये
हैं, परन्तु महिलाओं
को उनकी दयनीय स्थिति
देखते हुए उनको आरक्षण
प्रदान किया गया है। स्वतन्त्र भारत की
लोकतांत्रिक उपलब्धियों को यदि परिगणित किया
जाये तो 'महिला आरक्षण' एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। पंचायती राज की
सफलता को मापा जायेगा, तब महिला
आरक्षण तथा इसकी सफलता
महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। संयुक्त राष्ट्र की
एजेन्सी यू.एन.एफ.पी.ए. ने अपनी
ताजा रिपोर्ट में भारत
में पंचायतों में आरक्षण के
फलस्वरूप महिलाओं में उपजी
नई चेतना की सराहना
की है। आज सभी राज्यों में पंचायत के
माध्यम से महिलायें नये उत्साह
और स्फूर्ति के साथ विकास
की गतिविधियों में योगदान दे
रही हैं । संविधान के 73 व 74वें संशोधन के पश्चात्
सभी स्थानीय निकायों में
एक-तिहाई आरक्षण
मिलने के पश्चात् करीब
25 हजार महिलाएँ पंचायतों
में चुनी गयी हैं
जो ग्राम, प्रशासन और विकास को
नवीन दिशा दे रही
हैं। पंचायतों में कुल
28 लाख प्रतिनिधियों में से
लगभग 10 लाख महिलायें
हैं जो राजनीति के
क्षेत्र में महिलाओं की
सशक्त उपस्थिति का द्योतक हैं।
महिला आरक्षण विधेयक 2005 में पारित हुआ, जिसके तहत महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर सत्ता में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की गयी। देश की जुझारू महिलाएँ, जिन्होंने देश की राजनीति को एक नई दिशा दी। 1917 में स्त्रियों के लिए राजनीतिक अधिकारों की माँग की गयी। देश की जुझारू महिलाएँ, जिन्होंने देश की राजनीति को एक नई दिशा दी उनमें श्रीमती इन्दिरा गाँधी, सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे सिंधिया, शीला दीक्षित, जयललिता, मीरा कुमार, उमा भारती, मायावती, ममता बनर्जी और सोनिया गाँधी के नाम उल्लेखनीय हैं। 25 जुलाई, 2007 को देश के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित होकर श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने एक महिला के साथ-साथ इस सर्वोच्च पद को गौरवान्वित किया।
इतना होने के पश्चात् भी भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका निर्णायक नहीं कहीं जा सकती है। इस प्रकार महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया, परन्तु राजनीतिक दल सीट की जीत की सुनिश्चितता प्रदान करने वाले उम्मीदवारों को ही चुनाव मैदान में उतारते हैं, अत: महिलाओं की राजनीतिक स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिए वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि महिलाओं को संविधान ने जो स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार दिया है, उसका उपयोग उनके सशक्तीकरण के लिए किया जाए।
महिला आरक्षण विधेयक 2005 में पारित हुआ, जिसके तहत महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर सत्ता में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की गयी। देश की जुझारू महिलाएँ, जिन्होंने देश की राजनीति को एक नई दिशा दी। 1917 में स्त्रियों के लिए राजनीतिक अधिकारों की माँग की गयी। देश की जुझारू महिलाएँ, जिन्होंने देश की राजनीति को एक नई दिशा दी उनमें श्रीमती इन्दिरा गाँधी, सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे सिंधिया, शीला दीक्षित, जयललिता, मीरा कुमार, उमा भारती, मायावती, ममता बनर्जी और सोनिया गाँधी के नाम उल्लेखनीय हैं। 25 जुलाई, 2007 को देश के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित होकर श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने एक महिला के साथ-साथ इस सर्वोच्च पद को गौरवान्वित किया।
इतना होने के पश्चात् भी भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका निर्णायक नहीं कहीं जा सकती है। इस प्रकार महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया, परन्तु राजनीतिक दल सीट की जीत की सुनिश्चितता प्रदान करने वाले उम्मीदवारों को ही चुनाव मैदान में उतारते हैं, अत: महिलाओं की राजनीतिक स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिए वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि महिलाओं को संविधान ने जो स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार दिया है, उसका उपयोग उनके सशक्तीकरण के लिए किया जाए।
5.बाल-विवाह प्रतिषेध अधिनियम, (Child Marriage Act 2006)-
बाल-विवाह भारतीय
समाज की एक प्रमुख
कुरीति है। इस कुरीति का प्रचलन
छठवीं शताब्दी से माना
जाता है। वर्तमान में बालिका और
बालिकाओं के लिए विवाह
की आयु क्रमश: 18 और 21 वर्ष निर्धारित कर दी
गयी है, फिर भी कुछ रूढ़ियों
और अन्धविश्वासों के कारण बाल-विवाह का
प्रचलन है। कम उम्र में ही
बालिकाओं का विवाह करना
धर्मसम्मत और अपने उत्तरदायित्व
से मुक्त होना, क्योंकि कन्या पराया
धन है, मानकर कर दिया जाता
है, जिससे बालिकाओं
को अपने बचपन को
जीने का अधिकार भी
नहीं मिला पाता है। बाल-विवाह के द्वारा
बालिकाओं का शारीरिक और
मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। कुपोषण, बाल एवं मातृ
मृत्यु-दर, जनसंख्या वृद्धि, जीवन की गुणवत्ता और दक्षता
का ह्रास इत्यादि समस्याएँ
बाल-विवाह के
कारण उत्पन्न होती हैं।
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अनुसार बाल-विवाह निषिद्ध है तथा बाल विवाह हेतु दोषी पाये जाने पर दो वर्ष की सश्रम सजा तथा एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है, परन्तु बाल-विवाह से उत्पन्न सन्तान को वैध माना जायेगा और बाल-विवाह के शून्यीकरण का प्रावधान भी है।
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अनुसार बाल-विवाह निषिद्ध है तथा बाल विवाह हेतु दोषी पाये जाने पर दो वर्ष की सश्रम सजा तथा एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है, परन्तु बाल-विवाह से उत्पन्न सन्तान को वैध माना जायेगा और बाल-विवाह के शून्यीकरण का प्रावधान भी है।
महिलाओं के सशक्तिकरण में शिक्षा की भूमिका
(सुखाड़िया बी.एड., 2018) उत्तर-आजकल 'सशक्तिकरण महिला सशक्त समाज' यह नारा
अवसर सुनने को मिलता
है। इसका अभिप्राय
यह है कि कोई
समाज रभी सशक्त होगा
जब वहाँ की महिलाएँ
भी सशक्त हों। दूसरे शब्दों में
सशक्त महिला ही सशक्त
राष्ट्र का निर्माण कर
सकती है। सामान्यतः यह देखा या
है कि यदि किसी
समाज की महिलाएँ अशिक्षित
हैं तो वह समाज
भी कभी आगे नहीं
बढ़ सकता। वास्तव में
शिक्षा ही वह साधन
है जिसके द्वारा महिलाओं
को सशक्त बनाकर समाज
को सशक्त करने का
मार्ग प्रशस्त किया जा
सकता है। यही कारण है कि
आज 'महिला सशक्तिकरण
के लिए शिक्षा' (Education for Woman Empowerment) पर विशेष बल
दिया जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि
इसका क्या अर्थ है
और शिक्षा द्वारा उन्हें
सशक्त कैसे बनाया जाए। महिला सशक्तीकरण के लिए शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education For Women Empowerment)
महिला सशक्तिकरण
का यह अर्थ बिल्कुल
नहीं है कि महिलाएँ
कमजोर हैं। इतिहास साक्षी है कि
उनमें बहुत कुछ करने
की क्षमता है लेकिन
वे अपनी इन क्षमताओं
को पहचान नहीं पाती
या उनके विकास के
पर्याप्त अवसर नहीं हो
पाते । अत:'महिला सशक्तिकरण
के लिए शिक्षा' का अभिप्राय यह है कि उन्हें सशक्त
बनाने के उद्देश्य से शिक्षा
दी जाए। शिक्षा द्वारा उन्हें इस
योग्य बनाए जाए कि
(i) वे स्वयं को पुरुषों से कम न समझें।(ii) अपनी क्षमताओं को पहचानें।(iii), अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहें।(iv) अपने प्रति हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाएँ तथा(v) राष्ट्र निर्माण एवं विकास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझें और उसमें अपना योगदान दें।
शिक्षा द्वारा महिलाओं को सशक्त कैसे बनाया जाए (How to make women empowerement)-
इसके लिए शिक्षा के उद्देश्यों
व पाठ्यक्रम के पुनर्गठन की आवश्यकता
है।
महिला सशक्तीकरण के लिए शिक्षा के उद्देश्य
(Aims ofeducation for women empowerment)
शिक्षा के
निम्नलिखित उद्देश्य महिला सशक्तीकरण में सहायक
सिद्ध हो सकते हैं
(1) प्रजातांत्रिक नागरिकता का विकास करना (To develop democratic citizenship)
भारतीय
समाज व्यवस्था प्रजातांत्रिक है। प्रजातांत्रिक नागरिकता का अभिप्राय है अपने
अधिकारों के प्रति जागरूकता। जब शिक्षा
द्वारा महिलाओं में प्रजातांत्रिक
नागरिकता का विकास किया
जाएगा तो वे संविधान
द्वारा उन्हें दिए गए
अधिकारों के प्रति जागरूक
होंगी तथा उन अधिकारों
का हनन होने की
स्थिति में आवाज उठाएँगी
तथा अपने प्रति हो
रहे शोषण व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष
करेगी। इससे उनके
सशक्तीकरण में मदद मिलेगी।
(2) जन्मजात क्षमताओं का विकास करना (To develop inborn talents)
केवल पुरुषों
में ही नहीं महिलाओं
में भी अनेक जन्मजात
क्षमताएँ होती हैं। यदि शिक्षा द्वारा
सबकी जन्मजात प्रतिभा के
विकास करने पर ध्यान
दिया जाता है तो
महिलाओं की इन क्षमताओं
का विकास होगा। इससे उनमें आत्मविश्वास
बढ़ेगा और वे सशक्त
बनेंगी।
(3)मानवीय संसाधनों का विकास करना (To develop human resources)
पुरुषों की
ही तरह महिलाएँ भी
महत्त्वपूर्ण मानवीय संसाधन हैं। यदि हम
राष्ट्रीय विकास करना चाहते हैं तो हम
मानवीय संसाधनों का विकास करना
होगा। दूसरे शब्दों
में महिला एवं पुरुष
दोनों में उनकी क्षमता
के अनुसार विभिन्न कौशलों
का विकास करना होगा। कौशल सम्पन्न
महिलाएँ आत्मनिर्भर बनेंगी। उनमें आत्मविश्वास पैदा होगा और
वे सशक्त होगी।
(4) मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना (To create an awarness for human rights)
महिला सशक्तिकरण के लिए यह
भी जरूरी है कि
उन्हें उन अधिकारों के विषय
में जानकारी है जो
मानव होने के नाते
उन्हें स्वत: ही प्राप्त हैं। अत: शिक्षा का उद्देश्य महिलाओं को
इन मानवाधिकारों के प्रति जागरूक
बनाना होना चाहिए।
महिला सशक्तीकरण के लिए पाठ्यक्रम (Curriculum for women empowerment)-पाठ्यक्रम में शामिल सभी विषय महिलाओं को सशक्त बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन उनकी विषय सामग्री में इस दृष्टि से कुछ परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है
महिला सशक्तीकरण के लिए पाठ्यक्रम (Curriculum for women empowerment)-पाठ्यक्रम में शामिल सभी विषय महिलाओं को सशक्त बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन उनकी विषय सामग्री में इस दृष्टि से कुछ परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है
(i) भाषा की पुस्तकों में विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाली महिलाओं के जीवन-चरित्र को रखा जाना चाहिए।(ii) इन पुस्तकों में महिलाओं को उनकी क्षमताओं का बोध कराने वाली व नारी समस्याओं से जुड़ी कविताओं को भी स्थान दिया जाना चाहिए।(iii) इतिहास की पुस्तकों में भी विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा किए गए विशेष योगदान को शामिल किया जाना चाहिए।(iv) नागरिकशास्त्र के माध्यम से महिलाओं को संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों के विषय में जानकारी दी जानी चाहिए।(v) विज्ञान के अन्तर्गत इस क्षेत्र में महिलाओं द्वारा प्राप्त उपलब्धियों को स्थान दिया जाना चाहिए। इस प्रकार यदि पाठ्यक्रम में इंदिरा गाँधी, सरोजनी नायडू, किरण बेदी, कल्पना चावला जैसी महिलाओं के जीवन के प्रेरक प्रसंगों को स्थान दिया जाता है तो इससे महिलाओं को सशक बनाने में मदद मिलेगी।
महिला सशक्तीकरण एवं सहगामी गतिविधियाँ
(Women empowerment and Co-curricular activities)
महिला सशक्तीकरण की दृष्टि
से निम्नलिखित सहगामी गतिविधियों का आयोजन
किया जाना चाहिए
(i) महिलाओं से जुड़े विषयों पर कविता, कहानी तथा निबन्ध लेखन आदि प्रतियोगिता का आयोजन किया जाना चाहिए।(ii) अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाना चाहिए।(iii) महिलाओं की समस्याओं को लेकर भाषण, वाद-विवाद, पेन्टिंग, कोलाज पोस्टर, मेकिंग तथा स्लोगन राइटिंग जैसी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाना चाहिए।(iv) लड़कियों को एन.सी.सी. व एन.एस.एस. जैसी गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।(v) उन्हें जूडो-कराटे का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।(vi) उन्हें खेलकूद सम्बन्धी गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।(vii) उन्हें योग का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
निष्कर्ष (Conclusion)
अन्त
में यह कहा जा
सकता है कि शिक्षा
ही महिला सशक्तीकरण की सशक्त
माध्यम है। इस सन्दर्भ में शिक्षा
की भूमिका को पहचानते
हुए ही हरियाणा के
उच्चतर शिक्षा विभाग द्वारा
राज्य के सभी कॉलेजों
में महिला सशक्तीकरण प्रकोष्ठ बनाए गए
हैं जो लड़कियों में अपने
अधिकारों के प्रति जागरूकता
पैदा करने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभा रहे हैं। यही नहीं, सरकार बालिका
शिक्षा को प्रोत्साहित करने के
लिए अनेक योजनाएँ चला
रही हैं। यही कारण है कि
धीरे-धीरे समाज
की सोच में परिवर्तन
हो रहा है और
आने वाले समय में
महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध
अवसरों का समुचित लाभ
उठा पाने में सक्षम
हो सकेंगे।
लैंगिक संवेदनशीलता के विकास की बाधाए एवं समाधान
लैंगिक संवेदनशीलता के विकास की बाधाओं और उनके समाधान को हम निम्न प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं(1) असमानता–
पुरुष-प्रधान समाज में स्त्रियों
की अनदेखी बालपन से
ही की जाने लगती
है। बालक-बालिकाओं में लैंगिक आधार
पर असमानता के कारण
ही हमारे समाज में
लैंगिक संवेदनशीलता को सही ढंग
से विकास नहीं हो
पाता है।
समाधान—बालक-बालिकाओं के मध्य व्याप्त लैंगिक विभेदों को समाप्त करके लैंगिक संवेदनशीलता हेतु कई समाधान सुझाये जा सकते हैं और इस दिशा में संवैधानिक तथा कानूनी प्रावधान भी पर्याप्त मात्रा में हैं। अनुच्छेद 45 में बालक-बालिकाओं को 14 वर्ष तक निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। समानता के अधिकार तथा सभी प्रकार की स्वतन्त्रता स्त्री-पुरुषों को प्राप्त है, फिर भी लैंगिक संवेदनशीलता अवरोधित हो रही है। इस हेतु उपाय निम्नांकित प्रकार हैं
समाधान—बालक-बालिकाओं के मध्य व्याप्त लैंगिक विभेदों को समाप्त करके लैंगिक संवेदनशीलता हेतु कई समाधान सुझाये जा सकते हैं और इस दिशा में संवैधानिक तथा कानूनी प्रावधान भी पर्याप्त मात्रा में हैं। अनुच्छेद 45 में बालक-बालिकाओं को 14 वर्ष तक निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। समानता के अधिकार तथा सभी प्रकार की स्वतन्त्रता स्त्री-पुरुषों को प्राप्त है, फिर भी लैंगिक संवेदनशीलता अवरोधित हो रही है। इस हेतु उपाय निम्नांकित प्रकार हैं
(i) बालक और बालिकाओं में स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोण का विकास।(ii) शिक्षा तथा जागरूकता द्वारा।(ii) बालिकाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा कार्यों से अवगत कराना।(iv) परिवार तथा समाज और सृष्टि के निर्माण में उनकी भूमिका पुरुषों के समानान्तर है, इस बात से परिचित कराना।
(2) सह-शिक्षा के प्रति नकारात्मक
दृष्टिकोण सह-शिक्षा से
तात्पर्य ऐसी शिक्षा से है जिसमें बालक
और बालिकाएँ एक साथ एक
ही विद्यालय में पढ़ते हैं
तथा एक साथ एक
समान पाठ्यक्रम पूरा करते हैं। जहाँ तक बालक-बालिकाओं के लिए समान
पाठ्यक्रम की बात है, यह अब हमारी
राष्ट्रीय शिक्षा नीति का
अंग है और जहाँ
तक बालक-बालिकाओं के एक स्कूल
में एक साथ पढ़ने
की बात है, हमारे देश में
प्राथमिक स्तर पर दोनों
एक साथ पढ़ने लगे
हैं। परन्तु माध्यमिक
एवं उच्च स्तर पर
लड़के-लड़कियों को एक
साथ पढ़ाने के सम्बन्ध
में लोग
एकमत नहीं हैं। अधिकांशत: भारतवासी इसके विरोध में हैं जिसके कारण लैंगिक संवेदनशीलता का विकास अवरूद्ध हुआ है।
समाधान सह-शिक्षा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण जो सदियों से चलता आया है और इसका समाधान अग्रांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत व्यक्त किया जा सकता है
एकमत नहीं हैं। अधिकांशत: भारतवासी इसके विरोध में हैं जिसके कारण लैंगिक संवेदनशीलता का विकास अवरूद्ध हुआ है।
समाधान सह-शिक्षा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण जो सदियों से चलता आया है और इसका समाधान अग्रांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत व्यक्त किया जा सकता है
(i) रूढ़िवादी विचारधारा वाले व्यक्तियों को सह-शिक्षा के लाभों से अवगत कराना चाहिए। सह-शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए विद्यालयी प्रशासन तथा शिक्षकों को महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करना चाहिए। विद्यालयों में आत्मानुशासन तथा सामाजिक स्वानुशासन की प्रणाली विकसित करनी चाहिए।(iv) बालिका शिक्षा के महत्त्व से अवगत कराना।(v) सह-शिक्षा संस्थानों में लैंगिक भेदभावों को समाप्त कर एक-दूसरे के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए।(vi) बालिकाओं तथा बालकों हेतु पृथक् विश्राम कक्षों तथा शौचालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए।(vii) अभिभावकों तथा स्थानीय लोगों से सह-शिक्षा की बुराइयों से बचने के लिए सहयोग प्राप्त करना होगा।
(3) संसाधनों का अभाव
भारत में गरीबी, बेरोजगारी, खाद्यान्न समस्या, स्वास्थ्य तथा देश की
सुरक्षा इत्यादि मुद्दों पर
सरकारों का श्रम और
संसाधनों का अत्यधिक मात्रा
में व्यय हो रहा
है, जिससे शिक्षा
के लिए समुचित संसाधनों, चाहे वे
मानवीय हों या भौतिक, का प्रबन्धन
नहीं हो पाता है
और संसाधनों की कमी के
कारण बालिका शिक्षा के
लिए समुचित कदम नही
उठाये जा सकते हैं, जिसके कारण
लैंगिक संवेदनशीलता का विकास अवरूद्ध
हो जाता है।
समाधान—संसाधनों के अभाव का समाधान निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा रहा है
समाधान—संसाधनों के अभाव का समाधान निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा रहा है
(i) लैंगिक संवेदनशीलता में वृद्धि के लिए शिक्षा को प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए, क्योंकि शिक्षा के बिना यह कार्य नहीं हो सकता है।(ii) बालिका शिक्षा के लिए संसाधनों की कमी से निपटने के लिए लोगों से सहयोग प्राप्त करना।(ii) उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रबन्ध करना।(iv) बालिका शिक्षा की दिशा में व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहित कर लैंगिक संवेदनशीलता में वृद्धि करना।
(4)सामाजिक कुरीतियाँ एवं दृष्टिकोण लैंगिक
संवेदनशीलता के विकास
में एक प्रमुख बाधा
बालिकाओं की शिक्षा तथा
उनके प्रवेश विषयी संकीर्ण
मान्यताएँ हैं जो हमारे
समाज में बालिकाओं की शिक्षा
को अवरुद्ध बनाने के
साथ-साथ लैंगिक
संवेदनशीलता के विकास को
भी अवरूद्ध करती हैं।
ये कुप्रथाएँ हमारे समाज में प्राचीन काल से ही चली आ रही हैं, जिनमें जौहर और सती प्रथा तो अब नहीं देखने को मिलती, लेकिन अन्य कुप्रथाएँ अभी भी प्राप्त होती हैं। बालिकाओं का पढ़ने-लिखने की उम्र में विवाह कर चूल्हा-चौका का कार्य सौंप दिया जाता है, जिससे वे शिक्षा तो नहीं ग्रहण कर पाती, साथ ही साथ उनका शारीरिक, मानसिक आदि विकास भी भली प्रकार से नहीं हो पाता है जिससे लैंगिक संवेदनशीलता का विकास अवरूद्ध हो जाता है।
समाधान लैंगिक संवेदनशीलता के विकास हेतु सामाजिक कुरीतियों तथा लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए समाधान स्वरूप कुछ सुझाव निम्नांकित प्रकार हैं
भी अवरूद्ध करती हैं।
ये कुप्रथाएँ हमारे समाज में प्राचीन काल से ही चली आ रही हैं, जिनमें जौहर और सती प्रथा तो अब नहीं देखने को मिलती, लेकिन अन्य कुप्रथाएँ अभी भी प्राप्त होती हैं। बालिकाओं का पढ़ने-लिखने की उम्र में विवाह कर चूल्हा-चौका का कार्य सौंप दिया जाता है, जिससे वे शिक्षा तो नहीं ग्रहण कर पाती, साथ ही साथ उनका शारीरिक, मानसिक आदि विकास भी भली प्रकार से नहीं हो पाता है जिससे लैंगिक संवेदनशीलता का विकास अवरूद्ध हो जाता है।
समाधान लैंगिक संवेदनशीलता के विकास हेतु सामाजिक कुरीतियों तथा लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए समाधान स्वरूप कुछ सुझाव निम्नांकित प्रकार हैं
(i) बालक-बालिकाओं को समान मानना।(ii) समानता, स्वतन्त्रता और न्याय की भावना का प्रसार ।(ii) लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना।(iv) प्रौढ़ शिक्षा तथा जागरूकता लाना।(v) बालिकाओं के महत्त्व तथा विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियों से अवगत कराना।(vi) पर्दा प्रथा, बाल-विवाह तथा दहेज प्रथा इत्यादि कुरीतियों का अन्त करना और ऐसा करने वालों पर कठोर कार्यवाही करना।
(5) जागरूकता का अभाव एवं अशिक्षा--
अशिक्षा के कारण व्यक्ति
लैंगिक संवेदनशीलता के प्रति को
समझ ही नहीं पाता
जिसके कारण लोगों में
इसके प्रति जागरूकता विकसित नहीं
हो पाती है।
समाधान—बालिकाओं की शिक्षा
तथा विद्यालय में उनके प्रवेश
में वृद्धि के लिए
लैंगिक संवेदनशीलता जागरूकता हेतु सुझाव निम्नांकित
प्रकार से हैं
(i) जागरूकता हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में वाचनालयों और पुस्तकालयों की स्थापना।(ii) जनसंचार के माध्यमों की सहायता।(iii) विद्यालयों की स्थापना दूरदराज के क्षेत्रों में।(iv) उत्साही शिक्षकों की नियुक्ति।(v) जागरूकता कार्यक्रमों का निर्माण।
(6) दोषपूर्ण पाठ्यक्रम
दोषपूर्ण पाठ्यक्रम और शिक्षा प्रणाली
भी लैंगिक संवेदनशीलता के क्षेत्र
में बाधक हैं, क्योंकि पाठ्यक्रम में बालिकाओं
की रुचियों तथा आवश्यकताओं
को स्थान प्रदान नहीं
किये जाने के कारण
शिक्षा अव्यावहारिक और अनुपयोगी हो जाती
है।
समाधान—दोषपूर्ण पाठ्यक्रम और शिक्षा
प्रणाली में सुधार के उपाय
निम्नवत् हैं
(6) शिक्षा व्यवस्था में लचीलापन होना चाहिए।(ii) बालिकाओं की रुचियों तथा आवश्यकता के अनुरूप पाठ्यक्रम होना चाहिए।(iii) वैयक्तिक विभिन्नताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।(iv) रुचि उपयोगिता तथा क्रिया आदि के सिद्धान्त का पालन।
(7) प्रशासनिक उपेक्षा
लैंगिक संवेदनशीलता
कमी का एक कारण
प्रशासनिक उपेक्षा भी है, जिससे बालिका
कल्याण के लिए बनायी
गयी योजनाओं और उनके
सम्भावित परिणाम अपेक्षानुरूप नहीं आ रहे हैं।
समाधान प्रशासनिक उपेक्षा को कम कर बालिका कल्याण की योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करना चाहिए जिसके लिए हमें निम्नांकित उपाए करने चाहिए
समाधान प्रशासनिक उपेक्षा को कम कर बालिका कल्याण की योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करना चाहिए जिसके लिए हमें निम्नांकित उपाए करने चाहिए
(i) जनसामान्य से सहयोग तथा विश्वास प्राप्त करना।(ii) प्रशासन और अधिकारियों को उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों का अहसास कराना।(ii) भ्रष्टाचार को समाप्त करना ताकि बालिका कल्याण योजनाओं के समुचित परिणाम बताइए।
(8) प्रोत्साहन की कमी—
लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा
देने के लिए आगे
आने वाले व्यक्तियों को सम्मान
तथा प्रोत्साहन दोनों की ही
उपेक्षा का शिकार होना
पड़ता है, जिससे व्यक्तिगत प्रयास आगे नहीं
बढ़ पाते हैं।
समाधान—लैंगिक संवेदनशीलता में वृद्धि करने के लिए प्रोत्साहन में वृद्धि हेतु सुझाव निम्नवत् हैं
समाधान—लैंगिक संवेदनशीलता में वृद्धि करने के लिए प्रोत्साहन में वृद्धि हेतु सुझाव निम्नवत् हैं
(i) लैंगिक संवेदनशीलता के क्षेत्र में व्यक्तिगत कार्य करने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।(ii) मानदण्डों का निर्धारण ।(ii) ऐसे व्यक्तियों को समाज में उच्च स्थान प्रदान करना।(iv) समाज के लोगों को ऐसे कार्य करने वालों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर यथासंभव सहायता तथा प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए।