"Bruner" द्वारा प्रतिपादित'सम्प्रत्यय-निष्पत्ति शिक्षण-प्रतिमान' की रचना एवं विशेषताओं का वर्णन
Bruner ka sikhne ka siddhant
सम्प्रत्यय निष्पत्ति या
उपलब्ध "Shikshan-Pratiman" का विकास और प्रवर्तन जेरोम ब्रूनर और उसके
सहयोगियों ने सम्मिलित रूप से किया। बूनर का मत है कि,"मनोविज्ञान जब तक ही संवेगात्मक कारकों व अचेतन अंतर्भेदों की भूमिका
को महत्त्व देता है जब तक कि मानव अपने संसार में तर्कसम्मत अनुकरण की क्षमता को
तर्कहीनता के विरुद्ध प्रदर्शित करता है। मानव एक तार्किक मशीन नहीं है, किन्तु
वह उस रूप में अपनी निर्णय करने व सूचना-संग्रह की क्षमता रखता है जो उसकी
अधिगम-क्षमता को प्रदर्शित करती है।" ब्रूनर का सिद्धान्त
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इस कथन का आशय यह है कि "Bruner" की मान्यता के अनुसार हम जिस ना में रहते हैं, वह
अत्यन्त जटिल है जिसमें असंख्य वस्तुएँ हैं। इस विविधतापूर्ण वातावरण में व्यक्ति
का समायोजन के लिये यह आवश्यक है कि पर्यावरण की असंख्य वस्तुओं पद्धार्थों को
पहचानना तथा उनमें विभेद करने की योग्यता व्यक्ति में हो तथा इन वस्तुओं
पद्धार्थों, घटनाओं, क्रियाओं तथा विचारों आदि को भली-भाँति पहचानने, उनमें
भेद कर व उन्हें वर्गीकृत करने की योग्यता हो। 'सम्प्रत्यय निष्पत्ति या
उपलब्धि' कही जाती है "Bruner" के इस "Pratiman" का ब्रूस जॉयस व मार्शा वील ने 1956 में
विकास किया। Bruner ka sikhne ka
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- सम्प्रत्यय उपलब्धि या निष्पत्ति के लिये विभिन्न वस्तुओं को उनके
गुणों के आधा पर पृथक् वर्गों में रखा जाता है और फिर उनके गुणावगुण के आधार पर
उन्हें एव सम्प्रत्यय प्रदान किया जाता है। इस प्रक्रिया में आगमन पद्धति प्रयुक्त
किया जाता है इससे शिक्षार्थियों में सामान्य बोध क्षमताओं का विकास होता है यह
सम्प्रत्यय निष्पत्ति .तभी हो सकती है जब इस उपलब्धि के लिये हमारे समक्ष विभिन्न
सम्प्रत्यय हों। अतः सम्प्रत्यय-निष्पत्ति का आधार सम्प्रत्यय निर्माण की
प्रक्रिया होती है। यह एक खोजपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न वस्तुओं की खोज कर
उनके समान गुणों के आधार पर,
उन्हें पृथक् कर उन पर
परीक्षण किये जाते हैं, तत्पश्चात् ही सम्प्रत्यय का निर्माण किया जाता है। "Bruner" का यह "Pratiman" शिक्षणार्थियों की सम्प्रत्यय-निष्पत्ति या
उपलब्धि में सहायता करता है। इस "Shikshan-Pratiman" के तत्व
निम्नांकित हैं Bruner ka sikhne ka
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सम्प्रत्यय-निष्पत्ति "Shiksha-Pratiman" के तत्त्व का
(Elements of Concept
Attainment Model of Teaching)
1. उद्देश्यगत केन्द्र (Focus)-इस "Pratiman" का अनुप्रयोग आगमन तर्क, भाषा, कौशल व
बोध के विकास हेतु किया जाता है। गणित व विज्ञान-"Shikshan" के लिये भी यह "Pratiman" उपयुक्त है। इस "Pratiman" के अनुप्रयोग में शिक्षक को समानता एवं भिन्नताएँ
प्रदश्रित करने हेतु अनेक उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ते हैं। Bruner ka sikhne ka
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इस "Pratiman" में अंतर्निहित उद्देश्यों को इन प्रवर्तकों ने
इस प्रकार परिभाषित किया हैं।
(i) छात्रों को प्रत्ययों यानी धारणाओं की प्रवृत्ति
के बारे में बताना जिससे वे वस्तुओं के भिन्न-भिन्न गुणों के मध्य भेद कर सकें। इस
प्रकार छात्र व्यक्तिगत एवं वैज्ञानिक ज्ञान सही एवं शुद्ध रूप में अर्जित कर सकते
हैं। Bruner ka sikhne ka
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(ii) सम्प्रत्ययों की सम्प्राप्ति हेतु प्रभावी कदम उठा
सकने के लिये छात्रों को प्रशिक्षित करना जिससे वे कम से कम समय में अधिक से अधिक
धारणाओं को आत्मसात् कर सकें।
(iii) विशिष्ट प्रत्ययों या धारणाओं को सिखाने के लिये
भी इस "Pratiman" का
अनुप्रयोग किया जा सकता है।
- इस प्रकार इस "Pratiman" में उद्देश्यगत केन्द्र सम्प्रत्यय निष्पत्ति
हेतु शिक्षार्थियों को वस्तुओं के गुणों के आधार पर उनमें भेद करने के लिये
प्रशिक्षित करना है। वस्तुओं,
घटनाओं या क्रियाओं को
श्रेणीबद्ध कर सकने की योग्यता को ही 'सम्प्रत्यय निर्माण' की
संज्ञा दी जाती है। यह "Pratiman" 'सूचना-प्रसंस्करण' को
प्रमुख स्रोत माना है।
2.संरचना (Syntax)-इस
वर्तमान में चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है
(i) प्रारम्भ में 'प्रदत्तों को प्रस्तुत किया
जाता है जिनमें उदाहरणों का उल्लेख करने से प्रतययों का विकास किया ..ला है। इन
आधार-सामग्रियों को प्रस्तुत कर संप्रत्ययों का अवबोध कराने हेतु क्रीड़ाप.क ढंग
से वस्तुओं, व्यक्तियों, या घटनाओं की पहचान कराई जाती है। इसे केन्द्रीयकरण (पारस्परिक)
अर्थात् 'Conservative
Concentration' भी कहा जाता है। Bruner ka sikhne ka
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(ii) दूसरे सोपान में शिक्षार्थी सम्प्रत्यय की
व्यूहरचना का विश्लेषण करता है जो स्वयं की गति से किया जाता है। आधार-सामग्रियों
के विशेष अध्ययन हेतु प्रयुक्त किये जाने योग्य रचना-कौशलों का विश्लेषण किया जाता
है जिसमें शिक्षार्थी अत्यन्त व्यापक पदों या रचनाओं को लेकर उनकी परिधि या
सीमा-रेखाओं को शनैः-शनैः संकीर्ण बनाते जाते हैं। इससे प्राकल्पना का निर्माण
होता है।
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(iii) तीसरे सोपान में चरों का विश्लेषण किया जाता है।
सम्प्रत्ययों के विश्लेषण का आलेख शिक्षार्थी लिखित रूप में प्रस्तुत करता है।
विवरणों, वार्ताओं तथा लिखित सामग्रियों में उपलब्ध सम्प्रत्ययों का विश्लेषण
किया जाता है। जिसमें शिक्षार्थी को भिन्न भिन्न सम्प्रत्ययों की पहचान कर उनके
महत्त्वपूर्ण गुणों का अवबोध कराया जाता है। इससे ज्ञान-वृद्धि होती है।
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3. सामाजिक प्रणाली (Social System)-
इस तत्त्व में शिक्षक द्वारा शिक्षार्थियों को
अधिक सहायता देकर उन्हें प्रोत्साहित करने का प्रावधान है। शिक्षार्थी कौशलों के
माध्यम से सम्प्रत्ययों का निर्माण एवं विश्लेषण करना आरम्भ कर देते हैं। इस कार्य
में शिक्षक उनका निर्देशन करता है तथा उन्हें अभिप्रेरित भी करता है।
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4. मूल्यांकन-व्यवस्था (Support-System)-
इस "Pratiman" में वस्तुनिष्ठ तथा निबन्धात्मक परीक्षाओं के
माध्यम से मूल्यांकन किया जाता है। प्रायः लिखित परीक्षाओं को अधिक प्रयुक्त किया
जाता है। डॉ. आर. ए. शर्मा के शब्दों में, "इस "Pratiman" में पाठ्यवस्तु की व्यवस्था इस प्रकार की जाती है
जिससे प्रत्ययों का बोध हो सके। अत: इसमें इस प्रकार की व्यूहरचना प्रयुक्त की
जाती है जिसमें नवीन प्रत्ययों का बोध कराया जा सके। मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठ तथा
निबन्धात्मक परीक्षाओं को प्रयुक्त किया जा सकता है। लिखित परीक्षाएँ ही अधिक उपयोगी
मानी जाती हैं।"
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सम्प्रत्यय-निष्पत्ति "Pratiman" की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ तथा शिक्षकों हेतु निहितार्थ
(Characteristic
Features of Concept Attainment Model and its Implications for Teachers)
इस "Pratiman" की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नांकित हैं- . ___
1. शिक्षक की विश्लेषणात्मक भूमिका (The Analytic Role of Teacher)-
इस "Pratiman" में आधार-सामग्रियों के प्रस्तुतीकरण, उनके
विश्लेषण हेतु उपयोगी युक्तियों के चयन और अनुप्रयोग हेतु समुचित अभ्यास व अवबोध
कराने में शिक्षक को सक्रिय होकर विश्लेषणात्मक भूमिका का वहन करना पड़ता है।
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2. सकारात्मक व नकारात्मक उदाहरणों का संगठन (Organization of Positive and Negative Examples)-
यह सम्प्रत्यय निष्पत्ति
हेतु करना अपरिहार्य होता है क्योंकि विशेष प्रकार के सम्प्रत्ययों से युक्त
पाठ्यवस्तु का उपयोग किया जाता है। इन उदाहरणों से सम्प्रत्ययों का बोध व उनमें
विभेद सरलता से स्पष्ट होता है।
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3. शिक्षक को सम्प्रत्ययों का पूर्वज्ञान (Teacher's Previous Knowledge of Concepts)-
किसी सम्प्रत्यय की
शिक्षार्थियों द्वारा निष्पत्ति के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षक को उस सम्प्रत्यय
का पूर्वज्ञान हो।
4. नम्य अनुप्रयोग (Flexible Application)
-प्रायः सभी विषयों में सम्प्रत्यय पाये जाते हैं, अतः विषय
की प्रकृति के अनुसार उन सम्प्रत्ययों की निष्पत्ति हेतु इस "Pratiman" के अनुप्रयोग में नम्यता बनी रहती है। रेडियो व
टी.वी. पाठों में भी इसका अनुप्रयोग सम्भव है।
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शिक्षकों के लिये
निहितार्थ (Implications for
Teacher)
शिक्षक को विषय-वस्तु का
सम्यक् आत्मसात् कराने हेतु बहुत सारे उदाहरण संकलित करने पड़ते हैं। किसी तथ्य को
सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के उदाहरणों को चुनकर उनका विश्लेषण एवं
अवबोध कराने की पूरी जिम्मेदारी शिक्षक पर होती है।
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भाषा, गणित एवं विज्ञान के
शिक्षकों के लिये इस मॉडल के उपयोग की संस्तुति प्राय: की जाती है क्योंकि ये
विषय-ज्ञान के विस्फोट से अत्यन्त प्रभावित हुए हैं और इनमें नये-नये प्रत्ययों की
रचना बहुत तेजी से हुई है।"
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सम्प्रत्ययों की निष्पत्ति हेतु वस्तुतः इस "Pratiman" की उपयोगिता प्रत्येक शिक्षक के लिये अब
अपरिहार्य हो गई है क्योंकि प्रत्येक विषय में सम्प्रत्ययों के सरल, सुबोध व
रोचक ढंग से आत्मसात् करने में इस "Pratiman" की महत्त्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित है।
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सीमाएँ (Limitations)
इस सम्प्रत्यय निष्पत्ति "Pratiman" के गुणों व लाभों को देखते हुए इसकी कुछ सीमाएँ व
कमियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं जो निम्नांकित हैं---
(1) इस "Pratiman" में कक्षा-"Shikshan" में सहज रूप से अपेक्षित अन्तःक्रिया द्वारा
अधिगम तथा उसके सामाजिक संदर्भ की उपेक्षा करता है।
(2) यह "Pratiman" बौद्धिकता व तर्क को अत्यधिक महत्त्व देकर
शिक्षार्थियों की अभिरुचि में बाधक बनता है।
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(3) इस "Pratiman" में शिक्षक को सम्प्रत्यय से सम्बन्धित सकारात्मक
व नकारात्मक
उदाहरणों का दुष्कर कार्य करना पड़ता है जिसके लिये
सामान्य शिक्षक न तो समर्थ ही हो सकता है और न उसके लिये प्रयत्नशील ही। इसके लिये
शिक्षक को समुचित प्र"Shikshan" दिया जाना अपेक्षित है।
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