ग्लेसर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान
(Glasser's Basic Training Model)
ब्रूस आर. जॉयस तथा मार्शा वील (Bruce R Joyce & Marsha weil) ने इसे अपने द्वारा विभाजित चार वर्गों में से व्यक्तिगत शिक्षण प्रतिमान वर्ग में रखा है। यह प्रतिमान मूलतः शिक्षण में पृष्ठपोषण द्वारा व्यवहार परिवर्तन पर बल देता है। यह प्रतिमान बालक में आत्मबोध की क्षमता व कर्तव्यपरायणता की क्षमता का विकास करता है।
इस प्रतिमान में शिक्षक व छात्र मिलकर जनतान्त्रिक विधि से कार्य करते है। एकाग्रता का वातावरण बनाते है तथा समस्या का वर्णन कर व्यक्तिगत निर्णय द्वारा समाधान के विकल्पों का चयन कर व्यावहारिक रूप से समाधानों का अनुसरण करते है। इस प्रतिमान में छात्र सक्रियता अधिक रहती है शिक्षक नियन्त्रण का कार्य करते है।
ग्लेसर ने अपने प्रतिमान में शिक्षण प्रक्रिया के चार भाग बतायें है, ये चारों भाग एक-दूसरे से पूरी तरह से जुड़े होते हैं तथा एक-दूसरे भाग को आवश्यक रूप से प्रभावित करते है। ये चार भाग निम्न हैं :-
रॉबर्ट ग्लेसर के अनुसार, "अन्तिम व्यवहार प्राप्य उद्देश्य के रूप में, विशिष्ट अनुदेशनात्मक स्थिति का लक्ष्य तथा अनुदेशनात्मक तकनीकी की प्रक्रियायें विद्यार्थी के व्यवहार में सुपरिभाषित परिवर्तनों में परिणत होने चाहिए जो कि इस प्राप्य उद्देश्य के निकट हैं।"
Terminal behaviour as the end product, objective of a particular institutional situation and the procedures in instructional technology should result in definable changes in student behaviour which appraximate this end point.'
ग्लेसर के "बुनियादी शिक्षण प्रतिमान" के आधारभूत तत्त्व (Fundamental Elements of Glaser's Basic Teaching Model) :
ग्लेसर के बुनियादी शिक्षण प्रतिमान के निम्नलिखित आधारभूत तत्त्व है :
1. केन्द्र बिन्दु या लक्ष्य (Focus) :
इस प्रतिमान का उद्देश्य मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार शैक्षणिक उद्देश्यों का निरुपण करना है, जिससे समस्याओं का समाधान हो सकें। इस प्रतिमान में शिक्षण प्रक्रिया के चार बुनियादी तत्वों :
(1) उद्देश्य निर्धारण (2) पूर्व व्यवहार (3) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया (4) निष्पादन मुल्यांकन द्वारा मानव व्यवहारों का परिमार्जन किया जाता है जिससे नैतिक मूल्यों का स्तर ऊँचा उठ सके।
2. संरचना (Synatax) :
इस पद में शिक्षण प्रक्रिया के चारों तत्वों का क्रमबाट प्रयोग किया जाता है।
(1) उद्देश्य निर्धारण :-
शिक्षण द्वारा शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व जिन उद्देश्यों को पहचान कर निर्धारित किया जाता है, इसमें उन उद्देश्यों को सम्मिलित किया जाता है। शिक्षक उद्देश्यों का निर्धारण कर उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान करता है तथा परिभाषित कर लिखता है। उद्देश्य निर्धारण से शिक्षण की सीमा भी निर्धारित हो जाती है तथा उद्देश्य निर्धारण अध्यापक को एक दिशा भी प्रदान करता है।
(ii) शिक्षण पूर्व व्यवहार :-
शिक्षक द्वारा शिक्षण से पूर्व अपने विद्यार्थियों के - पूर्व ज्ञान, स्तर, क्षमता, रुचि व बुद्धि स्तर की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है, क्योंकि शिक्षक द्वारा शिक्षण प्रक्रिया का निर्धारण विद्यार्थियों के पूर्व व्यवहार के अनुसार होता है।
(iii) अनुदेशात्मक प्रक्रिया :-
यह शिक्षण की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था में उद्देश्यों तथा विद्यार्थी के पूर्व व्यवहार के अनुसार शिक्षण की नीति तथा . योजना बनाई जाती है। इस अवस्था के द्वारा ही विद्यार्थी के वांछित व्यवहार को निर्मित
किया जाता है। इस अवस्था में शिक्षक द्वारा विभिन्न शिक्षण विधियों व प्रवधियों का. प्रयोग किया जाता है, जिसमें शिक्षक व विद्यार्थी में अन्तःक्रिया होती है, अतः इसे शिक्षण की अन्तःक्रिया अवस्था भी कहते है। इस अन्तःक्रिया द्वारा ही विद्यार्थी को
अधिगम अनुभव प्रदान किये जाते हैं। विभिन्न प्रकार के अधिगम अनुभवों जैसे सम्प्रत्यय, नियम, समस्या समाधान आदि की प्राप्ति में विभिन्न शिक्षण प्रक्रियाओं को चयनित किया जाता है। श्रव्य दृश्य साधना, साहित्य, पुस्तकों आदि का चयन किया जाता है। .
(iv) निष्पादन मूल्यांकन :-
इस अवस्था में विद्यार्थी द्वारा प्राप्त उद्देश्यों की सीमा का पता लगाया जाता है। यह ज्ञात किया जाता है प्रयोग की गई शिक्षण प्रक्रिया कितनी. प्रभावी व सफल है। इसमें मूल्यांकन की विधियों का निर्धारण भी किया जाता है। मूल्यांकन के लिए प्रयुक्त विभिन्न परीक्षणों का निर्धारण तथा पृष्ठपोषण व्यवस्था को भी निश्चित किया जाता है।
(3) सामाजिक प्रणाली (Social System) :
इसमें जनतन्त्रात्मक व्यवस्था होती है। शिक्षक व विद्यार्थी दोनों परस्पर सहयोग करते है तथा दोनों के लिए समान
अवसर होते है। किसी का भी महत्त्व कम नहीं होता है।