अभिप्रेरणा ( MOTIVATION ) -
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किसी भी व्यक्ति को या प्राणी को कार्य करने के लिए जो तत्व या कारक प्रेरित करते हैं उन्हें अभिप्रेरक कहते हैं तथा ये सम्पूर्ण प्रकिया अभिप्रेरणा कहलाती है ।अभिप्रेरणा, MOTIVATION, मनोविज्ञान Psychology, अभिप्रेरक, आन्तरिक प्रेरक , बाह्य प्रेरक, प्रेरक का वर्गीकरण, अभिप्रेरणा की कार्यप्रणाली,
अभिप्रेरणा
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- अभिप्रेरणा का वास्तविक अर्थ -
- प्रबल जिज्ञासा ( सुनकर के ) .
- परिपक्वता ( सीखने की एक निश्चित आयु )
- मनोवृत्ति - कार्य को करने के लिए लगाया गया ध्यान
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- अभिप्रेरणा का मूल भाव है- धक्का देना
- अभिप्रेरणा व्यक्ति के शरीर की वह आन्तरिक शक्ति है जो उसे एक निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है ।
- अभिप्रेरणा को सीखने का स्वर्ण पथ / अधिगम का ह्रदय / जीवन की सफलता का आधार / अधिगम का प्रमुख कारक अनिवार्य स्थिति / अधिगम का सर्वोत्कृष्ट राजमार्ग कहते हैं । .
- अभिप्रेरणा साध्य नही साधन है यह साध्य तक पहुंचाने का मार्ग प्रस्तुत करता है । .सोरेन्सन ने अभिप्रेरणा को अधिगम का आधार बताया है ।
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अभिप्रेरणा की परिभाषाएँ .
विलियम मैक्डूगल - " अभिप्रेरणा वह शारीरिक व मनोवैज्ञानिक दशा है जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है । "
श्रीमती गुडएनएफ के अनुसार - " किसी कार्य को आरम्भ करने जारी करने तथा नियमित करने की प्रक्रिया अभिप्रेरणा कहलाती है
स्किनर - " अभिप्रेरणा अधिगम का सर्वोत्कृष्ट राजमार्ग / सर्वोच्च राजमार्ग / स्वर्ण पथ / दय है । "
क्रेच व क्रेचफील्ड- " अभिप्रेरणा हमारे क्यों का उत्तर देती है । "
वुडवर्व - " अभिप्रेरणा वह तात्कालिक बल है जो व्यवहार को उर्जा प्रदान करता है । "
मैक्डोनाल्ड - " अभिप्रेरणा व्यक्ति के अन्दर उर्जा परिवर्तन है । "
क्रो एवं को - " अभिप्रेरणा का सम्बन्ध सीखने में रूचि उत्पन्न करने से है इसी रूप में वह सीखने का आधार है । "
गिलफोर्ड - " अभिप्रेरणा कोई विशेष , आन्तरिक कारक शक्तियों उसे वातावरण में विभिन्न लक्ष्यों की ओर ले जाती है । " .
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अभिप्रेरक-
• वे कारक जिनसे अभिप्रेरणा कार्य करती है , अभिप्रेरक कहलाते हैं -
अभिप्रेरक मूल रूप से दो प्रकार के होते हैं -
1. आन्तरिक प्रेरक - वे प्रेरक जो दैहिक रूप से पैदा होते हैं । जैसे- भूख , प्यास , नींद , काम आदि । ये प्रेरक निश्चित रूप से कार्य करने के लिए प्रभावित करते हैं , इसलिए इन्हें सकारात्मक प्रेरक कहते हैं ।
2. बाह्य प्रेरक - वे प्रेरक जो सामाजिक वातावरण से ग्रहण किए जाते हैं या मानव रचित हैं । जैसे- पद , मान , सजा , पुरस्कार आदि । इन प्रेरकों के समय व्यक्ति अनिवार्य रूप से प्रेरित नहीं होता इसलिए यह नकारात्मक प्रेरक कहलाते हैं ।
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अबाहम मैस्लो - अब्राहम मैस्लो मूलतः इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्री थे , इन्होने अभिप्रेरणा के लिए कार्य करते हुए दो तरह के प्रेरको का उल्लेख किया -
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जन्मजात प्रेरक - भूख , प्यास , नींद आदि ।
अर्जित प्रेरक - पद , प्रतिष्ठा , सम्मान आदि
थामसन दो प्रकार के है
1. स्वाभाविक प्रेरक - खाना , पीना , सोना , खेलना , मनोरंजन आदि
2. कृत्रिम प्रेरक - पद , प्रतिष्ठा , सम्मान आदि
गैरिट के अनुसार - तीन प्रकार के अभिप्रेरक
1.जैविक / यहिक ( संवेग ) - कोध , भय , आश्चर्य आदि ।
2. मनोवैज्ञानिक ( मूल प्रवृत्तियों ) - युयुत्सा , पलायन , जिज्ञासा आदि
3. सामाजिक ( आवश ) - सम्मान , प्रेम , सहयोग , दया आदि
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प्रेरक का वर्गीकरणअभिप्रेरणा, MOTIVATION, मनोविज्ञान Psychology, अभिप्रेरक, आन्तरिक प्रेरक , बाह्य प्रेरक, प्रेरक का वर्गीकरण, अभिप्रेरणा की कार्यप्रणाली, अभिप्रेरणा
अभिप्रेरणा की कार्यप्रणाली-
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कोई भी अभिप्रेरणा एक निश्चित चक्र में कार्य करती है । जिसके तीन सोपान होते हैं - आवश्यकता , चालक , प्रोत्साहन
Motive = Need + Drive + Incentive ( M = N + D + I )
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1. आवश्यकता - जब प्राणी को किसी प्रकार की कमी या अधिकता महसूस होती है तो यह उसकी आवश्यकता कहलाती है । जैसे हमारे शरीर को कोशिकाओं में ऊर्जा की कमी हो जाने पर हमें भोजन की आवश्यकता होती हैं ।
2. चालक - जब प्राणी को कोई आवश्यकता महसूस होती है तो उसमें एक विशेष प्रकार का तनाव पैदा हो जाना । जैसे- भूख , प्यास , भय , संवेग
3. प्रोत्साहन- जब प्राणी में कोई चालक पैदा हो जाता है तो उस चालक को समाप्त करने के लिए उसे कोई वस्तु लेनी पड़ती है या क्रिया करनी होती है । जैसे- भूख , प्यास , पलायन , मूल प्रवृत्तिा भूख रूपी चालक को समाप्त करने के लिए भोजन करना पड़ता है
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अभिप्रेरणा के सिद्धान्त
1. मनोविश्लेषण का सिद्धान्त , सिग्मंड फ्रायड , 1856-1939-
सिग्मंड फ्रायड ने कहा कि मनुष्य में मूल प्रवृत्तियां पाई जाती हैं । जिनसे व्यक्ति सही व गलत कार्यो का दिशा में आगे बढ़ता हैं
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- ईरोज ( निर्माणात्मक ) - सही कार्य / जन्म से संबधित प्रवृत्तिा जब व्यक्ति में इस प्रवृत्ति का विकास होता है तो वह सकारातम्क कार्यों की ओर आगे बढ़ता है ।
- मायनेटॉस ( विध्वंसात्मक ) - मृत्यु से संबधित प्रवृत्ति जब व्यक्ति विध्वंसात्मक कार्य करने की दिशा में आगे बढ़ता है । इनके अनुसार अचेतन मन मानव के व्यवहार का प्रमुख चालक है । अचेतन मन ही दमन की हुई इच्छाओं का पुंज है ।
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2. उद्दीपन - अनुक्रिया सिद्धान्त , स्किनर- इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति जब भी किसी उद्दीपक को देखता है तो वह उस उद्दीपक के प्रभाव से किसी अनुक्रिया को करता है अर्थात् एक व्यक्ति में पैदा होने वाली अभिप्रेरणा किसी उद्दीपक के प्रभाव से आगे बढ़ती है ।
नोट अधिगम के क्षेत्र में उद्दीपन- अनुक्रिया का सिद्धान्त थार्नडाइक ने दिया ।
3. चालक का सिद्धान्त , क्लार्क लियोनार्ड इल- इस सिद्धान्त के अनुसार चालक / प्रणोद या प्रेरक जितना अधिक तीव्र होता है , अभिप्रेरणा उतनी ही तीव्रता के साथ में कार्य करती है और चालक जितना कमजोर होता है अभिप्रेरणा भी उतनी ही मंद गति से कार्य करती है ।
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4. प्रोत्साहन का सिद्धान्त , बोल्स एवं काफमैन- इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति उस दिशा में काम करता है जहाँ प्रोत्साहन की प्राप्ति होती है । प्रोत्साहन के अभाव में अभिप्रेरणा चक्र पूरा नहीं हो सकता , प्रोत्साहन भी दो प्रकार का होता है- ( 1 ) धनात्मक तथा ( 2 ) ऋणात्मका धनात्मक प्रोत्साहन की दिशा में व्यक्ति कार्य करने के लिए आगे बढ़ता है जबकि ऋणात्मक प्रोत्साहन की दिशा में व्यक्ति कार्य नहीं करता ।
5. अभिप्रेरणा का शारीरिक सिल्वर : प्रतिपादक - विलियम जेम्स , क्रेचमर , शैल्डन , आवश्यकता पदानुक्रम मांग पूर्ति का सिद्धान्त - अब्राहम मैस्लो ( 1908 - 1970 ई . ) । अब्राहम मैस्लो ने व्यक्ति की आवश्यकताओं का एक पिरामिड प्रस्तुत किया , उसके लिए मूल रूप से मैस्लों ने ' आत्मसिद्धि प्रत्यय ' का अध्ययन किया और कहा कि आत्मसिद्धि वह स्तर होता है , जहाँ व्यक्ति का मन और मस्तिष्क समान दिशा में या एक होकर कार्य करने लग जाते हैं जिसे पूर्ण सन्तुष्टि या सन्तोष की प्राप्ति माना जा सकता है । इसे स्पष्ट करने के लिए मैस्लो ने आवश्यकता पदानुक्रम का निम्न पिरामिड प्रस्तुत किया
- मैस्लो के अनुसार एक सामाजिक वातावरण में व्यक्ति सबसे पहले अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है और उसके बाद द्वितीयक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करता है और जब द्वितीयक आवश्यकतायें भी पूरी हो जाती है तो वह व्यक्ति मानसिक सन्तोष की प्राप्ति करता है ।
मूल प्रवृत्ति का सिद्धान्त - विलियम मैक्डूगल
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अभिप्रेरणा के मूल प्रवृत्ति सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1908 में विलियम मैक्डूगल ने किया ।
नोट मूल प्रवृत्ति के प्रत्यय का सर्वप्रथम प्रयोग विलियम जेम्स ने किया था । परन्तु पूर्ण सिद्धान्त के रूप में मूल प्रवृत्ति के सिद्धान्त को प्रस्तुत करने का श्रेय विलियम मैक्डूगल को दिया जाता है । इसलिए ' मूल प्रवृत्ति के जनक ' विलियम मैक्डूगल हैं ।
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मूल प्रवृत्ति - बालक में पाई जाने वाली प्रवृत्तिया जो जन्म से ही होता है और स्वाभाविक रूप से सभी में लगभग समान होती है । मूल प्रवृत्ति कहलाती है । जैसे- बच्चे का जन्म से रोना , गुस्सा करना , जिज्ञासा की प्रवृत्ति , हास्य की प्रवृत्ति आदि ।
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मूल प्रवृत्ति की विशेषताएँ
1. जन्मजात होती हैं ।
2. मूल प्रवृत्ति सार्वभौमिक होती है ।
3. मूल प्रवृत्तियों की मात्रा सभी व्यक्तियों में समान नहीं होती है ।
4. मूल प्रवृत्तियां व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करती हैं ।अभिप्रेरणा, MOTIVATION, मनोविज्ञान Psychology, अभिप्रेरक, आन्तरिक प्रेरक , बाह्य प्रेरक, प्रेरक का वर्गीकरण, अभिप्रेरणा की कार्यप्रणाली, अभिप्रेरणा
संवेग -
- संवेग की उत्पत्ति मूल प्रवृत्ति से होती है ।
- भावनाओं के या मूल प्रवृत्तियों के व्यवहारिक पहलू को ' संवेग ' कहते हैं ।
- संवेग मनोशारीरिक होते हैं , क्योंकि संवेग मन के द्वारा नियंत्रित एवं शरीर के द्वारा प्रदर्शित होते हैं
- विलियम मैक्डूगल ने मूल प्रवृत्तियों की संख्या 14 बताई है और प्रत्येक मूल प्रवृत्ति का एक संवेग होता है ।भिप्रेरणा, MOTIVATION, मनोविज्ञान Psychology, अभिप्रेरक, आन्तरिक प्रेरक , बाह्य प्रेरक, प्रेरक का वर्गीकरण, अभिप्रेरणा की कार्यप्रणाली, अभिप्रेरणा
नोट संवेग पहले तथा मूल प्रवृत्ति बाद में होती है ।
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*14 मूलप्रवृत्ति तथा उनसे सम्बन्धित संवेग -
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत - सिग्मण्ड फ्रायड
मन की स्थितियाँ
1. Id- इम का वास्तविक अर्थ गलत इच्छाए
- इसका संबंध Birth ( जन्म ) पर आधारित है ।
- राक्षसीय प्रवृत्ति , आनन्ददायी प्रवृत्ति , जैविक रूप से मान्य , पार्श्विक प्रवृत्ति , अचेतन मन ।
2. EGO ( अहम् ) - इसका वास्तविक अर्थ सही इच्छाएँ
- इसका संबंध Society ( सामाजिकता ) से है ।
मानवीय प्रवृत्ति , सामाजिक रूप से मान्य , यथार्थवादी ।
वास्तविक वादी , चेतन मन ।
3. Super Ego ( परम् अह )
- इसका वास्तविक अर्थ कानूनी प्रवृत्ति है
- इसका संबंध Mind ( मस्तिष्क ) से है । दैविय / ईश्वरीय प्रवृत्ति , सांस्कृतिक रूप से मान्य , आदर्शवादी / नैतिकवादी , उच्च भावनायें . .
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नोट * ID ( इदं ) जब Super Ego परम अहं पर हावी होती है , तो Super Ego . वाले व्यक्ति की प्रवृत्ति राक्षसी होती है , और बालक अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है ।
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* Super Ego जब ID पर हावी होता है तो बालक की इच्छाओं का दमन हो जाता है और वह ईश्वरीय
* प्रवृत्ति वाला हो जाता है ।
* एक बालक का ID ( इदम् ) व Super Ego ( परम अहं ) के मध्य संबंध स्थापित है तो बालक समायोजित होगा । अर्थात् ( Ego ) अहम् ( सामाजिक ) होगा ।
* इदम् ( Id ) व परम अहं ( Super Ego ) के मध्य संबंध स्थापित नहीं है तो बालक कुसमायोजित होगा ।
* Id और Super Ego जब Ego पर हावी हो जाते है तो बालक की अवस्था विक्षिप्त अवस्था होती है ।
* बालक में Ego का विकास - शैशवावस्था से ही
* Ego सर्वाधिक - किशोरावस्था
* Ego तीव्रमें शैशवावस्था में
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उपलब्धि अभिप्रेरणा का सिद्धान्त
* डेविडडिसी . मैक्लिएंड व एटकिंसना इस सिद्धान्त के अनुसार कोई भी व्यक्ति उस समय प्रेरित होता है जब व्यक्ति के सामने कोई अवसर उपलब्ध होता है । जैसे- अध्यापक बनने के लिए TET / SUPER TET परीक्षा को अवसर मानते हुए हम सभी लोग तैयारी करते हैं । यह सिद्धान्त सफलता एवं असफलता को प्रभावित करता है । डेविड सी.मैक्लीलैण्ड का उपलब्धि अभिप्रेरणा सिद्धान्त उपलब्धि अभिप्रेरणा का सिद्धान्त हारवर्ड विश्वविद्यालय के मनौवैज्ञानिक डेविड सी . मैक्लिलैण्ड ने 1961 में प्रतिपादित किया । उनका विश्वास था कि व्यक्ति के मूल विश्वास एवं दृष्टिकोण उसकी उपलब्धि निश्चित करते है । उपलब्धि अभिप्रेरणा से आशय व्यक्ति के उन विशिष्ट स्थायी लक्षणों से है जो उसे किसी कार्य को करने हेतु विशिष्टता प्रदान करने में अभिप्रेरणा प्रदान करते है । मैक्लीलैण्ड तथा एटकिन्सन ने यह स्पष्ट किया कि भिन्न - भिन्न व्यक्तियों में उपलब्धि की आवश्यकता में भिन्नता होती है जिसके कारण उपलब्धि एवं सफलता के प्रति अभिप्रेरणा व उत्साह में भी अन्तर है । इस सिद्धान्त में एटकिंसन ने दो प्रेरक बताये है
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( 1 ) सफलता प्राप्त करने का प्रेरक ।
( 2 ) असफलता से बचने का प्रेरका
इन दो प्रेरकों के आधार पर हम चार निष्कर्ष पर पहुँचते है
( 1 ) यदि एक व्यक्ति में सफलता प्राप्त करने का प्रेरक अधिक हो और असफलता से बचने का प्रेरक कम हो तो वह व्यक्ति कार्य निष्पादन सफलता प्राप्त करने के लिये करता है ऐसी सोच को सकारात्मक सोच कहते है ।
( 2 ) यदि एक व्यक्ति में सफलता प्राप्त करने का प्रेरक कम हो और असफलता से बचने का प्रेरक अधिक हो तो ऐसा व्यक्ति कार्य निष्पात्ति असफलता से बचने के लिये करता है । ऐसी सोच को नकारात्मक सोच कहते है ।
( 3 ) यदि एक व्यक्ति में सफलता प्राप्त करने का प्रेरक कम हो और असफलता से बचने का प्रेरक भी कम हो तो ऐसा व्यक्ति कार्य निष्पादन न तो सफल होने के लिये करता है और न ही असफलता से बनने के लिये करता है । ऐसे व्यक्ति सबसे कम चिंतित होते है ।
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* यदि एक व्यक्ति में सफलता प्राप्त करने का प्रेरक अधिक हो और असफलता से बचने का प्रेरक अधिक हो तो ऐसा व्यक्ति कार्य का निष्पादन निश्चित रूप से सफल होने के लिये करता है । ऐसे व्यक्ति सफलता के लिये सर्वाधिक चिंतित होते है । ऐसे व्यक्ति के सामने करो या मरो की स्थिति होती है।
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Very nice sirji