शिक्षण के सिद्धान्त
Principles of Teaching
शिक्षण के सिद्धान्त |
Shikshan के सिद्धान्तों को दो भागों में विभाजित किया जा
सकता है --
(ii) Shikshan के मनोवैज्ञानिक Siddhant
Shikshan के
सामान्य Siddhant
(General Principles of
Teaching)-
Shikshan कार्य से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति का प्रयास Shikshan को प्रभावशाली बनाना होता है, जिससे
विद्यार्थी रुचि के साथ Shikshan सामग्री
का अधिकाधिक अधिगम कर सके। Shikshan के Siddhant Shikshan को प्रभावशाली बनाने के लिए शिक्षाविदों, दार्शनिकों
व समाजविदों ने Shikshan के कुछ Siddhant निर्मित किये हैं। Shikshan करते समय इनको ध्यान में रखे जाने से Shikshan निश्चित रूप से प्रभावशाली हो सकता है। ये Shikshan Siddhant निम्नलिखित हैं :
(i) निश्चित् उद्देश्यों का Siddhant (Principle of Definite Objective)
Shikshan का कोई
न कोई निश्चित उद्देश्य होना चाहिए।
(ii) नियोजन का Siddhant (Principle of Planning)-
Shikshan कार्य
सुनियोजित होना चाहिए।
(iii) विषय-वस्तु विश्लेषण का Siddhant (Principle of Content Analy sis)-
विषयवस्तु को छोटे-छोटे
अंशों में बाँटने से प्रत्येक बिन्दु स्पष्ट हो जाता है।
(iv) पूर्व ज्ञान का Siddhant (Principle of Previous knowledge)-
पूर्व ज्ञान से नवीन ज्ञान
को सम्बन्धित कर Shikshan करने से
Shikshan में क्रमबद्धता
व प्रभावशीलता का विकास होता है तथा नवीन ज्ञान ग्रहण हो जाता है।Shikshan के Siddhant
(v) सहसम्बन्ध का Siddhant (Principle of Correlation)-
किसी भी विषय को पढ़ाते समय
उसे अन्य विषयों से जोड़ते हुए पढ़ाया जाना चाहिए; जैसे विज्ञान को भूगोल, इतिहास, संगीत
आदि से जोड़ते हुए पढ़ाने से Shikshan कार्य
रुचिकर बन जाता है।Shikshan के Siddhant
(vi) लचीलेपन का Siddhant (Principle of flexibility)-
Shikshan-प्रक्रिया
सृजनात्मक व छात्र के अनुकूल होनी चाहिए अर्थात् Shikshan परिस्थितियों एवं तत्वों के अनुसार लचीला होना चाहिए।Shikshan के Siddhant
(vii) बाल केन्द्रित शिक्षा का Siddhant (Principle of Child Centered Education)-
Shikshan, तभी प्रभावशाली बन सकता है जब वह विद्यार्थियों की आवश्यकताओं, क्षमताओं, रुचियों
व मानसिक स्तर आदि के अनुसार व्यवस्थित रहताShikshan के Siddhant
(viii) प्रजातान्त्रिक व्यवहार का Siddhant (Principle of Democratic Behaviour)-
विद्यार्थियों में स्वतन्त्र
अभिव्यक्ति, आत्मविश्वास के विकास, आत्मसम्मान आदि गुणों के
विकास के लिए राजनीतिक व्यवहार की अपेक्षा लोकतान्त्रिक व्यवहार को अपनाना चाहिए।
(ix) व्यक्तिगत भिन्नता का Siddhant (Principle of Individual Differ ences)-
प्रत्येक व्यक्ति, व्यक्तिगत
रूप से अन्य व्यक्तियों से भिन्न होता है। एक कक्षा में भी विभिन्नता लिए हुए अनेक
विद्यार्थी रहते हैं। Shikshan के Siddhantशिक्षक को प्रभावशाली Shikshan हेतु व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखते
हुए Shikshan-व्यवस्था
करनी चाहिए।
(xi) सक्रियता व करके सीखने का Siddhant (Principles of Activeness and Learning by doing)-
जब तक विद्यार्थी स्वयं
सक्रिय नहीं होगा तब तक वह अधिगम नहीं कर सकता। प्रभावी Shikshan प्रक्रिया के लिए शिक्षक-विद्यार्थी के मध्य
अन्त:प्रक्रिया होना आवश्यक है।Shikshan के Siddhant शिक्षक को सैद्धान्तिक ज्ञान को प्रयोगात्मक रूप से प्रस्तुत करना
चाहिए, जिससे विद्यार्थी स्वयं करके सीख सके, क्योंकि स्वयं के अनुभवों
से सीखा गया ज्ञान अधिक समय तक स्मृति में रहता है।
(xi) वास्तविक जीवन से सम्बद्धता का Siddhant (Principle of Connec tivity with Actual Life)-
वह शिक्षा जो विद्यार्थी को
अपने जीवन के लिए तैयार नहीं करती, व्यर्थ होती है।Shikshan के Siddhant शिक्षक को विद्यार्थियों को पढ़ाते समय विषयवस्तु को जीवन से
सम्बन्धित करके पढ़ाना चाहिए।
(xii) अभ्यास व पुनरावृत्ति Siddhant (Principle of Practice and Revi sion)-
शिक्षक का कार्य केवल Shikshan क्रिया करके पाठ को छोड़ना नहीं है अपितु उसे
विद्यार्थियों को अच्छे अधिगम हेतु पाठ का अभ्यास व पुनरावृत्ति भी करानी चाहिए
तथा उनकी कमजोरियों का निदान कर उपचारात्मक Shikshan की व्यवस्था भी करनी चाहिए।
(xiii) चयन का Siddhant (Principle of
Selection) -
शिक्षक को उद्देश्यों के
अनुसार विषय वस्तु का चयन करना एवं Shikshan कार्य उद्देश्यों के अनुकूल हो ऐसी विषय वस्तु व तथ्यों का चयन करना
चाहिए।Shikshan के Siddhant शिक्षक को विषय की प्रकृति, विद्यार्थी के स्तर व
पूर्वज्ञान को ध्यान में रखते हुए Shikshan के लिए प्रभावी व्यूह रचनाओं (Strate gies) का भी
चयन करना चाहिए।
Shikshan के
मनोवैज्ञानिक Siddhant
(Psychological
Principles of Teaching)
Shikshan कार्य को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक को सामान्य
मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का भी ज्ञान होना चाहिए, जिससे वह बालक की प्रकृति
के अनुसार उसे उचित प्रकार से शिक्षा दे सके।Shikshan के Siddhant शिक्षक के लिए मनोविज्ञान के निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में
रखना चाहिए
(1) तत्परता का Siddhant (Principle of Readiness)-
शिक्षक के लिए यह आवश्यक है
कि वह ज्ञान लेने के लिए सर्वप्रथम विद्यार्थियों को पूर्ण रूप से तैयार करे एवं
उन्हें मानसिक रूप से भी तैयार करे।
(ii) अभिप्रेरणा व रुचि का Siddhant (Principle of Motivation and Interest)-
विद्यार्थियों को समय-समय
पर प्रेरित करते रहने से पाठ के प्रति उनकी रुचि बनी रहती है। शिक्षक के लिए यह
ध्यान रखना आवश्यक है कि विद्यार्थियों की रुचि किसमें है।Shikshan के Siddhant उन्हें उनकी रुचि के अनुसार ही Shikshan क्रिया का चयन करना चाहिए।
(ii) उद्दीपन-अनुक्रिया का Siddhant (Principle of Stimuls-Response)
शिक्षक को विद्यार्थियों की
प्रतिक्रिया हेतु उचित प्रकार के उद्दीपनों की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे Shikshan के प्रति विद्यार्थियों की रुचि बनी रहे। इस हेतु
उसे उद्दीपन परिवर्तन कौशल में पारगंत होना चाहिए। उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि
किस विषयवस्तु के लिए, कौनसा उद्दीपन आवश्यक व उचित है।
(iv) ज्ञानेन्द्रियों के प्रShikshan का Siddhant (Principle of Training
of Senses)-
प्रभावशाली शिक्षक के लिए, ज्ञानेन्द्रियों
द्वारा Shikshan
महत्त्वपूर्ण होता है। जितनी अधिक ज्ञानेन्द्रियाँ काम में आयेंगी उतना ही अधिक
अधिगम होगा तथा Shikshan भी
प्रभावी होगा।Shikshan के Siddhant अत: शिक्षक को Shikshan की
व्यवस्था इस प्रकार करनी चाहिए कि विद्यार्थियों को अपनी अधिकाधिक ज्ञानेन्द्रियों
को प्रयोग में लाने का अवसर प्राप्त हो सके।
(1) अभ्यास का Siddhant (Principle of Practice)-
शिक्षक को विद्यार्थियों को
निरन्तर अभ्यास करवाना चाहिए,
जिससे विद्यार्थी पढ़ाई गई
सामग्री का उचित प्रकार से स्मरण कर सकें।
(vi) करके सीखने का Siddhant (Learning by doing) -
शिक्षक को विद्यार्थियों को
ऐसे अवसर प्रदान करने चाहिए जिससे वो स्वयं करके सीख सकें ।Shikshan के Siddhant जहाँ तक हो प्रयास यही करना चाहिए कि विद्यार्थी स्वअधिगम कर सकें, जिससे
उनमें आत्मविश्वास व आत्मनिर्भरता विकसित हो।
(vii) पुरस्कार व दण्ड का Siddhant (Principle of Punishment & Re ward)-
विद्यार्थियों को उनकी उचित
क्रियाओं पर पुरस्कार दिया जाना चाहिए तथा अवांछनीय क्रियाओं की आलोचना भी करनी
चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके आलोचना को कम ही प्रयुक्त करना चाहिए क्योंकि यह भी
देखा गया है कि प्रशंसा, आलोचना से अधिक उत्साहवर्धक होती है। एक शिक्षक को आवश्यकतानुसार
इनका उचित मात्रा में प्रयोग करना आना चाहिए।
(viii) विश्राम, मनोरंजन
तथा अवकाश के समय के सदुपयोग का Siddhant (Principle of Rest,
Recreation and Proper Utilisation of leisure time)
शिक्षक को विद्यार्थियों के
विश्राम व मनोरंजन का ध्यान रखना चाहिए। उसे यह ध्यान में रखना चाहिए कि निरन्तर Shikshan क्रिया से विद्यार्थियों में बोरियत होने लगती
है।Shikshan के Siddhant अतः उसे विद्यार्थियों के विश्राम व मनोरंजन के साथ-साथ अवकाश के समय
का सदुपयोग करना भी आना चाहिए।
(ix) स्व अभिव्यक्ति व सृजनात्मकता का Siddhant (Principle of Selr Expression & Creativity)-
शिक्षक को विद्यार्थियों को
इस प्रकार प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे नये व मौलिक विचारों का निर्माण कर सकें।
इस हेतु उन्हें स्व अभिव्यक्ति हेतु प्रेरित करना चाहिए एवं सृजनात्मक कार्यों की
ओर भी प्रेरित करना चाहिए।Shikshan के Siddhant
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