शिक्षण तकनीकी के घटक
Components of Teaching Technology
शिक्षण तकनीकी की पाठ्यवस्तु में निम्नांकित तत्त्वों को सम्मिलित किया गया है
प्रत्येक प्रक्रिया अनेक अवस्थाओं में से होकर गुजरती है, शिक्षण भी एक प्रक्रिया है, अत: यह भी विभिन्न अवस्थाओं में से होकर गुजरती है। एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था का प्रारम्भ होता है, शिक्षण की भी कई अवस्थाएँ होती हैं, जिनका कि आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बन्ध होता है। यदि शिक्षण की क्रियाओं का विश्लेषण किया जाए और प्रथम चरण से चिन्तन किया जाय तो यह बात स्पष्ट होती है कि शिक्षण की विभिन्न अवस्थाएँ होती है जिनके आधार पर ही शिक्षण की सम्पूर्ण क्रिया पूर्ण होती है। शिक्षण की क्रियाओं को विभिन्न अवस्था में वितरित किया गया है। ये अवस्थाएँ हैं-
(1) नियोजन (Planning)(2) व्यवस्था (Organisation)(3) नियंत्रण या मूल्यांकन (Controlling or Evolution)
1. नियोजन (Planning)
शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें अनेक उद्दीपनों की सहायता से वांछित व्यवहार परिवर्तन किए जाते हैं। कक्षा में पूर्व, कक्षा में प्रवेश से पहले, शिक्षक जो प्रक्रियायें करता है वह शिक्षण पूर्वक्रिया अवस्था के अन्तर्गत आती हैं। इसमें शिक्षक कक्षा में प्रवेश से पूर्व वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए तैयारी करता है, शिक्षण सामग्री एवं विधि से सम्बन्धित निर्णय लेता है, इसी कारण इसे शिक्षण की तैयारी की अवस्था की संज्ञा दी जाती है। इस अवस्था में निम्नलिखित प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है।
शिक्षण तकनीकी के घटक | shikshan takniki ke ghatak
(i) शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण -
शिक्षण की प्रक्रिया आरम्भ करने से पूर्व उसके उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं जिससे कि यह निश्चित होता है कि हमें इस शिक्षण के माध्यम से कौन-कौन से व्यवहार परिवर्तन करने हैं। जब तक उद्देश्यों का निर्धारण नहीं होगा, शिक्षण प्रक्रिया की सफलता की आशा करना निरर्थक है। शिक्षण के पश्चात व्यवहार परिवर्तन के लिए हमें निम्न उद्देश्य निर्धारित करने होते हैं।
(A) छात्रों के पूर्व व्यवहार के रूप में,(B) छात्रों के अन्तिम व्यवहार के रूप में।
(ii) शिक्षण सामग्री के सम्बन्ध में निर्णय लेना -
शिक्षण सामग्री के माध्यम से वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति होती है उस शिक्षण सामग्री का चयन करते समय वह शिक्षण सामग्री का तर्कपूर्ण विश्लेषण करता है। उसके स्वरूप, आकार स्तर, चिन्ह, भाषा आदि के सम्बन्ध में निर्णय लेता है।
(ii) शिक्षण व्यूह रचना के सम्बन्ध में निर्णय लेना -
अब शिक्षक, कक्षा में शिक्षण की व्यूह रचना का निर्धारण करता है। व्यूह रचना में इस बात का निर्णय लिया जाता है कि शिक्षण सामग्री के विभिन्न अवयवों को किस क्रम में तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रस्तुतीकरण के लिए समुचित व्यूह रचना का चयन करते समय वह छात्रों से स्तरानुकूल व्यूह रचना का निर्धारण करता है। व्यूह रचना के सम्बन्ध में निर्णय लेते समय वह यह भी तय करता है कि पाठ्य-वस्तु का प्रस्तुतीकरण किस विधि से करना है,कौन-कौनसी विभिन्न सहायक सामग्रियों की सहायता से पाठ का विकास करना है। कौन-कौनसी विधियों एवं प्रविधियों की सहायता से शिक्षण करना है।
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शिक्षण की पूर्व-क्रिया अवस्था की धारणा समझने के लिए इतना जान लेना ही यथेष्ट होता है कि शिक्षक को कक्षा में वास्तविक शिक्षण (पढ़ाना) से पहले तक जो भी क्रियाएँ सम्पादित करनी पड़ती हैं, ये सब शिक्षण के पूर्व अवस्था के अन्तर्गत आती है। शिक्षक कों निम्नलिखित क्रियाएँ करनी पड़ती है।
(i) कक्षा में शिक्षण के लिए मानसिक रूप से तैयार होना।
(ii) कक्षा में जिस विषय में जो प्रकरण या पाठ पढ़ाना है उसकी पाठ्य सामग्री से अध्ययन बिन्दुओं का चयन करना व अध्ययन-बिन्दुओं के चयन के द्वारा प्राप्त उद्देश्यों का निर्माण करना और प्राप्त उद्देश्यों को व्यवहारपरक उद्देश्यो में लिखना।
(ii) शिक्षण अधिगम परिस्थितियाँ बनाने हेतु चिन्तन करना।
(iv) आवश्यकता होने पर होने पर पाठ्य सामग्री के प्रस्तुतीकरण हेतु सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन करना और सम्बन्धित व्यक्तियों से विचार -विमर्श करना या स्व चिन्तन करना।
(v)शिक्षण हेतु विधि, प्रविधि या व्यूह रचना बनाने हेतु चिन्तन कर अन्तिम रूप देना।
(vi) सहायक सामग्री के विषय में निर्णय लेना तथा उपलब्ध कराना। (vii) मूल्यांकन प्रक्रिया पर विचार कर अन्तिम रूप देना।
(viii) स्वयं को कक्षा में शिक्षण हेतु जाने के लिए मानसिक व संवेगात्मक रूप से तैयार करना
अब यदि उपर्युक्त सभी क्रियाओं (सोपानों) पर ध्यान दें तो ये सभी शिक्षण के पूर्व की तैयारियाँ हैं। इसे ही शिक्षण की पूर्व -क्रिया अवस्था कहा जाता है। कुछ शिक्षाशास्त्री इस अवस्था को शिक्षण नियोजन व्यवस्था (Teaching Planning Stage/ Phase) भी कहते है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण अवस्था हैं।
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2. व्यवस्था (Organisation)-
इस अवस्था के दौरान शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य अन्तःक्रिया होती है इसी अवस्था में ही शिक्षण की पूर्व क्रिया अवस्था में बनायी गयी योजना को कार्यरूप देता है। यह अवस्था व्यवहार परिमार्जन की अवस्था है। शिक्षक का दायित्व इसमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अन्तः प्रक्रिया अवस्था की धारणा को स्पष्ट करने के लिए जैक्सन (1966) ने कहा है कि
"शिक्षण अन्तः अवस्था में शिक्षक छात्रों को अनेक प्रकार की शाब्दिक अभिप्रेरणा प्रदान करता है, उदाहरणस्वरूप प्रश्न पूछना, उत्तर सुनना, अनुक्रिया करना, व्याख्या करना, निर्देशन देना इत्यादि।"
"The teacher provide pupils verbal stimulation of various kinds, makes explanations, asks questions, listens to students' responses and provide guidance." P.W.Jackson
शिक्षक ने जो भी तैयारियाँ शिक्षण की पूर्व-क्रिया अवस्था में की है उसे वह वास्तविकता में परिवर्तन कर देता है। यही कर्मक्षेत्र है। शिक्षक अपनी योजना को यहाँ क्रियान्वित करता है। अतः शिक्षक की वे समस्त क्रियाएँ यहाँ सम्मिलित की जाती है जो वह कक्षा में प्रवेश करके कक्षा से बाहर आने तक के समय में करता है। अतः समस्त क्रियाएँ कक्षा के भीतर क्रियान्वित की जाती है । इस अवस्था के दौरान शिक्षक पूर्व व्यवहारों का ध्यान रखते हुए वांछित व्यवहार परिवर्तन की ओर अग्रसर करता है।
उपरोक्त अवस्था के दौरान निम्नलिखित क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं
(A) कक्षा की अनुभूति -
शिक्षक के कक्षा में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम उसे कक्षा के छात्रों से प्रत्यक्षीकरण होता है। वह कक्षा में घुसते ही कक्षा के छात्रों के व्यवहार एवं व्यक्तित्व की एक झलक प्राप्त कर लेता है।।
(B) शिक्षार्थी का निदान -
इस प्रक्रिया के दौरान शिक्षक अपनी कक्षा के छात्रों के मानसिक स्तर का पता लगाता है। यह शिक्षण सामग्री से सम्बन्धित कितना पूर्व ज्ञान रखते हैं जिसके आधार पर सामग्री प्रस्तुत करनी हैं। इस प्रकार शिक्षण मुख्य रूप से शिक्षार्थी के निम्न पक्षों के निदान का प्रयास करता है -
(i) शिक्षार्थी की मानसिक योग्यताएँ।(ii) शिक्षार्थी की अभिवृत्तियाँ एवं शिक्षण के प्रति रुझान ।(iii) शिक्षार्थी का पूर्व ज्ञान।
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शिक्षक शिक्षार्थी का निदान करते समय निम्नलिखित क्रम का प्रश्नों के माध्यम से अनुसरण करता है -
शिक्षण प्रत्यक्षीकरण → निदान → अनुक्रिया
(C) क्रिया एवं प्रतिक्रिया -
शिक्षण के अन्तर्गत होने वाली क्रियाओं को सामान्य रूप से दो भागों में विभाजित कर सकते हैं - क्रिया एवं प्रतिक्रिया निदान एवं शिक्षण सामग्री का प्रस्तुतीकरण उचित पृष्ठपोषण, पुनर्बलन, प्रेरकों एवं व्यूह रचना का उचित रूप से विकास करके करता है, जो कि शिक्षण का कार्य की दृष्टि से निदान का उपचारात्मक पक्ष है। अतः शिक्षण की वह अवस्था कार्य की दृष्टि से उपचारात्मक अवस्था के समान कक्षा में शिक्षक को जिन क्रियाओं को करना होता है वे निम्न प्रकार से हो सकती है
(i) कक्षा में छात्रों के चेहरे से कक्षा का वातावरण समझ में आने लगता है। इस प्रकार शिक्षक कक्षा की अनुभूति कर छात्रों का प्रत्यक्षीकरण कर लेता है।
(ii) छात्रों से बातचीत या प्रश्नों के माध्यम से उनके पूर्वज्ञान, योग्यताओं, रुचियों, नये पाठ की तैयारी के आभास का ज्ञान प्राप्त करता है।
(iii) शिक्षण के अन्तर्गत अन्त: क्रिया होती है।
अन्त:क्रियाएँ शाब्दिक तथ अशाब्दिक दो प्रकार की होती है। अधिकतर अन्तः क्रिया शाब्दिक ही होती है। अन्तः क्रिया में छात्र तथा शिक्षक व्यस्त व सक्रिय रहते है। शिक्षक क्रियाएँ करते हैं और छात्र अनुक्रियाएँ । शिक्षक जब पहल करते हैं तब छात्र अनुक्रिया करते हैं तो कभी दोनों ही पहल (स्वोपक्रम) करते हैं तो कभी दोनों ही अनुक्रियाएँ। शिक्षण के समय छात्र अशाब्दिक अन्तःक्रिया करते हैं तथा बाद में छात्र व शिक्षक दोनों ही अशाब्दिक अन्त:क्रियाएँ करते हैं। शिक्षण के पश्चात् अन्त:क्रिया बिना किसी विध्न या रुकावट के हो जाती है तो कभी रुकावट सहित। शिक्षक विघ्न दूर करने का प्रयत्न करते हैं। शिक्षण में शिक्षक प्रेरणा देते हैं ताकि छात्र तैयार रहें, उनके सही व्यवहारों पर पुनर्बलन किया जाता है। इसमें प्रशंसा, पुरस्कार आदि दिए जाते है तो कभी गलत व्यवहार के लिए डाँट या दण्ड भी दिया जाता है।
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3.नियंत्रण या मूल्यांकन (Controlling or Evolution)
शिक्षण के पश्चात् शिक्षक को यह जानना आवश्यक होता है कि वह शिक्षण तथा उद्देश्यों की प्राप्ति में कितना सशक्त रहा है? इसके लिए मूल्यांकन से सम्बन्धित क्रियाएँ सम्पादित करनी होती है। यदि मूल्यांकन नहीं किया जाय तो शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही व्यर्थ होगी। अत: शिक्षण के बाद की अवस्था में शिक्षक उपलब्धि के विषय में जाँच कार्य करता है। व्यवहार में परिवर्तन ही उपलब्धि कही जाती है। शिक्षक अनेक औपचारिक एवं अनौपचारिक विधियों द्वारा दिये गये ज्ञान का मूल्यांकन करके इस बात की जाँच करता है कि छात्रों का वांछित व्यवहार परिवर्तन किस दिशा में तथा किस सीमा तक हुआ है। इस अवस्था की प्रमुख क्रियायें निम्नलिखित है -
(A) शिक्षण द्वारा व्यवहार परिवर्तन की वास्तविक परिभाषा -
शिक्षण की समाप्ति पर शिक्षण द्वारा शिक्षार्थी में हुए व्यवहार परिवर्तन की जाँच करके यह ज्ञात करता है कि उनमें किस सीमा तक व्यवहार में परिवर्तन हुए है तथा यह व्यवहार परिवर्तन अपेक्षित या वांछित व्यवहार परिवर्तन से तुलना में कहाँ तक हैं। इस तुलनात्मक अध्ययन से शिक्षक न केवल शिक्षार्थी के व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करता है बल्कि वह अपनी शिक्षण विधि का भी मूल्यांकन करता है।
(B) मूल्यांकन की उपयुक्त प्रविधियों का चुनाव -
शिक्षण के दौरान हुए अपेदि व्यवहार परिवर्तन अर्थात शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का मूल्यांकन करने के लिए शिक्ष को सर्वप्रथम उपयुक्त मूल्यांकन प्रविधि का चुनाव करना होता है। प्रविधियाँ ऐसी हो. चाहिए जो विश्वसनीय हो। प्रविधियों का प्रामाणिक होना मूल्यांकन के लिए अति आवश्य है, अन्यथा सही मूल्यांकन सम्भव नहीं होगा।
(C) शिक्षण प्रविधियों एवं नीतियों में परिवर्तन -
मूल्यांकन न केवल शिक्षार्थियं की वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति का ही निर्णय लेता है अपितु शिक्षक को अपनी शिक्षण प्रविधियों एवं नीतियों में परिवर्तन भी करा सकता है। मूल्यांकन शिक्षक को अपनी कार्य पद्धति में उपयुक्त दिशा में सुधार एवं विकास के लिए भी आधार प्रदान करता है।
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शिक्षण के कार्य की दृष्टि से शिक्षण की क्रिया पश्चात् अवस्था में शिक्षक शिक्षार्थियों के व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करता है तथा उसके आधार पर अपनी शिक्षण प्रविधियों एवं नीतियों में भी यथोचित परिवर्तन करता है जो कि शिक्षण के कार्य की दृष्टि से मूल्यांकन अवस्था के समान है। religion
(D) इसके लिए शिक्षक मौखिक या लिखित प्रश्नों के माध्यम से सफलता आँकता है।
(i) जब छात्र अपेक्षित व्यवहार करके दिखाते है तब उद्देश्य की प्राप्ति हो गई, ऐसा समझा जाता है। इसका
(ii) शिक्षक इसके लिए उपयुक्त उपकरण चुनने का कार्य करता है। उसके परीक्षण उपकरण विश्वसनीय तथा वैध होने चाहिए।
(iii) सफलता/असफलता से शिक्षक भी अपने अनुदेशन शिक्षण का मूल्यांकन कर लेता है तथा अगली बार की योजना निर्माण में सही निर्णय लेता है।
प्राप्त परिणामों से शिक्षण नीतियाँ, उद्देश्य निर्धारण तथा अनुभव देने की परिस्थितियों में आवश्यक परिवर्तन कर लेता है। उपर्युक्त समस्त क्रियाएँ सम्बन्धित है। शिक्षक की तीन अवस्थाओं के विषय में गहरी जानकारी होनी चाहिए तथा व्यवहार में प्रयोग भी करते रहना चाहिए। शिक्षण कौशल के विकास में जानकारी आवश्यक है।